RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Saturday, January 28, 2012

जैकुब स्जेला की अमूर्त कहानी


भारत रंग महोत्सव में शनिवार को एक लाजवाब पोलिश प्रस्तुति ‘इन द नेम ऑफ स्जेला’ देखने को मिली। जैकुब स्जेला उन्नीसवीं शताब्दी का किसान विद्रोही था, जिसने पड़ोसी देश आस्ट्रिया की मदद से पोलैंड के ताल्लुकेदारों के खिला रक्तरंजित विद्रोह किया था।

प्रस्तुति की निर्देशिका मोनिका स्त्रजेप्का के मुताबिक आज का पोलिश मध्यवर्ग उसी जैकुब स्जेला का वंशज है। लेकिन जैसा कि शीर्षक से भी जाहिर है, प्रस्तुति का उसके किरदार से कोई लेना-देना नहीं हैं। यह उसके नाम के बहाने इंप्रेशनिज्म का एक प्रयोग है। प्रस्तुति में एक अमूर्त सिलसिले में बहुत-सी स्थितियां लगातार घट रही हैं। यह एक बर्फानी जगह का दृश्य है। पूरू गांव पर ‘बर्फ’ फैली हुई है। बिजली या टेलीफान के खंबे लगे हुए हैं। पीछे की ओर टूटे फर्नीचर वगैरह का कबाड़ पड़ा है। दाहिने सिरे पर एक कमरा है जो नीचे की ओर धंसा हुआ है। पात्रा उसमें जाते ही किसी गहरे की ओर फिसलने लगते हैं। मंच के दाहिने हिस्से के फैलाव में पड़ा गाढ़े लाल रंग का परदा है, जो बर्फ की सफेदी में और जयादा सुर्ख लगता है। यह घर से ज्यादा घर के पिछवाड़े जैसी जगह है। बर्फ पर एक सोफा रखा है, और एक मेज।

कोई कहानी नहीं है, लेकिन कहानी के सारे लक्षण हैः रोना-बिसुरना, प्यार-झगड़ा, गुस्सा, कलह, भावुकता, आवेग, वगैरह। प्रस्तुति बहुत सारी यथार्थ और एब्सर्ड स्थितियों को समेटे हुए हैं। इसमें आकस्मिकता भी है और ह्यूमर भी। शूरू के दृश्य में एक औरत आँधी बर्फ में नामालूम-सी पड़ी है। उसी पीठ में बर्फ हटाने वाला पाना धंसा हुआ है। फिर बाद में वह उसी घुंपे पाने के साथ सामान्य रूप से पात्रों में शामिल हो जाती है। इन पात्रों में कुछ घर के लोग हैं, कुछ बाहर के। एक पात्रा धंसे कमरे से निकलात है। किसी हाथापाई में मुंह से खून निकला हुआ है। एक दृश्य में जैकुब पाना लेकर दूसरे पात्रा के सीने में भोंक देता है। उसके सीने पर बेतरह ‘खून’ उभर आया है। वह निष्चेट गिर पड़ा है। लकिन कुछ कुछ दृश्यों के बाद वह कमीज उतार कर अपना खून पोंछ लेता है। और बच रहे निशान के बावजूद स्वस्थ रूप से मंच पर वक्रिय दिखने लगता है। पीछे की ओर स्थितियों के शीर्षक लिखे हुए दिख रहे हैं। मसलन- ‘क्रिसमस ईवनिंग’ या ‘आत्महत्या की रात या यह स्पष्टीकरण कि ‘यह दृश्य कुछ लंबा हो रहा है, लेकिन कुलीनों के पास कुछ ही तर्क है, इसलिए वे उन्हें ही दोहरा रहे हैं।’ जैकुब खुद एक चाकू बेचने वाला है। वह बाकायदे इसका प्रदर्शन करता है। मीट का एक विशाल टुकड़ा उसने मेज पर रख लिया है। और दो चाकुओं से वह इसे काट-काट कर बर्फ पर फेंक रहा है। एक मौके पर एक पात्रा बेहद तेजी से कुछ बोल रहा है। वहीं मौजूद लड़की गुस्से में दृश्य के पीछे की ओर जाकर एक मोटा डंडा उठा लाई है, और गुस्से में पूरे प्रेक्षागृह में घूम-घूमकर किसी को ढूंढ रही है। वह इतने गुस्से में है कि पास बैठे दर्शक थोड़ा सतर्क हो उठते हैं। लड़क के पीछे-पीछे पुरुष पात्रा भी चला आया है। वह दर्शकों से उनका पैसा मांग रहा है। कुछ दर्शक उसे कुछ नोट देते हैं। फिर वह वहां बैठे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छायाकर त्यागराजन से उनका कैमरा मांगता है।

वे कैमरा नहीं देते तो कैमरे का स्टैंड लेकर वह मंच पर चला जाता है। इसके थोड़ी देर बाद गुस्से वाली लड़की आंसुओं से लबालब भरी आंखों के साथ कोई कहानी बता रही है। प्रस्तुति में संवाद लगातार बोले जा रहे हैं, लेकिन अक्सर वे इतने अटपटे और सरपट है कि उनके अर्थ पकड़ पाना मुश्किल है, हालांकि उनमें साकेतिकता का एक ढांचा अवश्य है। मसलन ‘स्मार्ट किसान भी आखिरकार किसान ही होता है’, कि ‘वे मुझे जंगल में ले गए और मेरे शरीर को जला दिया, पर मुझसे पहले वे खिड़कियां और दरवाजे ले गए’।

पूरी प्रस्तुति किसी जटिल पेंटिंग की तरह है, जिसमें बहुत कुछ सर्रियल एक क्रम में घटित हो रहा है। थिएटर जैसी सामूहिक कला में यह ढांचा निश्चित ही एक दुष्कर चीज है। इस लिहाज से यह प्रस्तुति अपने प्रभावों में विलक्षण है। चरित्रांकन से लेकर अपने स्थापत्य तक में यह इतनी शिद्दत लिए है कि तमाम ऊबड़-खाबड़पन के बावजूद दर्शक बैठा रहता है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 25 जनवरी 2012

पूंजी और परंपरा की छवियाँ


एचएस शिप्रकाश का कन्नड़ नाटक ‘मस्तकाभिषेक रिहसर्लु’ परंपरा और पूंजी की दो स्थितियों को दिखाता है। एक नाट्य मंडली बाहुबली गोम्मटेश्वर के जीवन पर नाटक तैयार कर रही है, जिसपर एक उद्योगपति का पैसा लगा हुआ है। लेकिन उद्योगपति भाइयों की मुकदमेबाजी में एक हार जाता है और दूसरा नाटक के प्रसारण अधिकार एक अमेरिकी टीवी चैनल को बेच देता है। जिस बीच नाटक का रिहर्सल चल रहा है, उसी दौरान गोम्मटेश्वर की मूर्ति का महामस्तकाभिषेक भी हो रहा है। निर्देशक सुरेश अनगल्ली की इस प्रस्तुति में हर बारह साल में आयोजित होने वाले जैन धर्म के इस उत्सव के वास्तविक वीडियो फुटेज भरपूर मात्रा में इस्तेमाल किए गए हैं। इनमें परंपरा में शामिल बीहड़पन के दृश्य अपने में ही एक कथानक है। पूर्णतः नग्न साधु.. उनक चक्कर लगाती स्त्रिायां। टीवी चैनल के पत्राकार पूरे जोशखरोश से आयोजन को कवर कर रहे हैं। मंच के बैंकड्रॉप में लगे परदे पर खुद ही अपना केश लुंचन करते साधु दिखाई देते हैं। सिर और दाढ़ी-मूंछो का एक-एक केश खींच-खींचकर उखाड़ने की दर्दनाक प्रक्रिया को अपनी आस्था से फतह करते हुए। लेकिन साधु के लिए जो आस्था है, टीवी की दर्शकीयता के लिए वह एक उत्तेजक ‘विजुअल’ है। टीवी कैमरे अपने तरीके से इनका दोहन कर लेने पर आमादा है। एक कैमरेवाला आयोजन में आए नवविवाहित दंपती से पूछता है कि वे हनीमून पर जाने के बजाय यहां क्यों आए हैं। पर नवविवाहिता को तो हनीमून का अर्थ ही नहीं पता। वह तो अपने बड़ों के कहने पर बाहुबली का आशीवार्द लेने आई हैं।

उधर रिहर्सल में बाहुबली की कहानी चल रही है। बाहुबली तीन लोक विजित कर चुके बड़े भाई भरत के आगे झुकने को तैयार नही है। ऐसे में युद्ध होता है, दृष्टि युद्ध, जल युद्ध। हर बार बाहुबली की जीत हो रही है। अंतिम मल्ल युद्ध में उसके नामानुरूप बाहुबल के आगे भरत की मृत्यु संभावित है। पर ऐन वक्त पर उसे राज्य के लालच में भाई की हत्या में निहित अविवेक का बोध होता है। वह लालची भरत को धराशयी कर धरा का अपमान नहीं कर सकता। पर उसके पीछे हटने पर भी भरत का प्रतीक चक्र रुक गया है। शाही चक्र धर्म चक्र से हार गया है। लेकिन वही बाहुबली गोम्मटेश्वर के मिथ में हिनित निग्रह या वैराग्य पूंजी के तंत्रा से हार रहा है। चैनल का प्रोड्यूसर रिहर्सल टीम को अपनी तरह से नचा रहा है। बाहुबली बने अभिनेता ने शायद किरदार को आत्मसात कर लिया है। चरित्रा की अनासक्ति उसमें प्रोड्यूसर के प्रति चिढ़ पैदा कर रही है। वह कई बार उससे भिड़ चुका है। वह कास्ट्यूम खोल रहा है। क्या वह सारे वस्त्रा खोल देगा?‘नहीं, तुम नंगे सत्य के लायक नही हो’ वह प्रोड्यूसर से कहता है।

