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Sunday, August 12, 2012

आईना ढूंढे है अपना चेहरा


संजय कृष्ण
एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं। जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है।
रांची के रंगमंच पर बात करना आसान नहीं। रांची की जो बनावट और बुनावट है, संस्कृतियों का जो घालमेल है, उससे रांची का कोई अपना चेहरा नहीं बनता। आठ दशकों से ऊपर रंगमंच की यात्र में न जाने कितने पड़ाव आए, लेकिन कोई एक चेहरा मुक्कमल नहीं बन पाया है, जबकि आधा दर्जन नाट्य संस्थाएं रह-रह कर सक्रिय रही हैं। आज भी कुछ संस्थाएं सक्रिय हैं, जो रह-रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
पांच-सालों के दौरान 2012 का यह साल इस मामले में काफी खुशकिस्मत रहा। अखड़ा ने मार्च में तीन दिनी नाट्योत्सव का आयोजन कराया। अजय मलकानी की संस्था युवा रंगमंच ने भी जून में तीन दिनों तक वैरागी मन हारा का मंचन किया। केंद्रीय पुस्तकालय में रंगवार्ता ने विभारानी की एकल प्रस्तुति का आयोजन कराया, लेकिन अजय मलकानी की प्रस्तुति में दर्शकों का टोटा रहा तो केंद्रीय पुस्तकालय में पहली बार लोगों ने सौ-सौ रुपये सहयोग देकर नाटक देखा। एक्सआइएसएस के हॉल में भी अखड़ा के तीन दिनी उत्सव में दर्शकों की कोई कमी नहीं रही। क्यों? रंगकर्मी बार-बार दर्शकों का रोना रोते हैं।
यह समस्या पूरे हिंदी पट्टी में है। रांची इससे अछूती नहीं है, लेकिन यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर एक नाटक को देखने के लिए लोग पैसा देकर जाते हैं, दूसरे में नहीं। मलकानी ने तीन दिनों तक एक ही नाटक का मंचन किया। लेकिन उसका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया। दूसरे, जो विषय था, वह अब अप्रासंगिक है। जो दर्शकों को अपनी ओर खींच नहीं पाया।
रांची में दर्शकों की कमी नहीं हैं, क्योंकि रांची के एक कोने में विभा रानी के प्ले को देखने के लिए पूरा हॉल भर जाता है। एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं।
जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है। पिछले दिनों मजलिस ने मेकॉन में एक नाटक पद्मा नदीर मांझी का मंचन कराया था। कोलकाता से टीम आई थी। आयोजक उदयन बसु ने बताया कि देखने के लिए पास सुविधा दी गई है, लेकिन सबको हिदायत भी दी गई है कि वे अपने साथ किसी और को लेकर न आएं।
उन्होंने चार सौ पास बांटे थे और इतनी ही बैठने की व्यवस्था की गई थी। नाटक संध्या छह बजे शुरू होने वाला था और हॉल सवा छह बजे भर गया। नाटक मछुआरों की जिंदगी को उकेरता है। क्या हिंदी का रंगमंच अपने लोगों की आवाज बन पाया है? क्या वह अपने लोगों को अपने साथ जोड़ पाया है? हिंदी लेखकों-आलोचकों की तरह वायवीय होकर अपना चेहरा नहीं ढूंढ सकता है।

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