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Monday, January 16, 2012

सिद्धांत भी एक नाटक है


भांरगम 2012 में मंचित नाटकों पर ‘जनसत्ता’ में संगम पांडेय लिख रहे हैं. ‘रंगवार्ता’ के साथियो के लिए साभार प्रस्तुत है ‘ग्रोटाव्स्की एन एटेंप्ट टु रिट्रीट’ पर उनकी रंग टिप्पणी. //

भारत रंग महोत्सव में पोलैंड के थिएटर ग्रुप कोरेया की प्रस्तुति ‘ग्रोटाव्स्की एन एटेंप्ट टु रिट्रीट’ का प्रदर्शन सोमवार को कमानी प्रेक्षागृह में किया गया। जर्जी ग्रोटोव्सकी पिछली सदी के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे पोलैंड के रंगकर्मी और रंग-सिद्धांतकार थे। उनकी पूअर थिएटर की अवधारणा रंगमंच को सिनेमा के प्रभावों से बरी रखने के अर्थ में थी। उनकी राय में थिएटर को वह नहीं होना चाहएि, जो यह नहीं हो सकता। उनका कहना था कि रंगमंच अगर सिनेमा से ज्यादा वैभवशाली नहीं हो सकता, तो इसे गरीब ही रहने देना चाहिए।

हमारे यहां मोहन राकेश भी अभिनेयता की तुलना में लाइट्स, मंच-सज्जा आदि के जरिए अतिरिक्त प्रभाव निर्मित किए जाने के खिलाफ थे, पर ग्रोटोव्स्की ने इस विचार को ज्यादा मुकम्मल शक्ल में पेश किया। उन्होंने अभिनेता और दर्शक के रिश्ते में अन्यमन्स्कता पैदा करने वाली हर चीज को खारिज किया। उनके लिए मंच पर किया जा रहा अभिनय ही बुनियादी चीज थी। लेकिन वे ‘मैथड एक्टिंग’ के नपेतुलेपन के पक्षधर भी नहीं थे। अभिनय उनके लिए स्तानिस्लाव्स्की और स्ट्रासबर्ग पद्धतियों का हुनर मात्रा न होकर अभिनेता की मानसिक और शारीरिक प्रतिक्रियाओं का एकीकरण था। इसके लिए वे अभिनेता में गंभीरता, एकाग्रता और प्रतिबद्धता को आवश्यक मानते थे। स्वयं में से उद्भूत स्वर और देह की स्वाभाविकता उनके लिए ज्यादा अहम थी। और इसके लिए कसी तकनीक की तुलना में आत्मचेतस होने की प्रक्रिया को वे ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते थे।

निर्देशक टॉमस्ज रोडोविक्ज निर्देशित इस प्रस्तुति में इस प्रक्रिया का जिक्र अभिनेता बार-बार करते हैं। दरअसल यह पूरी प्रसतुति ऐसी कई प्रक्रियाओं के जिक्र का ही एक विस्तार है। प्रस्तुति का मंच बर्गर बिंग्स के एक चौकोर हॉल की शक्ल में है। इसके एक कोने पर एक मेज रखी है, जिसके अंदर की गहराई में शीशों से रोशनी दिख रही है। शुरुआत में छह अभिनेता इसके इर्द-गिर्द खड़े हैं, जिनमें एक कुछ हकलाता है। निर्देशक के वक्तव्य के दौरान वह थोड़ा बेसब्र है। कहीं कुछ ऐसा नहीं है जो योजनाबद्ध लग रहा हो, पर योजनाहीनता की कोई चेष्टा भी नहीं है। निर्देशक के बाद अभिनेतागण अपने अनुभव और राय बता रहे हैं। इनमें कुछ सवाल भी हैं कि ‘अपने अकेलेपन के साथ इंसान क्या कर सकता है’ कि ‘एक गैर-अनुकुलित शरीर जानवर की तरह है’ कि ‘एक पापी ही संत हो सकता है’, ‘कुछ नही हो रहा- यह सिर्फ भावनाओं का खेल है’ कि ‘लेकिन कुछ कैसे रचें’, जबकि आप दूसरों से नियंत्रित हैं’ कि ‘जीने और रचने के क्रम में आपको खुद को स्वीकार करना होगा’। इसी क्रम में तरह-तरह की देहगतियों का मुजाहिरा भी अभिनेतागण करते हैं। यह एक सिद्धांत के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया है, जिसमें प्रदर्शनप्रियता जैसी खराबियों से बचने का मशविरा निहित है।

मंगलवार को महोत्सव में एक प्रस्तुति ‘बस्तर बैंड’ की भी थी। यह बस्तर के आदिवासी संगीत का एक प्रदर्शन था। इसे रंगमंचीय प्रस्तुति तो नहीं कह सकते, लेकिन रंगमंच के कुछ अवयव मानो इसमें अनायास शामिल थे। चार पुरुष और दो स्त्रियां विभिन्न वाद्यो के सामने हैं। नक्कारा, दो घड़े के वाद्य, लंबी शहनाई जैसा वाद्य, जिसके अनगढ़ स्वर पूरे वातावरण से एकाकार हैं। स्त्रियों में से एक देवी गीत गा रही है। उसके स्वर में पारंपरिकता का खरापन है। सुनकर मालूम देता है कि प्रार्थना, उलाहना या दर्द आदि भाव पारंपरिकता के वश की ही चीज हैं। फिर बहुत से कलाकार मंच पर आ जाते हैं। एक के सिर पर मोरपंख जैसा कुछ लगा है। एक दूसरे के सिर पर शिरस्त्राणनुमा चमकीली टोपी है। एक अन्य कलाकार धनुषाकार ढोलक बजा रहा है। मंच के दोनों सिरों पर दो स्तंभ खड़े हैं। एक के किनारे पर सूखे कद्दू लटके हैं। पता चला आदिवासी जन इन्हीं के आसपास बैठकर सांगीतिक बैठकी करते हैं। प्रस्तुति के निर्देशक अनूप रंजन पांडेय हैं। उनके मुताबिक उन्होंने इस बैंड का गठन आदिवासी परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए किया है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 12 जनवरी 2012 से साभार

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