शुक्रवार को एलटीजी प्रेक्षागृह में हुई निर्देशक सुरेश अनगल्ली की प्रस्तुति जितना अपनी गति में उतना ही दृश्यात्मक अवयवों में दर्शकों को बांधे रखती है। वीडियो दृश्यों के अलावा उसमें दर तक चलने वाला नर्तकी नीलांजनी का नृत्य है, रिहर्सल में पात्रों की टकराहटें हैं। चाय लेकर आने वाला मुंडू कई बार पात्रों से टकराता है और उसकी सारी गिलासें गिर जाती हैं। इनके अलावा बैटरी के आधार पर रखा भरत का चक्र भी अपने में चाक्षुप असर बनाता है। प्रस्तुति स्थितियों से लबालब भरी हुई है। दर्शकों के लिए उसमें कोई मोहलत नहीं है। सुरेश अनगल्ली मानते हैं। कि उनकी यह प्रस्तुति पाठ का हूबहू मंचीय अनुवाद नहीं है। बल्कि इसका खिलंदड़पन पाठ और प्रस्तुति में एक संवाद बनाता है शायद इसी वजह से वे इस प्रस्तुति मंे पाठ के साथ-साथ उसी केऑस का भी पुट देते हैं। जो हमारे वर्तमान की एक सच्चाई है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 23 जनवरी 2012

अभिमंच में एंटीगनी


शुक्रवार को अभिमंच में प्राचीन ग्रीक नाटककार सोफोक्लीज के नाटक ‘एंटीगनी’ की प्रस्तुति की गई। इडीपस की बेटी एंटीगनी के जन्म में भी एक त्रासदी निहित थी और मृत्यु में भी। लेकिन उसके किरदार में निहित प्रतिरोध ने उसे विश्व रंगमंच का एक महत्वपूर्ण पात्रा बनाया। उसके दोनों भाई सत्ता के लिए हुए युद्ध में मारे गए। लेकिन मौजूदा राजा क्रेयान ने दोनों में से एक भाई पॉलिमिस को दुश्मन घोषित कर उसे दुनाने पर रोक लगा दी है। एंटीगनी को मंजूर नहीं कि उसके भाई को गिद्ध नोच-नोच कर खाएं। राजा क्रेयान के हुक्म के खिलाफ अपने भाई के शव का दफनाने वालली एंटीगनी के चेहरे पर यहां-वहां बेतरतीबी से रंग पुता हुआ है। तुर्की के स्टेट थिएटर की इस प्र्रस्तुति में क्रेयानए जो एंटीगनी का मामा भी है और होने वाला ससुर भी-एक तानाशाह की तरह दिखाई देता है। उसके बाल आधुनिक ढंक से कढ़े हुए है। उसे अपने फैसलों पर कोई संदेह नहीं है। निर्देशक केनान आइजिक इस तरह व्यक्ति और सत्ता के द्वंद्व को एक ऊंचाई पर ले जाते हैं।

एंटीगनी की गुस्ताखी के लिए क्रेयान ने उसे धरती के भीतर एक कंदरा में बंद करवा दिया है। वह अंधे जयोतिषी टेयरिसियस की भी एक नहीं सुनता और एंटीगनी को छोड़ देने ओर उसके भाई को दफनाने की उसकी सलाह के लिए उस राज्य का विश्वासघाती मान लेता है। उसके इस फैसले और अड़ियलपन से आहत उसका बेटा फिर कभी न लौट कर आने के लिए उसे छोड़ कर चला जाता है और एंटीगनी के फांसी लगा लेने के बाद अंततः खुद को ही खंजर भौंक कर मार लेता है। बेटे की मौत से आहत मां भी यही रास्ता चुनती है। और आखिर में रह गया है अपने प्रायश्चित को भोगने के लिए अकेला क्रेयान।

नाटक का व्यक्तिगत त्रासदी का क्लासिकल पाठ यहाँ सत्ता की निरंकुशता के पाठ में बदला हुआ है। इसीलिए क्रेयान मंच पर सबसे ज्यादा दिखता है। यह एक शब्दबहुल नाटक है। लगातार संवादों और एक स्थिर दृश्य संरचना में आगे बढ़ता हुआ। विंग्स को हटा कर मंच के पूरे स्पेस में यह दृश्य बनाया गया है। पीछे की ओर सक प्लेटफॉर्म है, जिस पर नाटक का कोरस उपस्थित है। यह एक भव्य दृश्य है, जिसमें वेषभूषा सबसे ज्यादा दिखती है। इस वेशभूषा में प्राचीन ग्रीम नाटकों की शास्त्राीयता के साथ समकालीनता का भी पुट है। क्रेयान के बैठने की बीच चेयर भी आज के जमाने की है। ग्रीक ट्रैजेडी का यह समकालीन पाठ है। क्रेयान एक मौके पर बिल्कुल ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ के तानाशाह की तरह भाषण देता है। इस बीच आतिशबाजी की डिजिटल छवियां भी मंच को घेरे हुए हैं। इस तरह बिल्कुल शुरूआत के दृश्य में टेयरसियस एक बच्चें के साथ लंबे समय तक बिल्कुल निश्चल मूर्तिवत खड़ा है। चेहरे पर रंग पोते उसकी निश्चलता एक लाजवाब छवि है। बाद के दृश्य में वह एक गिद्ध लिए है। पूरी प्रस्तुति इसी तरह की कुछ युक्तियों से एकरसता को तोड़ती है। फिर भी उसका बाहरी पाठ भीतरी पाठ से बीच-बीच में कुछ छिटकता मालूम देता है।

- संगम पांडेय

22 जनवरी 2012, जनसत्ता

सटीक अभिव्यक्तिवाद का रंग


भारतीय थिएटर में माया कृष्ण राव एक अलग ही शैली की कलाकार हैं। वे अकेली मंच पर होती हैं अपनी बहुत-सी तत्पर भंगिमाओं और मुद्राओं के साथ उनके संवाद ध्वनियों की शक्ल में होते हैं। कई बार फुसफुसाते हुए से। करीब एक दशक पहले जब उनकी पहली प्रस्तुति देखी थी, तो यह एक किंचित रूखा संयोजन था। लेकिन तब से अब तक उन्होंने अपनी शैली में क्रमशः काफी सुधार किए हैं

मंगलवार को भारत रंग महोत्सव में हुई प्रस्तुति ‘रावन्ना’ में उनका अभिव्यक्तिवाद ज्यादा व्यवस्थित दिखाई देता है। मंच पर प्रस्तोता के रूप में उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता है। उनकी देहभाषा मे एक आक्रामक लय है। लेहकिन उसमें वे खालिस देहभाषा के भरोसे नहीं हैं, उन्होंने मंच पर ‘दृश्य’ के कुछ प्रावधान भी किए हैं। दाहिने छोर पर एक आलमारी जैसी चीज में कुछ छोटे-छोटे कपड़े लटके हैं। बीच-बीच में वे इन कपड़ों को अपने पहलने हुए कपड़ों में इस तरह खोंस लेती हैं। कि उसका अलंग रंग दृश्य के पूरे फ्रेम में एक छोटा सा प्रभाव लिए शामिल हो जाता है। एक दृश्य में वे अपने स्वेटर को ऊपर सिर तक ले जाती है। स्वेटर में से निकले सफेद बाल एक रहस्य की तरह दिखते हैं। पीछे की ओर एक दरवाजा है। प्रस्तुति के दौरान दो और दरवाजे लाकर खड़े कर दिए जाते हैं। बीच के दरवाजे से वे प्रस्तुति में दाखिल होती हैं, मंच की गहराई का शायद यह अंतिम छोर है। एक बार वहां से धुआं निकलता दिखाई देता है।

