RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Saturday, June 30, 2012

पेइचिंग ओपेरा के विकास की विरासत व सृजन


पेइचिंग ओपेरा का 200 साल पुराना इतिहास है। उसे पूर्व का ओपेरा नाम से भी जाना जाता है। उसका उद्गम शायद कुछ प्राचीन स्थानीय ओपेरा से हुआ है। वर्ष 1790 में हुए पान नाम का एक स्थानीय ओपेरा पेइचिंग में प्रचलित होने लगा, क्योंकि पेइचिंग में विभिन्न प्रकार के स्थानीय ओपेरा काफी लोकप्रिय थे, जिस से इसे तीव्र प्रगति करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। 2 सौ साल से पेइचिंग ओपेरा का तेज विकास हो रहा है। पिछली शताब्दी इस के विकास का सबसे अच्छा दौर रहा है, और यह चीन की सार कला बन गया है। आजकल तेज विकास के दौर में अन्य परंपरागत कलाओं की तरह पेइचिंग ओपेरा के विकास के सामने चुनौतियां मौजूद हैं। इसलिए इस कला के विकास में और ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हाल ही में आयोजित हुए वर्ष 2011 चीनी नाटक कला की विरासत व विकास के मंच पर चीनी जन राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन के उपाध्यक्ष, चीनी साहित्यिक और कलात्मक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुन च्या चेंग ने चीन के परंपरागत ओपेरा के विकास के सामने मौजूद कठिनाइयों की चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान में चीन के नाटक के विकास के सामने एक बड़ी चुनाती मौजूद है। सुधार व खुलेपन की नीति लागू होने के बाद आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण, अधिक सूचना समेत रंगबिरंगी बाहरी संस्कृति के चीन में प्रवेश होने की वजह से परंपरागत संस्कृति की बड़ा धक्का पहुंचा है। हमें परंपरागत नाटक कला की विरासत व विकास को आगे बढाने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, जिससे चीन की राष्ट्रीय संस्कृति व जातीय भावना का प्रचार-प्रसार किया जा सके।
पेइचिंग ओपेरा चीनी राष्ट्र का सांस्कृतिक खजाना है। चीन के गीत-संगीत, साहित्य, इतिहास व परंपरागत सौंदर्यशास्त्र का पेइचिंग ओपेरा पर प्रभाव पड़ास है। वर्तमान में लोकप्रिय संस्कृति की व्यापकता की स्थिति में हम कैसे पेइचिंग ओपेरा का विरासत व विकास करेंगे और इस परंपरागत कला का शानदार पुन: उत्पन्न करेंगे?यह सवाल मुख्य है। चीन के मशहूर ओपेरा कलाकार व पेइचिंग ओपेरा कलाकार मेई लान फांग ने पहले यह कहा था कि सुधार महत्वपूर्ण है, क्योंकि सुधार से प्रगति होगी। अन्य कलाओं के मुकाबले 2 सौ साल पुराना पेइचिंग ओपेरा का इतिहास इतना लम्बा नहीं है, लेकिन पेइचिंग ओपेरा सांस्कृतिक अवशेष नहीं है और इसे संग्रहालय में रखने की ज़रूरत नहीं है। कलाकारों द्वारा कार्यक्रम पेश करवा करके इस का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। अगर पेइचिंग ओपेरा के विकास में युवा शक्ति शामिल नहीं हुई, तो यह प्राचीन कला आज के लिए सार्थक नहीं हो सकती है। चीन के नाटक कॉलेज के पेइचिंग ओपेरा विभाग के अध्यक्ष च्यांग याओ ने कहा कि कुछ युवा लोगों को परंपरागत ओपेरा की जानकारी देने के लिए कुछ माध्यम