RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

.

Saturday, February 18, 2012

Can we talk about black theatre?


The debates surrounding ethnicity and theatre are alive and kicking, as shown by a range of current London plays.

It's an interesting time for black theatre in London at the moment. Stop. Rewind. Is that actually a useful thing to say? This is the question posed by the playwright Bola Agbaje on the Facebook group for her Olivier Award-winning play Gone Too Far!, which returns to the Royal Court in July as part of its Upstairs Downstairs season. The discussion topic "If a black person produces something such as a play, a film or music should it be associated with the word black?" has received almost 4,000 words in reply, passionately arguing both for and against, while examining the wider issues that surround the question.

Across town at the Arcola, Femi Oguns's play Torn has just opened. Like Gone Too Far!, Torn also deals with the split in the black community between African and West Indian cultures. The blurb for the show reads: "'You got the Whites - they're a collective. Then there's the Asians - they're unified. And then there's us. Divided. It's deep.' Two London lovers. One African. One West-Indian. What's the problem?" Leaving aside the questionable suggestions that whites are a collective (unless you count, uh, class, nationalism, Protestantism/Catholicism and even sexuality) and that the Asian community is unified (sure, Muslims, Hindus and Sikhs all get on like a house on fire - not), it is significant that here again is a play by a (black) playwright dealing with issues that directly affect the black community. And one which presents the situation as unique to black communities. Rather than using the situation to explore wider questions of segregation common to all human societies, Torn's publicity presents the divisions as specific and unique.

Perhaps even more interestingly, this week Look Back in Anger opens at Jermyn Street theatre starring Jimmy Akingbola. It remains to be seen whether this is "colour-blind casting" in a traditional, literalist, 1950s setting, or whether any adaptation or modernisation has taken place. Writing on the discussion of Gone Too Far!, one actor writes "...I don't want to be DE-ETHNITISED in my work. Meaning that I am colourblind cast all the time. In this sense I want my background/skin colour/ heritage to be part and parcel of what I bring to acting/writing because that is the frame of reference in which I am working. I would NEVER want to be asked to 'imagine to be white'. Which incidentally I HAVE been asked to do... BUT I don't want to be known as a 'BLACK ACTOR' rather than just an actor NOR do I want to be asked to deny my life's experiences when it comes to creating my art."

Meanwhile, over the river, the second leg of the LIFT festival's two-part season, which started in Stratford, continues on the South Bank. Here again, questions of identity are raised, both explicitly - with discussions like "The Responsibilities of Representation" chaired by Ruth Holdsworth with Paolo Favero - and implicitly: looking down the list of events you see label after label: "Deaf artist and Graeae Artistic Director Jenny Sealey"; "a staged meeting between the audience and leading Maori activist, Tame Iti"; "inspirational music from Australia's black protest movement"; "renowned English actor Pete Postlethwaite... Patrick Dodson and Bill Johnson, an old English school friend whose indigenous son Louis died tragically" ... The list goes on.

The question of identity concerns us all. Writing on the Gone Too Far! discussion, the playwright Duncan MacMillan notes: "It disturbed me greatly that many critics of my last play couldn't get over the fact my central character was black, as if our default starting position for characters is white ... I wonder whether it surprised so many people because I wasn't black, as if I couldn't possibly relate to or have empathy for someone who was ... There will be many people who will feel that, as a white man, I have no right to write a black character. You could also say I shouldn't be able to write women, old people, firemen, people who have different names, ages, opinions or experiences etc to my own. This particular line of argument ends up at a dead end where we are only able to write one-person shows about ourselves, performed by ourselves ... but then why even bother, if our capacity for empathy doesn't stretch to engaging with and being moved by the experiences of others."

It is a beautifully eloquent point. While identity and taxonomy can be important, it is our reaction to the labels that causes the problems. There should be no problem identifying a writer as black, but identifying a play as "black" (as in "black theatre company" and the like) seems to suggest exclusion, in the same way as "disabled theatre company" almost appears to start with special pleading, each modification seeming to enforce the idea that theatre companies are, unless otherwise stated, white and able-bodied. In seeking to fight against dismissive attitudes, is there a danger that the labels actually enact a far more definite sense of segregation? How do we retain identity without implying separatism?

Photo : Zawe Ashton (Armani) and Marcus Onilude (Blazer) in Gone Too Far!, 2007. Photograph: Tristram Kenton

Courtesy : The Guardian Daily, London

Friday, February 3, 2012

अगाथा क्रिस्टी दिलों पर राज करता है एक नाम..