दृश्यों के इस संयोजन के अलावा स्वरों और ध्वनियों की भी एक अहम भूमिका है। वे स्वरों के अनुरूप ‘मूव’ लेती हैं। उनकी देहभाषा में कथकली की मौखिक-आंगिक व्यंजना से लकर पाश्चात्य ढंग से थिरकने का कौशल है। यह एक सटीक अभिव्यक्तिवाद है। इसमें रोशनियों के बहुतेरे प्रभाव हैं। माया अपने धवल केशों का दृश्यों में कई बार कंट्रास्ट के तौर पर अच्छा इस्तेमाल करती हैं। उनकी देहभाषा का आत्मविश्वास मानो सारे असमंजसों को धूल चटा चुका है। उसमें एक गहरी संलग्नता है। यह आत्मविश्वास किरदार में बहुत गहरी पैठ से बना मालूम देता है। माया की मुखमुद्राओं में दर्शकों के होने का कोई असर नहीं है। दर्शक ऊबें या सुखी हों-- यह कोई मसला नहीं है। वे बुदबुदाते हुए मंच के एक छोर की ओर जा रही हैं। यह बुदबुदाना रावण के किरदार की कभी-कभीसुनाई देने वाली कमेंट्री का एक हिस्सा है। सुनाई दे तो ठीक, न सुनाई दे तो भी क्या फर्क। यह सैकड़ों रामकथाओं में से किसी एक का प्रसंग है। सीता का रावण की मृत्यु का कारण बनना नियत है। क्योंकि रावण कुछ ऐसा भूल गया है, जिससे उसकी नियति जुड़ी है। माया पूछती है-- क्या यह स्मृतिविहीनता की कथा है। क्या रावण जैसे विद्वान और कलाप्रेमी की स्मृतिविहीनता एक रूपक है।

माया कृष्ण राव की रंग-शैली को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वाले दर्शक भी हैं। लेकिन माया इससे निस्संग रहते हुए निरंतर इसके भीतर कई प्रयोग करती रही हैं। मसलन, एक जगह कोई कपड़ा खोंसते हुए वे कुछ बोल रही हैं, और काफी तल्लीनता से अपना काम भी कर रही हैं। मानो यह काफी उपयोगी कोई काम हो। माया कृष्ण राव का अभिव्यक्ति के अपने तरीकों पर हमेशा भरोसा रहा है। इस प्रस्तुति में उनके इस भरोसे को दर्शकों का भी पूरा अनुमोदर हासिल हुआ।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 19 जनवरी, 2012

जुले वर्न का कल्पनालोक


थिएटर में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। जुले वर्न के 19वीं शताब्दी में लिखे गए फ्रांसीसी उपन्यास ‘ट्वेंटी थउसेंड लीग अंडर द सी’ की प्रस्तुति इसे साबित करती है। रविवार को कमानी में हुई इस प्रस्तुति के पात्रा समुद्र के अंदर एक पनडुब्बी में हे, जिसे एक ऐसे शख्स ने दुनिया से छुपाकर बनाया है जो तत्कालीन सभ्यता से क्षुब्ध है। पनडुब्बी को समुद्री दैत्य समझा जा रहा है। अमेरिका ने इस दैत्य को मार गिराने के लिए एक दल को भेजा है। लेकिन कहानी के नैरेटर प्रोफेसर पियरे सहित दल के तीन लोग पनडुब्बी बनाने वाले कैप्टन नेमो की गिरफ्त में आ गए हैं।

मंच पर परदे को पूरा खोला नहीं गया है। इस तरह बीच की खुली जगह एक फ्रेमकी तरह इस्तेमाल की जा रही है। इस खाली जगह पर एक रूीना परदा है जिस पर समुद्र के अंदर एनिमेटेड संसार उभर रहा है। तरह-तरह की मछलियां और जीव। इस दौरान परदे के पीछे भीतर की ओर मौजूद पात्रा भी दिखते रहते हैं। पात्रागण कभी इस झीने परदे के आगे कभी उसके पीछे हाते हैं-- इस तरह पनडुब्बी के भीतर या बाहर की स्थितियों को दर्शाया गया है।

कुल मिलाकर यह डिजिटल तरीकों से तैयार किया गया एक जटिल और कल्पनाशील संयोजन है जिसमें एनिमेशन और कैमरे से शूट किए गए वास्तविक सचल चित्रों- दोनों का इस्तेमाल किया गया है। ध्वनि प्रभावों के जरिए इसे पुरअसर बनाने की कोशिश की ई है। पानी के बुलबुले कई बार इतरे करीब से और इतने विस्तार में है कि एक एक घेरने वाली दृश्यात्मकता बन जाती है।

इटली के टिएट्रो पॉटलैक थिएटर की इस अंग्रेजी प्रस्तुति में प्रभावशाली डिजिटल संयोजन के अलावा चरित्रांकन कुछ मजाकिया तरह का है। इसके पात्रा कॉमिक्स किरदारों की तरह दिखाई देते हैं। समुद्र के भीतर यहा-वहां गुजरते हुए वे अटलांटिक और प्रशांत महासागरों में पानी के घनत्व के फर्क को लेकर चर्चा करते हैं। उनकी चाल-ढाल में भी यह चीज है। यह ढंग एनिमेशन में दर्शाए गए जीवों के नक्श आदि में भी है। प्रस्तुति के निर्देशिक पुनो दि बूडो ने एक मुश्किल ढांचे में एक तरह की शैली का कुशल निबाह किया है। जुले वर्न का यह उपन्यास तब लिखा गया था, जब इस किस्म की पनडुब्बी एक काल्पनिक चीज थी। प्रस्तुति के दृश्यों में पानी के जहाज की छवि का इस्तेमाल भी किया गया है। इस तरह जुले वर्न के 140 साल पुराने कल्पनालोक को बूडो मंच पर संभव बनाते हैं।

कमानी में सोमवार को सई परांजपे लिखित और निर्देशित मराठी प्रस्तुति ‘जसवंदी’ का मंचन किया गया। यह एक यथाथर्ववादी प्रस्तुति है, जिसकी केंद्रीय पात्रा धनाढ्य घर की एक स्त्राी है। पति के पास अपनी व्यावसायिक व्यस्तताओं में उसके लिए समय नहीं है। एकाकीपन से जूझती नायिका का खुद को आंटी कहने वाले एक नौजवान स संबंध जुड़ता जाता है। घर के काम करने वाली रंगाबाई और ड्राइवर दो अन्य पात्रा हैं। रंगाबाई की पैतृक जायदाद के लिए वे एक हत्या करने पर चर्चा कर रहे हैं। इनके अलावा प्रस्तुति में दो बिल्ले भी है, जिनकी आपसी बातचीत और हरकतें निरंतर एक रोचकता बनाए रखती हैं।

प्रस्तुति की विशेषता है कि यथार्थ के दुर्द्धर्ष पक्ष भी उसमें दिखाई देते रहते हैं। हालांकि बिलौटों की उछलकूद कुछ मौकों पर प्रसतुतिको अनावश्यक लंबा बनाती है। घर के भीतर के दृश्य का यह एक सुंदर सेट डिजाइन था जिसमें आंगर के पेड़-पौधों के अलावा दो दरवाजों के जरिए भीतर के कमरों को दर्शाया गया है। बिलौटों का अभिनय करनेवाले पात्रों का कोई मेकअप नहीं किया गया है, सिर्फ उनहें अपनी हरकतों से ही खुद को बिलौटा साबित करना है। प्रस्तुति की यह युक्ति काफल चर्चित रही है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 18 जनवरी 2012

उदास और रहस्मय सौंदर्य


भारत रंग महोत्सव में शनिवार को हुई प्रस्तुति ‘वाटर स्टेशन’ की विशेषता उसकी विलक्षण धीमी गति है। यह एक ऐसी गति है जो स्थिरता की दोस्त मालूम देती है मंच के बाएं छोर की ऊंचाई पर प्लेटफॉर्म से एक रास्ता शुरू होता है। एक मोड़ लेकर यह रास्ता स्टेज के मध्य तक पहुंचता है। यहां तक पहुंचता है। यहां एक नल लगा है जिससे लगातार पानी बह रहा है। यह जगह एक पड़ाव है। यात्रियों का रास्ते से आना और नल से पानी पीना- यही प्रस्तुति का कथ्य है।

इसमें एक उपकथा भी है दाएं किनारे पर कबाड़ का ढेर है, जहां एक किरदार बिल्कुल स्थिर खड़ा ये गतिविधियां देख रहा हैं प्रस्तुति में कोई संवाद नहीं है। दर्शक कुछ न होने को देख रहे हैं। कुछ न होना शायद उन्हें किंकर्तव्यविमूढ़ बना रहा हो, पर इसमें एक बड़ी राहत है। हर गतिविधि को पूरे विस्तार से महसूस करने का इत्मीनान। निर्देशकीय से शब्द उधार लें तो ‘यह खामोशी’ धीमापन और स्तब्धता- ये सब मिलकर एक उदास और रहस्यमय सौंदर्य की रचना
करते हैं, जो हमें अपने जीवन और अस्तित्व को देखने के लिए एक नई दृष्टि देता है।’

स्लोमोशन दर्शक को अचानक एक नए समय बोध में ले जाता है। समय के हर टुकड़े की बहुत सी कोशिकाएं हैं। नल की ओर हाथ धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है। धार मुंह में जाने से गिर रहे पानी की आवाज रुक गई हैं। आवाज का रुकना भी दृश्य की एक गतिविधि है।.... कई तरह के पात्रा रह-कर उपस्थित होते हैं। एक औरत आती है, एक बच्चागीड़ी लिए दंपत्ति,... पीठ पर टोकरी बांधे एक कामगार औरत।