उपलब्ध हैं। देश की सरकार व कुछ विभागों को युवा लोगों व छात्रों को इस जानकारी देने के लिए मंच प्रदान करने की जरूरत है। इस के लिए विभिन्न जगतों के कर्मचारी व कुछ कारगर माध्यम चाहिए। पेइचिंग ओपेरा की कक्षा का लक्ष्य प्रशंसकों की संख्या बढाने की बजाए उन्हें पेइचिंग ओपेरा व अन्य स्थानीय ओपेरा की ज्यादा जानकारी देना है। हमारे चीनी नाटक कॉलेज ने कई बार दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारियों व विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ संपर्क किया। हमने पेइचिंग ओपेरा विश्वविद्यालय में प्रवेश नामक सिलसिलेवार कार्यवाहियां की थीं। हमने पेइचिंग ओपेरा की जानकारी दी, कलाकारों का कार्यक्रम दिखाने की स्थिति का परिचय दिया। छात्रों को यह कार्यवाही बहुत पसंद आई । उन्होंने कहा कि अगर इस प्रकार की कार्यवाही नहीं हुई, तो वे थिएटर में प्रस्तुति नहीं देखेंगे। लेकिन पेइचिंग ओपेरा की जानकारी पाने के बाद उन्होंने कहा कि अगर मौका मिला, तो जरूर कम से कम एक बार वे थिएटर में इस की प्रस्तुति देखेंगे। च्यांग याओ ने कहा कि युवा लोगों को परंपरागत संस्कृति पसन्द है, लेकिन हमें उचित तरीके से और ज्यादा जानकारी देने की जरूरत है, ताकि और ज्यादा युवा लोग चीन के परंपरागत ओपेरा पर ध्यान दे सकें। आजकल पेइचिंग ओपेरा व अन्य स्थानीय ओपेरा की प्रस्तुतियों में फैशनेबल तत्व शामिल किए जा रहे हैं। पटकथा, संगीत, गायन, कपड़े, मंच डिजाइन आदि पहलुओं में भी कुछ सुधार किया गया है। कुछ प्रस्तुतियों में पश्चिमी ओपेरा की रचनात्मक तकनीक शामिल की गई है और कुछ अन्य में गायन व संगीत में बड़ा बदलाव देखने में आया है। कुछ चीनी परंपरागत ओपेरा की प्रस्तुतियां विश्व के विभिन्न देशों में दिखाई गई हैं, विदेशी दर्शकों को यह बहुत पसंद आई हैं। फैशनेबल तत्व परंपरागत ओपेरा में शामिल किए जाने के बाद युवा दर्शकों की संख्या बढ रही है। ज्यादा युवा लोग सिनेमा में फिल्म देखने की तरह थिएटर में ओपेरा देखने आना पसंद करने लगे हैं। लेकिन परंपरागत ओपेरा में सुधार करने के दौरान परंपरागत तत्वों को बनाए रखने की आवश्यकता है। अनेक मशहूर कलाकार व विशेषज्ञ इस पर सहमत हैं। पेइचिंग ओपेरा में आधुनिक तत्व शामिल किए जाने के सवाल पर चीन के मशहूर पेइचिंग ओपेरा कलाकार ये शाओ लान ने कहा कि पेइचिंग ओपेरा में अन्य कुछ कला तत्व शामिल हो सकते हैं, लेकिन ये तत्व पेइचिंग ओपेरा के बारे में होने चाहिए और पेइचिंग ओपेरा को तरीके से पेश किया जाना चाहिए। क्योंकि पेइचिंग ओपेरा रचने के कुछ विशेष नियम हैं, अगर इन नियमों को बदला जाता है, तो यह पेइचिंग ओपेरा नहीं रहेगा। इसलिए अन्य कलाओं की विशेषताओं को शामिल करने के दौरान पेइचिंग ओपेरा के नियमों का पालन किया जाना चाहिए । अगर पेइचिंग ओपेरा में आधुनिक तत्व नहीं होंगे, तो युवा लोग इस पर ध्यान नहीं देंगे। अगर परंपरा की रक्षा नहीं की जाएगी, तो विकास के दौरान पेइचिंग ओपेरा की विशेषता व मनमोहक शक्ति दिन प्रति दिन कम होगी। इसलिए पेइचिंग ओपेरा की विरासत व विकास के दौरान कठिनाईयां मौजूद हैं। लेकिन केवल निरंतर सुधार करने के बाद ही इस प्राचीन ओपेरा का सृजन व विकास हो संभव है। पेइचिंग ओपेरा के विकास के सामने मौजूद सवाल अधिकांश परंपरागत कला के विकास के सामने भी हैं। इसलिए परंपरा को आगे बढ़ाने के साथ-साथ समय के विकास की जरूरतों का पूरा होना भी महत्वपूर्ण है, इस तरह पेइचिंग ओपेरा की जीवन शक्ति व मनमोहक शक्ति बनी रह सकेगी। (http://hindi.cri.cn/681/2012/06/28/1s126824.htm से साभार)