अगाथा..यही नाम था आज से दो साल पहले केंद्र सरकार में मंत्री पद की शपथ ले रही उस छोटे से कद की और किसी बच्ची की तरह दिखने वाली युवा लड़की का। वह वरिष्ठ राजनीतिज्ञ एवं केंद्रीय मंत्री रह चुके पी.ए. संगमा की बेटी थी। संगमा ने अपनी बेटी का नाम महान ब्रिटिश उपन्यासकार अगाथा क्रिस्टी के नाम पर रखा था, जिनका नाम गिनीज बुक में अब तक की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों के लेखक के रूप में दर्ज है। इसकी बानगी इस तथ्य से मिल जाती है कि उनकी लिखी किताबों की 400 करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और उनके उपन्यासों, नाटकों व कहानियों का दुनिया की 103 भाषाओं में अनुवाद हुआ है।

अनुवाद के सूचकांक ‘इंडेक्स ट्रांसलेशनम’ के मुताबिक, दुनिया के किसी भी लेखक की रचनाओं का इतना अनुवाद नहीं हुआ, जितना अगाथा क्रिस्टी के लेखन का।

अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि दुनिया में संगमा अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं होंगे, जो अगाथा क्रिस्टी के लिए इतनी दीवानगी रखते हों कि बेटी का नाम भी उनके नाम पर रख दें। यह संख्या कई करोड़ में है। क्या कहेंगे उस लेखक के बारे में, जिसके लिखे नाटक ‘माउसट्रैप’ का मंचन लंदन के एम्बेसडर थिएटर में 25 नवंबर, 1952 को शुरू हुआ, जो 60 साल बाद आज भी जारी है और जिसका वहां पर अब तक 23 हजार बार मंचन हो चुका है। मौत के 25 साल बाद भी अगाथा लोगों के दिलोदिमाग में जिंदा हैं। लोग उन्हें ‘मर्डर मिस्ट्री क्वीन’ कहते हैं। उनके लेखन की खास बात यह कि यह साफ-सुथरा है, शालीन है। अगाथा ने कथानक में कहीं भी उत्तेजक दृश्य या संवाद नहीं रखे हैं, जैसा कि अधिकतर मर्डर मिस्ट्री लेखक करते हैं। अगाथा का लिखा हुआ इसलिए पढ़ा जाता है कि वह पढ़ने वाले के दिमाग को झिंझोड़ कर रख देता है, उसे मशक्कत करने पर मजबूर करता है। पाठक अंदाजा लगाता रह जाता है, लेकिन वहां तक नहीं पहुंच पाता, जहां तक अगाथा सोच चुकी होती है। अगाथा का लिखा बार-बार पढ़ो तो भी पुराना नहीं लगता। उनके दोनों मुख्य पात्र मिस मार्पल और हरक्यूल पोयरो इतने जीवंत हैं कि पाठक को अपने आसपास नजर आते हैं।

तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी अगाथा मैरी क्लारिसा मिलर 15 सितंबर, 1890 को ब्रिटिश काउंटी डेवशनर के टॉर्क शहर में पैदा हुईं। उनके पिता फ्रेडरिक मिलर न्यूयॉर्क में स्टॉक ब्रोकर थे, लेकिन अगाथा ने अमेरिकी नागरिकता कभी नहीं चाही और न ही खुद को कभी अमेरिकी बताया। वे अंत तक ब्रिटिश नागरिक रहीं। अगाथा ने आत्मकथा में लिखा है कि उनका बचपन बहुत खुशहाल बीता। बहुत कम लोग जानते हैं कि अगाथा कभी स्कूल नहीं गईं। घर पर ही उनकी शिक्षा दीक्षा हुई और इसके स्तर से कोई समझौता नहीं किया गया। उनकी मां का मानना था कि बच्चों को आठ साल की उम्र तक पढ़ना लिखना नहीं सीखना चाहिए, लेकिन अगाथा ने चार साल की उम्र में ही पढ़ना सीख लिया था। उनके पिता कहानियों में पहेलियां बुझाकर उन्हें गणित सिखाया करते, वहीं पूरा परिवार सवाल जवाब वाले गेम्स खेलता। अगाथा बचपन में ही कहानियां गढ़ने लगी थीं। उन्होंने अपनी कल्पना में कई सहेलियां बना ली थीं, जो अलग-अलग स्वभाव की थीं। इसी तरह उनकी कल्पनाओं में एक स्कूल भी था। बड़ी होने के बाद भी ये कल्पनाएं उनके दिमाग में चलती रहीं और उनके उपन्यासों के पात्रों का आधार बनीं।