जापानी नाटककार शोगो ओटो लिखित यह प्रस्तुति एक त्रायी का हिस्सा है। शेगो के बारे में उल्लेखनीय है कि वे 14वीं सदी के जापानी सौंदर्यर्शास्त्राी जियामी मोटोकियो की अकर्मकता की अवधारणा से प्रेरणा लेते रहे हैं। केरल के थिएटर ग्रुप थिएटर रूट्स एंड विंग्स के लिए इस प्रस्तुति का निर्देशन शंकर वेंकटेश्वरन ने किया है। उनके मुताबिक इस प्रस्तुति में धीमापन ‘पात्रों की आदि छवियों’ और ‘मानव अस्तित्व के सार’ को समझने में मददगार है। एक दृश्य में पति-पत्नी के अंतरंग क्षणों का एक टुकड़ा भी है, जो धीमेपन को थोड़ा बाधित करता है’

शनिवार को ही कमानी प्रेक्षागृह में बांग्ला प्रस्तुति ‘ब्योमकेश’ का मंचन किया गया। ब्योमकेश शारदेंदु बंद्योपाध्याय रचित बांग्ला साहित्य का प्रसिद्ध जासूसी किरदार है। इस प्रस्तुति में वह एक हत्या की गुत्थी को सुलझाता है। हत्यारे ने बहुत तरकीब से जायदाद के लिए हत्या की, लेकिन कुछ हल्की-फुल्की चूकें उसे ले डूबी। नाटक की विधा में यह जासूसी का एक सीधा-सादा नैरेटिव है। साहित्यिक उत्सुकता थिएटर के लिए कोई बहुत उपयोगी चीज नहीं मानी जाती।

ब्योमकेश के रहस्योदघाटनों में कोई बड़ा रोमांच नहीं है। बल्कि अपनी सादगी में यह प्रस्तुति एक नॉस्टैल्जिक रूमान पैदा करती है। बृत्य बसु निर्देशित इस प्रस्तुति मेें कुछ अपने किस्म के खांटी किरदार है, और हत्या उसमें सिर्फ लालच की वजह से नहीं बल्कि नफरत की वजह से भी की गई है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 17 जनवरी 12012

नाट्य प्रस्तुतियों में कौंध और गूंज


गुरुवार को अभिमंच में त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित प्रस्तुति ‘बीच शहर’ का मंचन किया गया। निर्देशिका के मुताबिक यह प्रस्तुति अधूरे वाक्यों, छवियों, कौंध, कविता, चीखों और चुप्पियों से बनी हैं कुछ अर्थों में यह एक नाटक नहीं हैं, इसमें स्मृति, अहसास, आवेग, अवधारणा और घटनाओं के अंशों को एक जगह इकट्ठा किया गया है और प्रस्तुति में वास्तविक और अवास्तविक, स्वप्न और अस्तित्व, सजीव और निर्जीव की कार्रवाइयां समय के एक ही स्पेस और परिदृश्य का हिस्सा है और किसी निश्चित फ्रेम के लिए बाधा खड़ी करती हैं। मंच पर बहुत से ब्लॉक्स हैं। दर्शकों के बीच से गुजरने वाला एक प्लेटफॉर्म हैं, जहां से रह-रह कर पात्रा प्रकट हाते हैं। बहुत सारे पात्रा हैं पर उनके आपसी संवादों के सूत्रा जोड़ना दर्शकों के लिए आसान नहीं है। मंच के दोनों छोरों पर दो परदे लगे हैं जिन पर उभरी वीडियो छवि में लिखा है, 1984, फिर कुछ कटे हुए बाल गिरते हैं। इसके कुछ देर बाद एक तारीख उभरती है, 6.6.2002, आशय की इसी सूत्रा के सहारे दर्शक को कड़ियां जोड़नी हैं। यह गुजरात दंगों के दौरान एक आम आदमी की कहानी है, जिसने मुसीबत में पड़े लोगों की हिफाजत की। मंच पर बहुत सारा सूक्ष्म और स्थूल एक साथ मौजूद हैं। कुछ पात्रा मंच पर बातचीत में लगे हैं,। उसका इस तरह वहां होना एक औचक उपस्थिति है। प्रस्तुति में मंच सज्जा में एक नियोजन और डिजाइन दिखता है लेकिन स्थितियों के किसी व्यावहारिक समीकरण में नहीं होने से मंच पर बहुत कुछ फालतू भरा हुआ दिखता है। निरंतर संवाद बोले जा रहे हैं, पर यह सारा कुछ संप्रेषित भी हो रहा हो ऐसा नहीं है।

शुक्रवार को ही प्रदर्शित एक अन्य प्रस्तुति ‘मेईध्वनि’ में तरह-तरह की देहगतियों का प्रदर्शन किया गया है। शरीर के ज्यामितीय लय। तीन गागर लिए स्त्रिायां गागर एक सहयोगी हैं। वे कभी उसके ऊपर होती हैं कभी उनके पैर गागर में। लेकिन उनकी गतियों में एक सभ्यता है जिससे एक लय बनती हैं। मेईध्वनि का अर्थ है शरीर की गूंज। इसके निर्देशक जयचंद्रन पालझी हैं। निर्देशकीय के मुताबिक ब्रह्मांड और मानव शरीर के वास्तुशिल्पीय और ज्यामितीय अमूर्त प्रत्ययों से सूत्रा लेकर यह प्रस्तुति प्रयास करती हैं अशांत परिस्थितियों में बंदियों द्वारा अनुभव किए गए बाध्यकारी एकाककीपन को समझने की। भारतीय चिंतन में उपस्थित ब्रह्मांडीय घटकों- शरीर और द्रव-की अवस्थाओं के इतिहास में खोज करते हुए यह नाटक उनकी मूर्ति सदृश आकृतियों, स्मृतियों और मनोभावों में निहित गुणों की एक यात्रा है। इसके मुताबिक प्रस्तुति में दिखाए गए धातु कलशों क आकृति एक संयमित मगर फिर भी अयोध्य स्त्रिायोचित अनंतता की ओर इशारा करती है। ऐसे गूढ़ भावों से भरी इस प्रस्तुति को बंगलूरू की अट्टाकलरी रेपर्टरी ने तैयार किया है।

- संगम पांडेय

(जनसत्ता, 16 जनवरी 2012 से साभार)

चीनी परंपरा की कहानियां


गुरुवार को कमानी प्रेक्षागृह में हुई पीकिंग अंपिरा की प्रस्तुति कई छोटी-छोटी प्रस्तुतियों का एक संग्रह थी। चीनी सोंदर्य- बोध मंे रंगों को एक खास तरह से बरतने की परंपरा है। तीखेपन से मुक्त और क्रमशः गाढ़े से हल्के होते हुए। यह प्रस्तुति भी प्रथमदृष्टया इसी वजह से ध्यान खीचती है। मंच पर एक ही कलाकार है, लेकिन उसकी वेशभूषा और मेकअप में शांत, राहत देने वाले रंगों का एक विशिष्ट आकर्षण है। प्रस्तुतिकर्ता की भाव-भंगिमाएं संगीत स्वरों के मुताबिक आकार ले रही हैं, और यही इसकी नाटकीयता है। कथ्य के नाम पर चीनी परंपरा की कुछ कहानियां हैं, लेकिन यह कथ्य इतना साकेतिक तरह से घटित होता है कि घटनाएं अपने में रुचि का विषय नहीं बन पातीं।

एक कहानी में नायिका बताती है कि वह सुबह उठी तो जाने क्यों बहुत भावुक महसूस कर रही थीं फिर कुछ काम न होने से वक कढ़ाई- बुनाई करने लगी। फिर वह शानदार मौसम का जिक्र करती है। मंच पर इस दरमियान कढ़ाई किए हुए कपड़े के कवर वाली दो कुर्सियां और एक मेज रखी हैं। यह एक प्रेमकथा है। इसके अलावा ‘परी द्वारा फूलों को बिखेरना’, ‘उत्सवी लालटेनों की सूची’, ‘बांस के उपवन में’ आदि शीर्षक प्रस्तुतियां भी हैं।

‘बांस के उपवन में’ शीर्षक प्रस्तुति में पात्रों की तादाद सबसे ज्यादा थी। चार पुरुष पात्रा इसमें पीले वस्त्रों में हैं और इतने ही स्त्राी पात्रा आसमानी परिधान में आसमानी कपड़ों में। इनके बीच काले परिधान में एक पात्रा जोरदार कलाबाजी करता हुआ मंच पर प्रकट होता है। चीन के सेंट्रल एकेडमी ऑफ ड्रामा की इस प्रस्तुति के निर्देशक ज्यांग यू ज्यांग हैं। चीनी ऑपेरा अपनी प्रस्तुति में भले ही जितना भी परिष्कृत हो, पर इसकी सामग्री चीनी परंपराओं से ही ली जाती रही है।

- संगम पांडेय

(जनसत्ता, 14 जनवरी 2012 से साभार)

रवींद्रनाथ ठाकुर और कंबार के नाटक


बुधवार को एलटीजी प्रेक्षागृह में बांग्लादेश के थिएटर ग्रुप ‘देश बांग्ला’ की प्रस्तुति ‘चांडालिका’ का मंचन किया गया है। यह रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाटक है, जो उनके कई और नाटकों की तरह कथ्य की आभासी लीक के समांतर उसकी अंतरव्याधियों में आगे बढ़ता है।