Tuesday, June 12, 2012

हर शनिवार, 19 साल से चल रहा है नाटक


शहर गोरखपुर के रेलवे स्टेशन से बमुश्किल डेढ़ किमी दूर, गर्मियों की सुबह में किशोरवय के कुछ शौकिया रंगकर्मी बरगद के दो विशाल वृक्षों को जोड़कर बनाए गए मिट्टी के अस्थायी मंच पर झाड़ू लगा रहे हैं. पेड़ों के तनों से बांधकर परदा लगाया जा रहा है और मंच से नीचे खिचड़ी दाढ़ी और बालों वाला एक शख्स छोटी-सी मेज पर एक महिला की तस्वीर सजाते हुए अचानक अपनी नम आंखें साफ करने लगता है. पीछे से कोई लड़का पूछता है, ''दादा! ये तो रिकॉर्ड होगा. इतना लंबा टाइम तक कोई और नाटक थोड़े किया होगा?'' दादा घूमकर उसे देखते हैं, ''डायलॉग याद करो. ऐ चक्कर में मत पड़ो कि रिकॉर्ड बना है.'' दादा यानी 55 बरस के के.सी. सेन के लिए यह रिकॉर्ड भले ही रोमांच भर देने वाली बात न हो, लेकिन जरा सोचिए कि अगर कुछ रंगकर्मी पिछले 19 सालों से हर शनिवार सुबह बिना क्रमभंग के नाटक कर रहे हों तो क्या यह बड़ी बात नहीं है? कड़ाके की धूप, ठंड या बारिश कुछ भी हो, ये सिलसिला पिछले 1,000 हफ्तों से अनवरत जारी हो और वह भी इसलिए कि इस शहर को एक ऑडिटोरियम मिल जाए, जहां नाटक करने वाले अपनी प्रस्तुतियां कर सकें. क्या यह सचमुच 'कुछ खास' नहीं है? हालांकि सेन से पूछिए तो वे अनसुना कर देंगे. उनके लिए ये सिलसिला अब एक लड़ाई में बदल चुका है. इसे जारी रखने के लिए रेलकर्मी सेन ने प्रमोशन से इनकार कर दिया क्योंकि तब उन्हें शहर से बाहर जाना पड़ता. 19 साल पहले जब विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर उन्होंने इस आंदोलन का संकल्प लिया, तब उनकी पत्नी माला अपने दो नन्हे बच्चों के साथ हौसला अफजाई के लिए हर शनिवार यहां आती थीं. अब बड़ा बेटा कल्याण सेन नाटकों में अभिनय और निर्देशन कर देशभर के नाट्य महोत्सवों में पुरस्कार जीत रहा है मगर कैंसर से लड़ते हुए माला गत वर्ष चल बसीं. 1986 में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब दिवंगत) वीरबहादुर सिंह ने गोरखपुर में 5.4 करोड़ रु. की लागत से एक अत्याधुनिक प्रेक्षागृह व आर्ट गैलरी के निर्माण की घोषणा की थी. काम शुरू भी हुआ, लेकिन उनकी अचानक मृत्यु के बाद वह ठप हो गया. अधूरे प्रेक्षागृह में जंगल उगने लगा. सेन और उनके साथियों ने 1993 में विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर रंगाश्रम के जरिए प्रेक्षागृह के निर्माण होने तक हर शनिवार एक नाट्य प्रस्तुति करने का अनोखा संकल्प लिया था और शनिवार 19 मई को मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'सवा सेर गेहूं' की प्रस्तुति इस रंगयात्रा की 1,000वीं कड़ी