जीवन के हर मोड़ पर सफल रहने वाली अगाथा का पहला वैवाहिक जीवन उतना सफल नहीं रहा। उन्होंने प्रेम विवाह किया था। हालांकि उनका प्रेम प्रसंग भी बेहद अशांति भरा रहा, लेकिन हर बात को अनदेखा करते हुए 1914 में उन्होंने रॉयल एयरफोर्स के पायलट आर्चीबाल्ड क्रिस्टी का हाथ थाम लिया। 1926 में अगाथा को पता चला कि उनके पति का किसी से अफेयर चल रहा है। अगाथा यह धोखा सहन नहीं कर पाईं और इसके दो साल बाद अपनी बेटी रोजालिंड को लेकर आर्चीबाल्ड क्रिस्टी से अलग हो गईं, लेकिन पहले पति का नाम उन्होंने अपने नाम के साथ हमेशा लगाए रखा। यहां तक कि अपने दूसरे विवाह के बाद भी।

अगाथा के लेखन में खास बात यह है कि उनके अपने जीवन के हालात एवं घटनाओं की छवि उनके कथानकों एवं पात्रों में नजर आती है। उनकी रचनाओं में सेटिंग्स अक्सर ऐसी हैं, जिनसे वह खुद परिचित रहीं। जैसे, आर्चीबाल्ड से अलग होने के बाद अगाथा ने 1930 में मैक्स मैलोवन नाम के पुरातत्वशास्त्री से विवाह किया था। उनका दूसरा वैवाहिक जीवन बेहद सुखी रहा, खासकर शुरुआती दौर में, जब वे पति के साथ कई बार आर्कियोलॉजिकल साइट्स पर इराक, तुर्की व मिस्र जैसे देशों में गईं। उनके कई उपन्यास व कहानियां ऐसी हैं, जिनमें सेटिंग्स इन्हीं इलाकों की हैं। उनका बेहद चर्चित उपन्यास ‘मर्डर ऑन द ओरिएंट एक्सप्रेस’ तुर्की के एक होटल में बैठकर लिखा गया था।

इसी तरह, उनकी अधिकतर रचनाओं में हत्याएं जहर देकर अंजाम दी गई हैं। इसकी बड़ी वजह यह कि जीवन में दो बार अगाथा का वास्ता ऐसे रसायनों से पड़ा था। पहले विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने एक अस्पताल में नर्स की नौकरी की थी, जिसे वे अपनी ज़िन्दगी का सबसे संतोषप्रद काम बताती थीं। दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने एक अस्पताल की फार्मेसी में नौकरी की। इस दौरान दवाओं एवं रसायनों के बारे में मिली जानकारी उनके लेखन कार्य में सहायक बनी। एक और उदाहरण चेशर काउंटी स्थित एबनी हॉल का है, जो उनके जीजा का घर था। वहां वे कई बार रहने जाती थीं। उनके दो कथानकों में सेटिंग्स उसी घर की हैं। अगाथा ने सिर्फ रहस्य रोमांच का लेखन किया हो, ऐसा नहीं है। उन्होंने छह रोमांटिक उपन्यास भी लिखे, लेकिन मैरी वेस्टमाकॉट के छद्म नाम से। अपना असली नाम उन्होंने सिर्फ मर्डर मिस्ट्रीज में ही इस्तेमाल किया। और यही वो नाम था जो दुनियाभर में चमका। वो नाम, जो अमेरिका के रहस्य लेखकों के सबसे बड़े सम्मान ‘ग्रैंड मास्टर अवॉर्ड’ का सबसे पहला हकदार बना। वो नाम, जिसकी लिखी अधिकतर रचनाओं पर फिल्में बन चुकी हैं और उनमें से कुछ पर तो एक बार नहीं, बल्कि कई कई बार फिल्में बनी हैं। वो नाम, जिसे उसकी साहित्यिक उपलिधयों के लिए कमांडर ऑफ द ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर जैसे सम्मान से नवाजा गया.. बतौर लेखिका एक शानदार ज़िन्दगी जीने और लोकप्रियता के चरम पर पहुंचने के बाद 12 जनवरी, 1976 को अगाथा ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