चांडाल मां बेटी, माया और प्रकृति, बसावट से दूर कहीं रहती हैं। राह से गुजर रहा बौद्ध भिक्षु आनंद बेटी प्रकृति से जल पिलाने को कहता है। पर वह अछूत कैसे किसी को जल पिलाकर भ्रष्ट करे। लेकिन आनंद से यह सुनकर कि ‘हम दोनों मनुष्य है’ और आत्मा-नकार मृत्यु के समान है’ उसके भीतर एक नया मनुष्य आकार लेता है। अपने वजूद का एक नया संज्ञान, जो उसे इच्छाओं से भर देता है। आनंद के प्रति उसकी प्रेम की इच्छा इसी का परिणाम है, जिसे यह मंत्रा-विद्या जानने वाली अपनी मां माया के जरिए हासिल करने की कोशिश करती है। नाटक में प्रकृति का आह्लाद कोई एक दृश्य मात्रा नहीं है। यह एक पूरा गठन है।

निर्देशक विभास विष्णु चौधरी की प्रस्तुति इस लिहाज से मंथर और थोड़ी बंधी हुई मालूम होती है, बल्कि कई बार ठिठकी हुई भी। जबकि प्रचलित अर्थ मंे इसका कुछ अधिक गीतिमय होना बेहतर होता। लेकिन विभासा विष्णु चौधरी के मुताबिक, वह प्रस्तुति नाटक का शुद्ध, संक्षिप्त और कथ्य पर केंद्रित पाठ है, और यह कि उन्होंने इसमें ‘कथ्यगत जटिलता को देखते हुए कुछ संरचनात्मक फेरबदल भी किए हैं’। उनके अनुसार यह ‘सच है कि संसार की प्रत्येक जीवित वस्तु प्रकृति का अंश है, लेकिन हम मनुष्यों ने खुद को उससे अलग कर लिया है और अपने आप को उच्च जाति का समझकर उस पर इस तरह शासन करते है जैसे वह नीची जाति का हो।’ जाहिर है, जो पाठ के आशयों को अपने ढंग से एक स्पष्टता देने की कोशिश करते हैं।

पहले ही दृश्य में अंधेरे में डूबे मंच पर बहुत सी चमकती हुई सफेद हथेलियां लहराती हुई दिखती हैं। फिर क्रमशः गाढ़ी होती रोशनी में सफेद दस्तानों और काले कास्ट्यूम वाले कई पात्रा स्पष्ट होते हैं। उनकी पीठ पर शरीर के अस्तिपंजर की लकीरंे उकेरी हुई हैं। साथ ही ताल दादरा और ‘काहे तुम छुप गए मोहन प्यारे’ के स्वर जाहिर है, आंतरिक लय के बजाय स्थितियों में योजना ज्यादा दिखाई देती है। हालांकि इस योजना में एक सादगी भी है।
‘चांडालिका’ का निर्देशन उषा गांगुली ने भी किया है। कुछ अरसा पहले देखी उस प्रस्तुति में वेशभूषा में चटक रंगों का इस्तेमाल याद आता है। भारत रंग महोत्सव में इसी सप्ताह उसका होना भी निर्धारित है। स्पष्ट है कि दोनों प्रस्तुतियों मिजाज का काफी फर्क रखती है।

बुधवार को ही अभिमंच में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों की चंद्रशेखर कंबार के कन्नड़ नाटक जो कुमारस्वामी पर अधारित प्रस्तुति ‘तोता बोला’ देखने को मिली। सजल मंडल निर्देशित इस प्रस्तुति में एक गांव का गौड़ा जमींदार अत्याचारों में अव्वल है पर संतान पैदा कर पाने में नाकाम। गांव के ही बसन्ना पर लड़कियाँ मरती हैं। इन बिल्कुल दो टूक नायक-खलनायक के दरम्यान एक गुरिया है, जो बसन्ना का सान्निध्य में कायर से हिम्मती बनता है। अंत तक पहुंचते-पहुंचते खलनायक की बीवी भी नायक की हो चुकी है। प्रस्तुति का ढंग कुछ ऐसा है कि पूरा कथ्य मंच पर एक रैखिक ढंग की कहानी में पेश होता है, जबकि कंबार के नाटकों में प्रत्यक्ष पाठ के समांतर एक अंतर्वस्तु का अहसास बना रहता है। फिर भी अभिनय और चरित्रांकन के लिहाज से यह एक ठीक ठाक प्रस्तुति थी। दानिश इकबाल, मुनमुन सिंह और सहिया विज प्रस्तुति में प्रभावित करते हैं।


- संगम पांडेय


(जनसत्ता, 13 जनवरी 2012 से साभार)

Monday, January 16, 2012

सिद्धांत भी एक नाटक है


भांरगम 2012 में मंचित नाटकों पर ‘जनसत्ता’ में संगम पांडेय लिख रहे हैं. ‘रंगवार्ता’ के साथियो के लिए साभार प्रस्तुत है ‘ग्रोटाव्स्की एन एटेंप्ट टु रिट्रीट’ पर उनकी रंग टिप्पणी. //

भारत रंग महोत्सव में पोलैंड के थिएटर ग्रुप कोरेया की प्रस्तुति ‘ग्रोटाव्स्की एन एटेंप्ट टु रिट्रीट’ का प्रदर्शन सोमवार को कमानी प्रेक्षागृह में किया गया। जर्जी ग्रोटोव्सकी पिछली सदी के उत्तरार्ध में सक्रिय रहे पोलैंड के रंगकर्मी और रंग-सिद्धांतकार थे। उनकी पूअर थिएटर की अवधारणा रंगमंच को सिनेमा के प्रभावों से बरी रखने के अर्थ में थी। उनकी राय में थिएटर को वह नहीं होना चाहएि, जो यह नहीं हो सकता। उनका कहना था कि रंगमंच अगर सिनेमा से ज्यादा वैभवशाली नहीं हो सकता, तो इसे गरीब ही रहने देना चाहिए।

हमारे यहां मोहन राकेश भी अभिनेयता की तुलना में लाइट्स, मंच-सज्जा आदि के जरिए अतिरिक्त प्रभाव निर्मित किए जाने के खिलाफ थे, पर ग्रोटोव्स्की ने इस विचार को ज्यादा मुकम्मल शक्ल में पेश किया। उन्होंने अभिनेता और दर्शक के रिश्ते में अन्यमन्स्कता पैदा करने वाली हर चीज को खारिज किया। उनके लिए मंच पर किया जा रहा अभिनय ही बुनियादी चीज थी। लेकिन वे ‘मैथड एक्टिंग’ के नपेतुलेपन के पक्षधर भी नहीं थे। अभिनय उनके लिए स्तानिस्लाव्स्की और स्ट्रासबर्ग पद्धतियों का हुनर मात्रा न होकर अभिनेता की मानसिक और शारीरिक प्रतिक्रियाओं का एकीकरण था। इसके लिए वे अभिनेता में गंभीरता, एकाग्रता और प्रतिबद्धता को आवश्यक मानते थे। स्वयं में से उद्भूत स्वर और देह की स्वाभाविकता उनके लिए ज्यादा अहम थी। और इसके लिए कसी तकनीक की तुलना में आत्मचेतस होने की प्रक्रिया को वे ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानते थे।

निर्देशक टॉमस्ज रोडोविक्ज निर्देशित इस प्रस्तुति में इस प्रक्रिया का जिक्र अभिनेता बार-बार करते हैं। दरअसल यह पूरी प्रसतुति ऐसी कई प्रक्रियाओं के जिक्र का ही एक विस्तार है। प्रस्तुति का मंच बर्गर बिंग्स के एक चौकोर हॉल की शक्ल में है। इसके एक कोने पर एक मेज रखी है, जिसके अंदर की गहराई में शीशों से रोशनी दिख रही है। शुरुआत में छह अभिनेता इसके इर्द-गिर्द खड़े हैं, जिनमें एक कुछ हकलाता है। निर्देशक के वक्तव्य के दौरान वह थोड़ा बेसब्र है। कहीं कुछ ऐसा नहीं है जो योजनाबद्ध लग रहा हो, पर योजनाहीनता की कोई चेष्टा भी नहीं है। निर्देशक के बाद अभिनेतागण अपने अनुभव और राय बता रहे हैं। इनमें कुछ सवाल भी हैं कि ‘अपने अकेलेपन के साथ इंसान क्या कर सकता है’ कि ‘एक गैर-अनुकुलित शरीर जानवर की तरह है’ कि ‘एक पापी ही संत हो सकता है’, ‘कुछ नही हो रहा- यह सिर्फ भावनाओं का खेल है’ कि ‘लेकिन कुछ कैसे रचें’, जबकि आप दूसरों से नियंत्रित हैं’ कि ‘जीने और रचने के क्रम में आपको खुद को स्वीकार करना होगा’। इसी क्रम में तरह-तरह की देहगतियों का मुजाहिरा भी अभिनेतागण करते हैं। यह एक सिद्धांत के आत्मसातीकरण की प्रक्रिया है, जिसमें प्रदर्शनप्रियता जैसी खराबियों से बचने का मशविरा निहित है।