थी. इसमें बतौर मुख्य अतिथि मौजूद सांसद योगी आदित्यनाथ कहते हैं, ''मैंने ऐसे आंदोलन बहुत कम देखे हैं, जिसमें कुछ लोग शहर की जरूरतों के लिए खुद तपस्या कर रहे हों.'' योगी अब जमीन के स्वामियों और शासन से संवाद की नई कोशिश कर रहे हैं ताकि कानूनी गतिरोध दूर हो सके. मगर गोरखपुर विवि के ललित कला विभाग के एसोसिएट प्रो. डॉ. भारत भूषण सवाल करते हैं, ''क्या सारी जिम्मेदारी रंगाश्रम की ही है? उस शहर की जिम्मेदारी कुछ नहीं, जिसके लिए वे यह तपस्या कर रहे हैं?'' सेन और उनके सहयोगी विजय सिंह, पानमती शर्मा और सतीश वर्मा अगली प्रस्तुति की पटकथा पर बहस कर रहे हैं. कल्याण को पीलिया है, मगर 1,000वीं प्रस्तुति के लिए वह भी आया. विजय कहते हैं, ''दादा तो कबीर की तरह घर फूंककर अलख जगा रहे हैं.'' पर सवाल फिर भी वही है कि जिन लोगों के लिए अलख जगाई जा रही है, वे कहां हैं? (आज तक डॉट कॉम से साभार)

Sunday, June 3, 2012

नन्हें हाथों में दुनिया थमाने से पहले


अशोकनगर में इप्टा का आठवां बाल एवं किशोर रंग शिविर अशोकनगर: पिछले कुछ दिनों में देश भर में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की विभिन्न इकाइयों ने 25 से अधिक बाल रंग शिविर का आयोजन किया। 20 दिन से लेकर एक महीने तक के इन शिविरों में ऐसा बहुत कुछ है कि इन्हें अपने आप में अनूठा, प्रयोगधर्मी, जरूरी और कला भविष्य के प्रति आश्वस्ति के रूप में देखा जा सकता है। कला और खासकर बच्चों के कलाकर्म को देखने का इधर जो नजरिया विकसित हुआ है, उसमें कुछ रियायतें और भावुकता भी शामिल होती है। इसलिए वे सच्चाइयां सामने नहीं आ पातीं, जो रंगशिविरों की अच्छाइयों और बुराइयों को नुमायां कर सकें। ज्यादातर मौकों पर बच्चों के थियेटर को आलोचना के बजाय आशीर्वाद की दृष्टि से देखा जा सकता है, क्या यह आने वाले दिनों के लिए खतरनाक हो सकता है? बहरहाल, अशोकनगर (मध्यप्रदेश) के आठवें बाल एवं रंग शिविर में 12 दिन गुजारने के साथ वे कारण साफ होते हैं, जो आने वाले दिनों के कस्बाई कला कर्म की रूपरेखा तय करने वाले हैं। कस्बों से कलाकारों का पलायन, संसाधनों की कमी, प्रतिबद्धता की छीजन और सार्वजनिक कला के द्वंद्व से जूझते हुए इप्टा की अशोकनगर ईकाई ने पहला रंग शिविर 1998 में लगाया था। बीच में कुछ व्यवधान के बाद बीते तीन साल से यह फिर लगातार जारी है। एक मई 2012 को महानतम अभिनेता बलराज साहनी का शताब्दी वर्ष शुरू हुआ यह रंग शिविर उन्हीं के कला कर्म को समर्पित था। 25 दिनों के इस शिविर के उद्घाटन और समापन समारोह में बाल कलाकारों ने कुल तीन नाटकों, 2 नृत्य और पांच जनगीतों की प्रस्तुति दी। साथ ही अपने 25 दिन के रचनात्मक कार्यों, डायरी और शहर की समस्याओं पर रिपोर्टिंग पर आधारित 24 प्रष्ठीय अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ प्रकाशित किया। इससे पहले उद्घाटन अवसर पर भी बच्चों ने नाटक ‘‘आदमखोर’’ का मंचन किया। कार्यशाला में व्यायाम, संगीत, क्राफ्ट, पत्रकारिता, नृत्य, रंगमंच, चित्रकला की सैद्धांतिक और प्रायोगिक जानकारी विषय विशेषज्ञों ने दी। यह जानकारियां उन बच्चों को दी गई हैं, जो आने वाले समय के कला जगत को अपने अपने ढंग से आलोकित करेंगे। बीज रूप में दिए गए कला-विचारों के वृक्ष कैसे होंगे, इसका अनुमान प्रस्तुतियों से लगाया जा सकता है।