अहा! ज़िंदगी के जनवरी अंक से साभार

Wednesday, February 1, 2012

41 वर्षो से डोगरी की सेवा में समर्पित शिव


वर्ष 1946 में गांव हंट्ट के एक साधारण परिवार में जन्मे शिव दोबलिया पिछले 41 वर्षो से डोगरी भाषा के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं। एक वर्ष की आयु में ही पिता का देहांत हो गया। घर के हालात अच्छे न होने होने के कारण बसोहली में अपने नानी के घर आ गए। वर्ष 1969 में जेई की ट्रेनिंग के लिए जम्मू गए। वहां उनकी भेंट प्रोफेसर रामनाथ शास्त्री से हुई। उनकी प्रेरणा से दोबलिया पक्का डंगा में डोगरी संस्था की गोष्ठियों में भाग लेना शुरू किया और डोगरी साहित्य के सृजन में जुट गए। वर्ष 1971 में पहली कहानी ' लाल साड़ी' कल्चरल अकादमी की पत्रिका 'शिराजा' में प्रकाशित हुई। इसी वर्ष रेडियो कश्मीर जम्मू से इनकी पहली वार्ता 'कवि दत्त' प्रसारित हुई। फील्ड सर्वे आर्गेनाइजेशन की पत्रिका 'फुलवाड़ी' के संपादक मनसा राम चंचल उन्हें विषय देते थे, जिस पर वह लिखते। कृष्ण स्मैलपुरी उनकी रचनाओं से इतने प्रभावित हुए कि एक गीत दोबलिया को भेंट किया, जिसके बोल 'आउं चन्ना नौकरी तेरी मित्रा बसोहली देया' थे।

वर्ष 1972 में डोगरी शिरोमणि परीक्षा पास की और 1973-74 में रेडियो कश्मीर में कंपेयरर के पद पर रहे। वर्ष 1974 में सलाल विद्युत जल परियोजना में नौकरी लगने के बावजूद वह डोगरी के प्रति समर्पित रहे। 'लाटरी दा टिकट' उनका पहला रेडियो नाटक प्रसारित हुआ। रेडियो कश्मीर के संपादक एवं अधिकारियों के अनुरोध पर उन्होंने 'बदलता रूप' 'मेरा गांव' शीर्षक से बसोहली, बनी, रियासी, उधमपुर व कठुआ के बहुत से गांवों पर रूपक लिखे जो लोकप्रिय हुए। एक के बाद एक नाटक लिखते गए जिनका मंचन पाडर, शिमला, चंडीगढ़, जम्मू, ऊधमपुर, बिलावर, राजौरी व ज्योतिपुरम में हुई। वर्ष 1980 में ज्ञाणेश्वर शर्मा से मिलकर ज्योतिपुरम में डुग्गर साहित्य ज्योति संस्था का गठन किया।

उनका पहला हास्य-व्यंग्य संग्रह ज्योत था। बच्चों में डोगरी के प्रति नया जोश पैदा करने के उद्देश्य से त्रैमासिक जोत बाल पत्रिका शुरू की। वर्ष 1995 में बसोहली में दो दिवसीय डोगरी सेमीनार करवाया। इसमें डोगरी संस्था जम्मू की ओर से उन्हें वाइस चांसलर मल्होत्रा ने शाल एवं जम्मू विश्वविद्यालय ने स्मृति चिह्न भेंट किया। वर्ष 1993 में पटियाला की सांस्कृतिक सेंटर की ओर से कुल्लू दशहरा में डोगरी नृत्य कुड पेश किया। वर्ष 1994 में गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में कुड नृत्य किया, जिसे प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति ने सराहा। इनकी लिखी पुस्तकों में माता जोडेयां, श्रीस्थल किश्तवाड़, 'सुनो कहानी' व 'जंगल टापू' प्रमुख हैं। इन्हें डिग्री कॉलेज कठुआ, एनएसएस इंटरनेशनल, नवोदय विद्यालय समिति, गणतंत्र दिवस लोक नृत्य समारोह, झंकार क्लब ज्योतिपुरम, खालसा कॉलेज अमृतसर, एनएचपीसी ज्योतिपुरम, डोगरी संस्था जम्मू, कुल्लू दशहरा क्लब, नेताजी मेमोरियल स्कूल सम्मानित कर चुकी है। खेल मंत्री आरएस चिब ने भी उन्हें सम्मानित किया है। वह अपनी प्रेरणा का स्रोत पत्नी स्नेह लता को मानते हैं। उनके परिवार में दो बेटियां अनुराधा व नीतू एवं पुत्र अनिल दोबलिया हैं।