मंगलवार को महोत्सव में एक प्रस्तुति ‘बस्तर बैंड’ की भी थी। यह बस्तर के आदिवासी संगीत का एक प्रदर्शन था। इसे रंगमंचीय प्रस्तुति तो नहीं कह सकते, लेकिन रंगमंच के कुछ अवयव मानो इसमें अनायास शामिल थे। चार पुरुष और दो स्त्रियां विभिन्न वाद्यो के सामने हैं। नक्कारा, दो घड़े के वाद्य, लंबी शहनाई जैसा वाद्य, जिसके अनगढ़ स्वर पूरे वातावरण से एकाकार हैं। स्त्रियों में से एक देवी गीत गा रही है। उसके स्वर में पारंपरिकता का खरापन है। सुनकर मालूम देता है कि प्रार्थना, उलाहना या दर्द आदि भाव पारंपरिकता के वश की ही चीज हैं। फिर बहुत से कलाकार मंच पर आ जाते हैं। एक के सिर पर मोरपंख जैसा कुछ लगा है। एक दूसरे के सिर पर शिरस्त्राणनुमा चमकीली टोपी है। एक अन्य कलाकार धनुषाकार ढोलक बजा रहा है। मंच के दोनों सिरों पर दो स्तंभ खड़े हैं। एक के किनारे पर सूखे कद्दू लटके हैं। पता चला आदिवासी जन इन्हीं के आसपास बैठकर सांगीतिक बैठकी करते हैं। प्रस्तुति के निर्देशक अनूप रंजन पांडेय हैं। उनके मुताबिक उन्होंने इस बैंड का गठन आदिवासी परंपरा को सुरक्षित रखने के लिए किया है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 12 जनवरी 2012 से साभार

Saturday, January 14, 2012

थिएटर का पापा लादेन शो


भांरगम 2012 में मंचित नाटकों पर ‘जनसत्ता’ में संगम पांडेय लिख रहे हैं. ‘रंगवार्ता’ के साथियो के लिए साभार प्रस्तुत है ‘पापा लादेन’ और ‘नैन नचैया’ पर उनकी रंग टिप्पणी. //

पिछले सत्र में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से स्नातक हुए आंध्र प्रदेश के सुमन मेलिपेड्डी निर्देशित प्रस्तुति ‘पापा लादेन’ का आइडिया काफी दिलचस्प है। भारत रंग महोत्सव में शामिल विद्यालय की इस डिप्लोमा प्रस्तुति में पात्र किसी कार्टून फिल्म की तरह मौजूद है। शरीर की तुलना में ज्यादा बड़े कूल्हों वाली और हर समय खीखियाई रहने वाली चोंगा पहने पत्नी, बिगड़ा हुआ नौकर मालूम देता उसका पति, और तरह-तरह की व्याधियों से ग्रस्त पापा।

पापा एक बेंच पर पेट में पांव घुसाए लेटा रहता है। उसे ग्लूकोज की बोतल लगी है। तरह-तरह की नालियां उसके शरीर से बंधी है। जांघिए से निकलती एक नली पेशाब की थैली से जुड़ी है। पापा लादेन इस थैली को पकड़े हुए झुककर चलता है। परेशान हाल वह जिंदा बने रहने का ध्येय से कई स्तरों पर जूझ रहा है। इसके अलावा वहीं पास में एक बच्चागाड़ी खड़ी है, जिससे बीच-बीच में बच्चे के रोने की आवाज आती है।

भाषा के नाम पर अजीबोगरीब स्वर है। एक मौके पर अखबार की एक तस्वीर को देखकर बेकाबू हुआ पति ‘नंगी स्त्री अस्ति’ बोलता है। पत्नी उसे डपटकर खींच लाती है और फिर जिस बीच वे प्यार में खटाखट लिपट रहे हैं, पापा उस सुंदर स्त्री वाली तस्वीर में मुंह घुसाए हुए है। अखबार फाड़कर निकल आई उसकी जीभ दर्शकों को दिखती है। बीच-बीच में पापा लादेन ग्लूकोज की नली को माइक की तरह पकड़ कर भाषण भी देने लगता है। एक मौके पर तीनों रॉक स्टार बन जाते हैं। लेकिन एक अन्य मौके पर पति को गुस्सा आ जाता है और वह पापा को उठाकर पटक देता है, उसकी नलियां हटा देता है, पकड़ी हुई थैली कुचल देता है। वह इतना गैरजिम्मेदार भी है कि बच्चे का दूध खुद पी जाता है। रात में सोते वक्त थकी हारी सोई बीवी की टांग पर उसकी टांग चली गई है। नींद से हड़बड़ा कर जागी बीवी के धक्के से वह गिर पड़ा है। लेकिन एक दूसरे मौके पर वह चीरहरण करने पर उतारू है। उसका स्वर रामलीला के रावण जैसा हो गया है। वस्त्र की जगह वह टॉयलट पेपर खींचे जा रहा है। यह एक थिएटर का ‘पापाय शो’ है, जिसमें मध्यवर्गीय परिवार के सदस्य ‘एनिमेटेड’ हास्यचित्र के तौर पर दिखाई देते हैं। सुमन मेलिपेड्डी ने इसमें कुछ अच्छे फिलर भी डाले हैं।

पापा लादेन हालांकि मूलतः इजराइली प्रस्तुति ‘ओडिसस के ओटिकस’ से प्रेरित है, लेकिन उस प्रेरणा के दायरे में यह पर्याप्त देशज, मौलिक और सुघड़ रूपांतरण है। इसमें एक अपनी ही गति और पैनापन है। हिंदुस्तानी जिंदगी की कई रूढ़ियां, हड़बड़ी और बदहवासी इसमें शामिल है, और बेबाक व्यंग्य। कुछ गिमिक्स और रंग बिरंगी वेशभूषा भी प्रस्तुति को अपने तरह से एक आकार देती है।

सोमवार को अभिमंच प्रेक्षागृह में फरीद बज्मी निर्देशित भोपाल के थिएटर ग्रुप रंग विदूषक की प्रस्तुति ‘नैन नचैया’ भी देखने को मिली। यह एक संस्कृत प्रहसन पर आधारित प्रस्तुति थी, जिसमें रंग विदूषक की देहगतियों पर आधारित शैली स्पष्ट दिखाई देती है। यह उसी परिपाटी का प्रहसन है जिसमें एक चतुर और बाकी सब मूर्ख हुआ करते हैं।

इस प्रहसन के चतुर घोटालू बाबा को उसकी बीवी ढूंढ़ रही है, पर याददाशत खोने के बहाने वह यहाँ-वहाँ भक्तिनों पर डोरे डालता फिर रहा है। नाटक में एक राजा है जो उछलकर अपने सेवकों की गोद में लेट जाता है। उसका विदूषक दो डंडो पर बनी खड़ाऊं पर चलता है। सैनिक चेहरे को सलेटी रंग से रंगे और उस पर काले रंग से मूंछे उकेरे हुए हैं। सबकी पोशाकों में पीला रंग प्रधान है। गाना भी है-ढूंढ़ों जी... ढूंढ़ों जी...।

सरल हृदय दर्शकों में रस-संचार के लिए प्रस्तुति में काफी कुछ है। लेकिन वस्तुतः यह पुराने किस्म के टोटकों और साहित्यिकता में प्रसन्न एक ढांचा है। मूल कथा लीक से इधर-उधर के बहुतेरे प्रसंग हैं। प्रस्तुति में युवा अभिनेताओं के उत्साह के बरक्स एक कच्ची नाटकीयता है। सिखायापन इसमें साफ दिखता है।

संगम पांडेय

जनसत्ता, 11 जनवरी 2012 से साभार

Friday, January 13, 2012

अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे नाटककार राजेश कुमार




‘साडा अड्डा’ पर विवाद -

फिल्म ‘साडा अड्डा’ के खिलाफ नगर के नाटककार राजेश कुमार ने अदालत का दरवाजा खटखटाने का मन बना लिया है। फिल्म शुक्रवार को प्रदर्शित हो रही है। राजेश कुमार का आरोप है कि यह फिल्म उनके नाटक ‘सपने हर किसी को नहीं आते’ पर आधारित है, जिसका मंचन ‘डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट लड़की डॉटकॉम’ शीर्षक से शाहजहांपुर में किया गया था। कुमार का कहना है कि फिल्म के लिए उनसे कोई अनुबंध नहीं किया गया है।

‘अमर उजाला’ ने तीन नवंबर के अंक में राजेश कुमार के हवाले से यह मामला उठाया था। राजेश कुमार ने बताया कि ‘अमर उजाला’ द्वारा मुद्दा उठाए जाने के बाद फिल्म के निर्देशक मोअज्जम बेग ने उनसे संपर्क किया और ई-मेल भी भेजा। उनसे कहा कि हम आपके नाटक को श्रेय देने के लिए तैयार हैं, लेकिन आप हमें लिखित रूप में यह दें कि मैं इसके लिए कोई धनराशि नहीं लूंगा। इस पर कुमार ने कहा कि वे ऐसा कुछ भी लिखकर देने वाले नहीं हैं।

