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Friday, March 2, 2012

महिलाओं की ताकत की परिचायक 'बहलोल' परम्परा


भूख और बदहाली के कारण महाराष्ट्र के विदर्भ जैसी पहचान बना चुके बुंदेलखण्ड में लोक कला और सदियों पुरानी परम्पराएं अब भी जीवित हैं.

इन्हीं में से एक है 'बहलोल' परम्परा, जो शादी-ब्याह के मौके पर वर पक्ष की महिलाओं से सम्बंधित है. इस परम्परा के जरिए महिलाएं अपनी ताकत का एहसास कराती हैं.

वर पक्ष के लोग जब दुल्हन के यहां बारात लेकर जाते हैं, उस समय यह परम्पर खास तौर पर निभाई जाती है. अधिकतर पुरुषों के बारात में चले जाने की वजह से केवल महिलाएं ही घरों में रह जाती हैं. ऐसे में घर की सुरक्षा से लेकर अपनी सुरक्षा तक का दारोमदार खुद उनके कंधों पर होता है. इस परम्परा के तहत महिलाएं रातभर जागकर घरों की व अपनी हिफाजत करती हैं और नाटकों के जरिए अपनी ताकत का एहसास भी कराती हैं.

कुछ दशकों पहले तक ज्यादातर बारात दुल्हन के यहां तीन दिनों तक ठहरती थी जिसे देखते हुए वर पक्ष के यहां इस परम्परा की शुरुआत हुई. अब हालांकि बारात इतने दिनों तक नहीं रुकती, लेकिन परम्परा अब भी कायम है. बांदा जनपद के नादनमऊ गांव की बुजुर्ग महिला सुखरनिया के मुताबिक, "बहलोल में महिलाओं द्वारा रतजगा कर ढोलक, झांझ व मजीरे की धुन पर बुंदेली लोक-संगीत के साथ नाटक भी किया जाता है. दो गुटों में बंटी महिलाओं का एक गुट मर्दाना वेशभूषा धारण करता है. चोर-सिपाही के नाटक में महिलाएं अपनी ताकत का एहसास भी कराती हैं."

उन्होंने बताया, "बहलोल का प्रहसन पुरुष वर्ग के लिए प्रतिबंधित है. यदि कोई पुरुष चोरी-छिपे भी देखते या सुनते पकड़ा जाता है तो उसे कोड़ों और लाठियों की मार से बेदम करने की सजा भी महिलाएं ही देती हैं." इसी गांव की फूलकुमारी ने बताया कि लाठी-डंडों के साथ महिलाएं मुहल्लों में गश्त भी करती हैं.

कांग्रेस की टिकट पर मऊ-मानिकपुर सीट से चुनाव लड़ रहीं गुलाबी गैंग की कमांडर सम्पत पाल ने भी इस बारे में अपने अनुभव बांटे. उन्होंने कहा, "बचपन में मां के साथ बहलोल देखती रही. वहीं से मुझे अंधेरी रात में निभाई जाने वाली इस परम्परा को असल जिंदगी में उतारने की प्रेरणा मिली. इसके बाद ही मैंने गुलाबी गैंग का गठन किया और महिलाओं की सुरक्षा के लिए सड़कों पर संघर्ष शुरू कर दिया."

(समयलाइव से साभार)

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