- रीतु शर्मा, बसोहली

(दैनिक जागरण से साभार)

खरी-खरी कहने वाला रंगमंच युवाओं की पसंद


ग्लैमर व कमर्शियल फिल्मों की लोकप्रियता के बीच दर्शकों का रंगमंच में बढ़ता रूझान इस बात का प्रमाण है कि आधुनिक परिवेश में भी युवाओं में सामाजिक सरोकार से जुड़े पहलू व गंभीर विषयों को समझने की ललक में किसी भी तरह से कमी नहीं आई है। आज के युवाओं को सिर्फ मार-धाड़ व भड़कीले आइटम सांग वाली फिल्में नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों से रू-ब-रू कराता रंगमंच भी बेहद आकर्षित करता है। दर्शकों के बदलते मिजाज व हर नाट्य उत्सव के दौरान टिकटों के लिए उमड़ती भीड़ को देखते हुए विभिन्न नाटक अकादमी के आयोजकों ने अपने विचारों से दैनिक जागरण संवाददाता को अवगत कराया।

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की आयोजन समिति के सदस्य एके बरुआ ने बताया कि दिल्ली में रंगमंच का व्यवसायीकरण नहीं हुआ है, लेकिन पिछले कुछ सालों में तकनीकी तौर पर रंगमंच में बदलाव के कारण दर्शकों की रुचि में इजाफा हुआ है। परंपरागत दर्शक आज भी कायम हैं, जिनमें थिएटर को देखने की चाह और दीवानगी है। आधुनिक युवा भी इस ओर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में सफल हो रहे हैं।

वहीं उर्दू अकादमी के सचिव अनीश आजमी का कहना है कि रंगमंच के दर्शक अपने आप में अलग हैं। साहित्य की समझ व अच्छी सूझबूझ वाले दर्शक ही थिएटर के नाटकों का आनंद ले पाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के फैशनपरस्त युवाओं में भी इसकी समझ पैदा हो गई है। यही वजह है कि लगातार रंगमंच के दर्शकों में इजाफा हो रहा है। उन्होंने बताया कि कुछ साल पहले जहां नाटकों को देखने के लिए दोस्तों व अतिथियों को बार-बार निवेदन पत्र भेजना होता था, उसके बाद भी थिएटर के बीस फीसदी सीट खाली होते थे। आज एक नाटक के कई आयोजन होते हैं और उसके बाद भी दर्शकों द्वारा इसे फिर आयोजित करने के निवेदन आ जाते हैं। यह रंगमंच की बढ़ती लोकप्रियता का ही प्रमाण है।

साहित्यकार एवं हिंदी, मैथली-भोजपुरी अकादमी के सचिव रविन्द्र श्रीवास्तव (परिचय दास) ने बताया कि रंगमंच के नाटकों की प्रस्तुति के बाद दर्शक अपने आप से सवाल करते हुए नजर आते हैं, क्योंकि उनमें वही चीजें दिखाई जाती हैं जो यथार्थ से जुड़ी होती हैं। फिल्मों को देखकर खुद को आधुनिक महसूस करने वाले दर्शक आज थिएटर को देखकर भी उतने ही उत्साहित नजर आते हैं। यह फर्क वाकई में रंगमंच की सफलता को दर्शाता है। लेकिन उन्होंने इस बात का अफसोस भी जताया कि बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक के रंगमंच की तुलना में अभी भी हिंदी रंगमंच काफी पिछड़ा हुआ है, जिसे और बेहतर बनाने की जरूरत है।

वहीं पंजाबी अकादमी के सचिव रावेल सिंह ने बताया कि फिल्मों में गंभीरता की कमी है। संगीत की भरमार के साथ दर्शक सिर्फ कल्पना की दुनिया में विचरण करते हैं, जिसका यथार्थ से दूर तक सरोकार नहीं होता। आज दर्शक यथार्थवादी आयोजनों को तवज्जो दे रहे हैं, जिससे उनका रंगमंच की तरफ रूझान तेज हो गया है।

- शिप्रा सुमन, नई दिल्ली

(दैनिक जागरण से साभार)

Twitter Delicious Facebook Digg Stumbleupon Favorites More

 
Design by AAM Aadhar Alternative Media