राजेश कुमार ने गुरुवार को बताया कि बेग अब साक्षात्कारों में गलत बयानी कर रहे हैं कि यह नाटक उनका लिखा है। कुमार ने कहा कि बेग मेरी नाट्य संस्था अभिव्यक्ति में बतौर अभिनेता जुड़े थे और इस नाटक का प्रथम निर्देशन उन्होंने किया था। कुमार ने कहा कि नाटक किसका लिखा है, इसकी गवाही नाटक में काम करने वाले सलीम आजाद सहित दूसरे कलाकार दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि संभव है कि फिल्म में नाटक की कहानी को बदला गया हो, लेकिन इसका केन्द्रीय विचार मेरा है और इसका श्रेय मुझे मिलना चाहिए। इसके लिए मुझसे अनुबंध किया जाना चाहिए था। कुमार ने कहा कि बेग अपनी एक पटकथा के मामले में फिल्म ‘रॉकस्टार’ के निर्देशक इम्तियाज अली से लड़ाई लड़ चुके हैं, लेकिन अपनी फिल्म में उन्होंने वही गलती दोहराई है।‘गंाधी और अंबेडकर’ तथा बुश पर जूता फेंकने वाले पत्रकार पर ‘द लास्ट सैल्यूट’ जैसे चर्चित नाटक लिखने वाले राजेश कुमार ने कहा कि अब मेरे सामने अदालत का दरवाजा खटखटाने के सिवाय दूसरा चारा नहीं है। उन्होंने कहा कि मैं शुक्रवार को फिल्म देखूंगा। अगर श्रेय नहीं दिया गया है तो मैं इसके खिलाफ न्यायालय में वाद दायर करूंगा। अगर श्रेय दिया गया होगा तो भी मेरी आपत्ति अनुबंध न करने को लेकर होगी।

Wednesday, January 11, 2012

अंधेरे का राजा और रोशनियाँ


भांरगम 2012 में मंचित नाटकों पर ‘जनसत्ता’ में संगम पांडेय लिख रहे हैं. ‘रंगवार्ता’ के साथियो के लिए साभार प्रस्तुत है रतन थियम के नाट्य मंचन पर उनकी रंग टिप्पणी.

रतन थियम देश की शीर्ष रंग-निर्देशकों में से है। उनके नाटकों में थिएटर का एक क्लासिक व्याकरण देखने को मिलता है। इस व्याकरण में कहीं भी कुछ अतिरिक्त नहीं, कोई चूक नहीं। संगीत, ध्वनियां, रोशनियां, अभिनय-सब कुछ सटीक मात्रा में आहिस्ता-आहिस्ता लेकिन पूरी लल्लीनता से पेश होते हैं। रविवार को कमानी प्रेक्षागृह में हुई भारत रंग महोत्सव की उद्घाटन प्रस्तुति ‘किंग ऑफ द डार्क चेंबर’ में भी सब कुछ इसी तरह था। पहले ही दृश्य में नीली स्पॉटलाइट अपना पूरा समय लेते हुए धीरे-धीरे गाढ़ी होती है। गाढ़े होते वृत्त में नानी सुदर्शना एक छितराए से विशाल गोलाकार आसन पर बैठी है। उसकी पीछे और दाहिने दो ऊंचे झीनी बुनावट वाले फ्रेम खड़े हैं। एक फ्रेम के पीछे से पीले रंग की पट्टी आगे की ओर गिरती है। फिर एक अन्य पात्र सुरंगमा प्रकट होती है। बांसुरी का स्वर बादलों की गड़गड़ाहट। मणिपुरी नाटक का कोई संवाद दर्शकों के पल्ले नहीं पड़ रहा। लेकिन घटित हो रहा दृश्य उन्हें बांधे हुए हैं। मंच पर फैले स्याह कपड़े में से अप्रत्याशित एक आकार ऊपर को उठता है। कुम्हार की तरह रानी दोनों हाथों से इसे गढ़ रही है। फिर वह इस स्याह आदमकद को माला और झक्क सफेद पगड़ी पहनाती है।

चटक रंगों की योजना रतन थियम की प्रायः हर प्रस्तुति में प्रमुखता से दिखाई देती है। इस प्रस्तुति में भी पीले रंग की वेशभूषा में वादकों का एक समूह। अंधेरे में डूबे मंच पर पीछे के परदे पर उभरा चंद्रमा और मंच पर फैला फूलों का बगीचा। ये रंग अक्सर अपनी टाइमिंग और दृश्य युक्तियों में एक तीखी कौंध या कि चमत्कारिक असर पैदा करते हैं। आग लगने के दृश्य में छह लोग सरपट एक लय में पीले रंग के कपड़े को हवा में उछाल रहे हैं कि दर्शक तालियां बजाने को मजबूर होते हैं।



‘किंग ऑफ द डार्क चेंबर’ रवींद्रनाथ टैगोर का नाटक है। नगर में सब कुछ सही है पर राजा अदृश्य है। वह एक अंधेरे कक्ष में रहता है। रानी सुदर्शना और प्रजा सोचते हैं कि राजा है भी कि नहीं। रानी रोशनी की गुहार करती है, पर सुरंगमा का कहना है कि उसने अनिर्वचनीय सुंदर राजा का अंधेरे में ही देखा था। आस्था और अविश्वास के बीच कांची नरेश जैसे मौकापरस्त लोग अपने काम में लगे हैं। वे आग लगवाते हैं, युद्ध का सबब बनते हैं। उधर रानी का असमंजस बढ़ता जा रहा है। नाटक का अदृश्य राजा ईश्वर याकि सच और सौंदर्य का प्रतीक माना गया है, और उसका अंधेरा कक्ष व्यक्ति के आत्म का। रानी को उसे अपने भीतर ढूंढना चाहिए, पर वह उसे बाहर ढूंढ़ रही है।

नाटक के गाढ़े चन्द्रमा का एक कम गाढ़ा शरीर भी है, यह फ्रेम के पीछे से थोड़ा टेढ़ा होकर पूरे स्टेज को निहार रहा है। युद्ध के दृश्य में एक तीखी व्यंजना है। वास्तविक योद्धाओं की जगह ऊंचे जिरह बख्तर और भाले दिख रहे हैं। आगे लाल रोशनी में तलवारबाजी। एक तेज गति और लय पूरे दृश्य को रौद्र-रस संपन्न करती है। इसी तरह अंतिम दृश्य में एक खास कोण से पड़ती पीली रोशनी में रानी एक बुत में तब्दील होती मालूम देती है-पीछे उपस्थित आकार के आगोश में समाती हुई।

रतन थियम का नाट्य व्याकरण अपनी विशिष्टता के बावजूद अब बहुत जाना-पहचाना हो गया है। उनके डिजाइन में अभिनय केंद्रीय चीज नहीं है। वह कुल प्रस्तुति का एक अवयव मात्र है। उनके सुंदर, युक्तिपूर्ण और लयपूर्ण दृश्य स्वायत्त ढंग से याद रह जाते हैं पर वे कोई गहरा संवेदनात्मक असर नहीं छोड़ते, उनकी प्रस्तुतियाँ रस-सिद्धांत वाले रंग अनुभव के करीब हैं। उनकी क्लासिक लय में एक अर्थपूर्ण सूक्ष्मता और वैभव है। जाहिर है इसमें आम जीवन की उस अनगढ़ सहजता को ढूंढना व्यर्थ ही है, जो प्रायः अभिनय की केन्द्रीयता से बनती है।

- संगम पांडेय

(साभार: जनसत्ता, दिल्ली, 10 जनवरी 2012)

Tuesday, January 10, 2012

भारंगम 2012 सांस्कृतिक व्यभिचार का नायाब उदाहरण है


रानावि द्वारा आयोजित 14वें भारतीय रंग महोत्सव पर फेसबुक पर कुछ टिप्पणियां

Vibha Rani : एक ओर रानावि की ओर टकटकी लगाए देख रहे हर गांव, शहर के रंगकर्मी और एक ओर इस तरह के प्रयोगधर्मी खर्च और ताम-झाम. यह छात्रों को भारतीय थिएटर की जड से जुडने की कोशिह्स नहीं है, बल्कि एक ऐसा वितान दिखाने की जिद है, जो हमसे बाबस्ता नहीं रखती.

Rajesh Chandra : मैं इस तथ्य से सन्नाटे में हूँ कि इस बार भी भारत रंग महोत्सव (???) में तीन ऐसी प्रस्तुतियों को जगह मिली है जिनका अभी तक एक बार भी मंचन नहीं हुआ है. यह तथ्य इस बात की तस्दीक करने के लिये काफी है कि यहाँ क्या चल रहा है. देश भर के जेनुइन रंगकर्मियों के काम को हतोत्साहित कर सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े निर्देशकों के आधे-अधूरे अधबने नाटकों को शामिल करना एक तरह से सांस्कृतिक व्यभिचार का नायाब उदाहरण है. यह किस मायने में राष्ट्रीय रंगमंच का प्रतिनिधित्व कर सकता है? महोत्सव के आयोजन में भी विगत वर्षों से जिस किस्म की अव्यवस्था का बोलबाला सामने आ रहा है वह स्तब्ध कर देने वाला है. प्रत्येक प्रस्तुति के लिये सत्तर फीसदी पास संस्थान ने उस हितसाधक मंडली के लोगों, चाटुकारों के बीच बाँट दिया है जिनका वास्तव में नाटकों से कोई आत्मिक सरोकार नहीं है. मेरे जैसे नाचीज़ रंग समीक्षक को कई बार चक्कर लगाने पर भी प्रस्तुति देख पाने का अवसर इसलिए नहीं मिल पा रहा क्योंकि मैं दो सौ रुपये का टिकट लेने में समर्थ नहीं. किससे बात की जाये यह भी मालूम नहीं क्योंकि सारे काम एजेंसियों के मार्फ़त कराये जा रहे हैं. इन एजेंसियों के एमबीए बरदार रंगकर्मियों को दो कौड़ी का भी नहीं समझते हैं.