उद्घाटन के अवसर पर श्री विजयदान देथा की कहानी ‘‘आदमखोर’’ के श्री रोहित झा द्वारा किए गए नाट्य रूपांतरण को युवा रंगकर्मी सत्यभामा ने मंच पर उतारा। खुद सत्यभामा के अलावा अविनाश तिवारी, विनय खान, ऋषभ श्रीवास्तव, सारांश पुरी और कबीर राजोरिया ने मंच पर अभिनय किया। इस पहली प्रस्तुति के साथ ही यह तय हो गया था कि नाट्य शिविर अपनी पिछली परंपराओं से अलग साबित होगा। यह पहली बार था जब अशोकनगर इप्टा की ईकाई ने शिविर के उद्घाटन पर नाटक की प्रस्तुति की। खासबात यह रही कि मंचन की पूरी जिम्मेदारी पिछले शिविर में शरीक रहे बच्चों ने ही निभाई। संगीत की जिम्मेदारी सिद्धार्थ शर्मा ने निभाई और नेपथ्य के अन्य कार्य शिविरार्थी निवेदिता और संघमित्रा ने किए। प्रकाश संयोजन का कार्य इप्टा के वरिष्ठ सदस्य रतनलाल पटेल और श्याम वशिष्ठ ने किया। दूसरे दिन बच्चों को व्यायाम, संगीत और नाटक के बारे में शुरुआती जानकारी दी गई। तीसरे दिन बच्चों ने पार्टीशन कहानी का पाठ किया, जिसके बारे में तय किया गया कि इसका मंचन किया जाएगा। नाट्य रूपांतरण की जिम्मेदारी प्रगतिशील लेखक संघ की गुना ईकाई के वरिष्ठ साथी सत्येंद्र रघुवंशी को दी गई। सात मई को महाकवि रबीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मदिवस पर शिविर संयोजक रतनलाल पटेल ने उनकी रचनाओं का पाठ किया और बच्चों से श्री टैगोर के साहित्यिक योगदान की चर्चा की। दस मई को जबलपुर से लोकनृत्य विशेषज्ञ इंद्र पांडे का शिविर में आगमन हुआ। उन्होंने बच्चों को लोकनृत्य राई, दादारिया, पंथी और कालबेलिया के बारे में जानकारी थी। आगामी दिनों में बच्चों को उन्होंने इन चार नृत्यों का प्रशिक्षण दिया और समापन के अवसर पर दादरिया और राई का प्रदर्शन किया गया। 16 मई को उज्जैन से आए ख्यातिलब्ध चित्रकार मुकेश बिजौले ने बच्चों को चित्रकला की जानकारी दी। उन्होंने बच्चों को आधुनिक चित्रकला की सैद्धांतिक और प्रायोगिक जानकारी दी। बाद के दिनों में बच्चों ने खुद चित्र बनाए, जिनमें से चुनिंदा चित्रों को बाल रंग संवाद के अंक में प्रकाशित किया गया। 17 मई को मेरठ से आए युवा पत्रकार सचिन श्रीवास्तव ने बच्चों को पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अशोकनगर ईकाई ने 2010 के शिविर में पहली बार 8 पन्ने का अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ प्रकाशित किया था। 2011 में यह 20 पन्ने में प्रकाशित हुआ और इस बार 24 पन्ने का अखबार प्रकाशित किया गया। बीते दो अंकों के बजाय इस बार बच्चों ने शहर की समस्याओं पर रिपोर्टिंग की। इस बीच बच्चें प्रतिदिन डायरी भी लिख रहे थे, जिसे ‘‘बाल रंग संवाद’’ में शामिल किया गया। 20 मई को बीना से आए गजलकार श्री महेश कटारे ने बच्चों के बीच अपनी बुंदेली गजलों का पाठ किया। जिसके बारे में बच्चों ने अपनी डायरी में प्रतिक्रिया दी। 25 मई को हुए समापन समारोह की शुरुआत गजलकार श्री महेश कटारे, प्रलेस गुना के वरिष्ठ साथी श्री रामलखन भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार श्री मनोज जैन और इप्टा के प्रदेश महासचिव श्री हरिओम राजोरिया के सानिध्य में ‘‘बाल रंग संवाद’’ के लोकार्पण से हुई। इसके बाद शिविर संयोजक रतनलाल पटेल और रामदुलारी शर्मा के मार्गदर्शन में तैयार जनगीतों की प्रस्तुति हुई। इसके बाद ईवा भार्गव, अणिमा जैन, रक्षिता जैन, मानसी जैन, सुरभि जैन, चारू जैन, स्नेहा गुप्ता और साक्षी पांडे ने ‘‘दादरिया’’ लोकनृत्य की प्रस्तुति दी। इंद्र पांडे, रतन लाल पटेल और सिद्धार्थ शर्मा ने थाप दी। इसके बाद अशोकनगर इप्टा की वरिष्ठ साथी और वर्तमान शिविर की संयोजक सीमा राजोरिया के निर्देशन में स्वयं प्रकाश की कहानी ‘‘पार्टीशन’’ के सत्येंद्र रघुवंशी द्वारा तैयार नाट्य आलेख का मंचन किया गया। नाटक की कहानी एक प्रगतिशील मुसलिम व्यापारी कुरबान अली के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक झगड़े में जलील होने के बाद इंसान से मुसलमान ठहरा दिया जाता है। कुरबाल अली के रूप में सत्यभामा ने अपने भावुक अभिनय से दर्शकों को बांधे रखा, तो लतीफ मियां के किरदार में कबीर राजोरिया ने अपनी संवाद अदायगी के बूते अलग छाप छोड़ी। ईमान अली के किरदार को बाल कलाकार अमित गुप्ता ने बिल्कुल पड़ोस का बना दिया और अमन खान ने प्रोफेसर के पात्र को जीवंत बनाया। रऊफ के रूप में ऋषभ श्रीवास्तव, शायर-कवि शिवानी शर्मा, भाई जी और दरोगा अनुपम तिवारी, गोटू का पात्र अखिल जैन ने बेहतरीन ढंग से निभाया। अन्य कलाकारों ने भी अपने छोटे-छोटे किरदार को खूबसूरती से अदा किया। खासबात यह रही कि नाटक में कोई भी पात्र हावी नहीं रहा। नाटक अपनी पूरी जटिलताओं के साथ जरूरी संदेश देने में कामयाब रहा। तालियां कम बजीं, लेकिन जहां बजनी चाहिए थीं, वहीं बजीं। यह निर्देशक की भी कामयाबी थी, और कलाकारों की भी। खासकर कुरबान अली के एक लंबे डाॅयलाॅग में, जब वह अपने इंसान होने और मुसलमान होने के बीच की टकराहट को सामने रखता है, दर्शकों में लंबा सन्नाटा था। नाटक में हास्य का पुट नहीं था, और बच्चों के साथ पूरी गंभीरता दिखाते हुए दर्शकों ने कहानी को आत्मसात किया। करीब सवा घंटे के इस नाटक में 12 दृश्य थे, और हरएक में प्रापर्टी को बदलना था, जिसे बच्चों ने खूबसूरती से अंजाम दिया। मुकेश बिजौले, आकांक्षा, अर्चना प्रसाद और संजय माथुर के मेकअप ने नाटक की खूबसूरती को तो बढ़ाया ही, भाव और किरदार दर्शाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रकाश संयोजन रतनलाल और श्याम वशिष्ठ का था।
दूसरा नाटक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कहानी ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ के तपन बनर्जी द्वारा किए गए नाट्य रूपांतरण पर आधारित था। इसका निर्देशन विनोद शर्मा ने किया, निर्देशन में सहयोग किया रामबाबू कुशवाह ने। नुक्कड़ शैली के इस नाटक में मातादीन की प्रमुख भूमिका के साथ आर्यन अरोरा ने ईमानदार व्यवहार किया और उनका साथ दिया, विनय खान, प्रियांशु शेखर, दर्श दुबे, अनिकेत, आशीष, सौरभ और कबीर खान ने। अभिनय के लिहाज से आर्यन और प्रियांशु ने दर्शकों की वाहवाही बटोरी। प्रापर्टी की कमी के बावजूद कलाकारों ने चांद के दृश्य और पुलिस की कार्यप्रणाली को खूबसूरती से बेपर्दा किया। संवादों में तीक्ष्णता अपने पूरे वेग से हाॅल में पहुंच रही थी, जिसका सबूत बीच-बीच में उठा रहे ठहाके थे। दोनों नाटकों के बीच के अंतराल में दीक्षा जैन, श्वास्ती, संघमित्रा, प्रज्ञा, पारूल, कविता, प्रियंका, सौम्या, आशी और आस्था ने बुंदेलखंड के लोकनृत्य ‘‘राई’’ की प्रस्तुति दी। ‘‘राई’’ के गंभीर दर्शकों ने भी इसकी सराहना की और एक दर्शक की यह टिप्पणी नृत्य की तारीफ के लिए काफी है कि, ‘‘हम चाहते थे कि यह नृत्य पूरी रात चलता रहे।’’ वैसे भी ‘‘राई’’ नृत्य अपने पारंपरिक रूप में पूरी रात चलता है, यह बच्चे की पैदाइश और विवाह के अवसर पर होता है, जिसे मिथक में लव-कुश की पैदाइश से जोड़कर देखा जाता है। समापन समारोह के अंत में पीडब्ल्यूडी के एसडीओ श्री ज्ञानवर्धन मिश्रा, वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय, वरिष्ठ पत्रकार अतुल लुंबा और गजलकार महेश कटारे ने बच्चों को सुनहरे भविष्य की उम्मीदों के साथ प्रमाण-पत्र वितरित किए गए। इस लंबे किंतु बेहद सधे हुए कार्यक्रम का संचालन ख्यातिलब्ध चित्रकार और अशोकनगर इप्टा के वरिष्ठ साथी पंकज दीक्षित ने किया। शिविर के सफल संचालन में संयोजक और इप्टा अशोकनगर की अध्यक्ष सीमा राजोरिया, सचिव राकेश विश्वकर्मा के अलावा वरिष्ठ साथी विनोद शर्मा और रतनलाल पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस रंग शिविर से कला कर्म के भविष्य की जो तस्वीर सामने आती है, वह किसी नाट्य क्रांति को रेखांकित नहीं करती, लेकिन कला के सामाजिक दायरे को बढ़ाती है। अच्छे और बुरे के फर्क की तमीज पैदा करने वाले शिविरों में इप्टा के इस शिविर को अलग से रेखांकित भले न किया जाए, लेकिन इसे खारिज नहीं किया जा सकता। यह तब है जब अशोकनगर जैसे शहर बनते कस्बे में इसी दरम्यान क्रिकेट से लेकर आधुनिक नृत्य तक की कार्यशालाएं समानांतर रूप से चल रही थीं। ऐसे में 60 से अधिक बच्चे हर साल तपती धूप में नाट्य कर्म और कुछ अन्य जरूरी कलाओं का प्रशिक्षण ले रहे हैं, तो आश्वस्त हुआ जा सकता है कि कस्बों में थियेटर बचाने के लिए किसी सरकारी पहल की जरूरत नहीं है। इस कार्यशाला के उद्घाटन अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्री अतुल लुंबा ने कहा था कि ‘‘अशोकनगर में बच्चों के थियेटर पर जो काम हो रहा है, उसकी पहचान प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर हो रही है।’’ दिलचस्प है कि राष्ट्रीय सवाल भी कस्बों तक पहुंच रहे हैं, इसलिए यह जरूरी भी है कि कस्बे राष्ट्रीय फलक पर जवाबदेही निभाएं। इस लिहाज से अशोकनगर का कला जगत अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, ठीक वैसे ही जैसे भिलाई से लेकर डोंगरगढ़ तक के अन्य समूह अपने-अपने ढंग से हस्तक्षेप कर रहे हैं। - सचिन श्रीवास्तव

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