Jai Kaushal : BHARANGAM ki upalabdhyan kabile gaur hain, par kya NSD sahit rangmanch poore desh se apne ko jod paya! Sab kuch keval delhi aur metro city me ho to usase kitna laabh hoga.. rangmanch gaanv aur kasbom se ojhal ho gaya hai, ab to lok natya paramparayen bhi lagbhag mrit ho chalin,
NSD ke alava IPTA, Jan Natya Manch, Bahroop jaise natya manch bhi shayad gaanv giranv me nahi jate..Aise mancho ko Sarkar bhi badhava nahi deti, taki kalakaar rozi ke liye Delhi mumbai na bhagen..
Ek samay hamare yaha Bhartendu jaise log Samajik badlav aur janta ko sahi disha dene ke liye rangmanch ka upayog karte the. Ab shayad vaisi paristhitiyan bhi nahi rahi ki log thoda ruk-thaharkar kisi ko sun-dekh len..apadhapi bhi badh gai hai..
Fir bhi Mujhe lagta hai ki Rangmanch ab TV aur Cinema me hi bacha hai aur bana rahega..agar use rangmanch mane to.. Samaj me seedhe taur par rangmanch ka judav ateet ki baat ho gai gai..

Krishna Gopal : Samaroh nischit towr par acha hai .likin ab iska vikendri karn karne ka samay hai. Sirf dilhi men hote rahne se koi laabh nahi hone vala .sirf event ban kar rah jayega..

Sanjay Sinha : सवाल इसका नहीं है कि भारंगम में ११०० नाटकों ने हिन्दुस्तानी रंगमंच को क्या दिया है, बल्कि सवाल यह पूछना चाहिए कि नाट्य विद्यालय इस आयोजन को किस कसौटी पर आंकता है. यह समीक्षा का विषय है कि भारंगम में प्रदर्शित होने वाले नाटक वापस अपने क्षेत्र में अपने स्थानीय रंगमंच को कितना प्रभावित करते हैं. क्या वे रंगनिर्देशक स्थानीय युवाओं को एक ऊर्जा दे पाने में सक्षम हो पाए हैं कि अगली प्रस्तुति उनके नाटक से उत्कृष्ट और उसके आसपास हो? दिल्ली में आयोजन अच्छी बात हैं, और होना भी चाहिए. आखिर यह देश कि राजधानी है परन्तु जिसप्रकार दिल्ली कि करवट पूरे देश को हिलाने के लिए प्रेरित करती है, उसी प्रकार भारंगम के आयोजन को हिन्दुस्तानी रंगमंच के सन्दर्भ में देखना और सोचना चाहिए. पर इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ नाट्य विद्यालय कि नहीं है बल्कि उन सारे निर्देशकों, रंगकर्मी दोस्तों और संस्थानों की भी है जो भाग ले रहे हैं. इनकी ज़िम्मेदारी नाट्य विद्यालय से कहीं ज्यादा है.


Punj Prakash : जनता को अपनी कला खुद गढनी होगी ... गढते आयें हैं.... सत्ता का कोई भी प्रतिनधि या संस्थान अपना ही उल्लू सीधा करेगा .... उनसे उम्मीद पालने से अच्छा है नाउम्मीद हो जाना.

Sunday, January 8, 2012

रंगमंच का सबसे बड़ा जलसा, नेपथ्य में हिन्दी प्रदेश



दिल्ली में आज से भारत रंग महोत्सव शुरू हो गया है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के तत्वावधान में आयोजित होने वाला यह समारोह रंगमंच का सबसे बड़ा नाट्य महोत्सव है। लेकिन इस समारोह में उस नगर की कोई हिस्सेदारी नहीं है जहां राज बिसारिया, मुद्राराक्षस, उर्मिल कुमार थपलियाल, सूर्य मोहन कुलश्रेष्ठ जैसे बड़े रंगकर्मी और भारतेन्दु नाट्य अकादमी है। यही नहीं कई नाट्य संस्थाओं को केन्द्र सरकार द्वारा रंगमण्डल का वेतन अनुदान मिलता है और आए दिन नाट्य प्रस्तुतियां होती हैं।

भारंगम की आयोजक संस्था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाद देश का दूसरा सबसे बड़ा नाट्य प्रशिक्षण संस्थान भारतेन्दु नाट्य अकादमी लखनऊ में है। यहां प्रतिवर्ष कई रंगकर्मी प्रशिक्षण प्राप्त करके निकलते हैं। संगीत के साथ ही नाटक को प्रोत्साहित करने वाली उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी का मुख्यालय भी इसी नगर में स्थित है। दर्पण, इप्टा, नीपा, मंचकृति, यायावर जैसी कितनी ही नाट्य संस्थाएं रंगमंच पर सक्रिय हैं लेकिन फिर भी इस नगर के रंगकर्म की राष्ट्रीय स्तर पर पहचान नहीं बन पा रही है। भारंगम में 60 से अधिक नाट्य प्रस्तुतियां हो रही हैं। मगर पिछले कुछ सालों से लखनऊ और उत्तर प्रदेश का इस उत्सव में उस प्रकार प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है, जिस प्रकार बंगाल, केरल, गुजरात, महाराष्ट्र या मणिपुर का होता है।

स्तर ऊंचा करना होगा: कुलश्रेष्ठ
भारंगम की चयन समिति के सदस्य व भारतेन्दु नाट्य अकादमी के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ रंगकर्मी सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि इस वर्ष उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश मिलाकर पूरे हिन्दी प्रदेश का प्रतिनिधित्व ही निराशाजनक है। वास्तव इन क्षेत्रों में जो रंगकर्म हो रहा है उनका स्तर इस अनुकूल नहीं था कि उन्हें भारंगम में स्थान मिल पाता। इससे यह स्पष्ट है कि हिन्दी प्रदेश में अच्छा रंगकर्म नहीं हो रहा है। ऐसा नहीं है कि लखनऊ के साथ भारंगम में कोई अन्याय हो रहा है बल्कि सच्चाई यह है कि हमें लखनऊ के रंगकर्म के स्तर को बढ़ाना होगा।

बदल रहा भारंगम का परिदृश्य : थपलियाल
संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित वरिष्ठ नाटककार एवं निर्देशक उर्मिल कुमार थपलियाल कहते हैं कि शुरू में तो लखनऊ का प्रतिनिधित्व होता था लेकिन अब प्रतिनिधित्व घटा है। वास्तव में भारंगम का परिदृश्य ही बदल रहा है और विश्वव्यापी रंगकर्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, स्थानीयता से जुड़ी प्रस्तुतियों का महत्व घटा है। अगर लखनऊ में अच्छा काम नहीं हो रहा तो यहां के रंगकर्मियों को नाट्य लेखन और निर्देशन के लिए संगीत नाटक अकादमी जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड कैसे मिलते। यह नहीं कहा जा सकता कि लखनऊ की सारी प्रस्तुतियां अच्छी नहीं हैं। कुछ अच्छा काम तो हो रहा है, उसे शामिल किया जा सकता है।

अनुदान बढ़ा, स्तर घटा : राजेश कुमार
‘गांधी और अंबेडकर’ जैसे चर्चित नाटक के लेखक राजेश कुमार कहते हैं कि लखनऊ का रंगमंच राष्ट्रीय रंगमंच का हिस्सा क्यों नहीं बन पा रहा है यह विचारणीय प्रश्न है। इस बार भारंगम में रवींद्रनाथ टैगोर पर कई नाटक हो रहा है। हमारे नगर की नाट्य संस्थाओं को टैगोर की कृतियों पर आधारित नाटकों के लिए अनुदान मिले लेकिन ये प्रस्तुतियां चयनकर्ताओं को प्रभावित नहीं कर सकीं। एक समय था जब नाट्य संस्थाएं पैसे का रोना रोती थीं लेकिन आज खूब अनुदान मिल रहा है। राजधानी में होने वाले 80 फीसदी नाटक अनुदान से हो रहे हैं लेकिन आज स्तर घटता जा रहा है। किसी समय लखनऊ के ‘रामलीला’, ‘आला अफसर’, ‘हरिश्चन्नर की लड़ाई’ जैसी नाट्य प्रस्तुतियों ने राष्ट्रीय स्तर पर लोगों को चौंकाया था, आज वह बात नहीं दिखती है।

वे वेतनशुदा अभिनेता कौन हैं
राजधानी में ऐसी कई संस्थाएं हैं जिन्हें केन्द्र सरकार के संस्कृति विभाग से रंगमण्डल का वेतन अनुदान मिलता है। इनमें जितेन्द्र मित्तल, ज्ञानेश्वर मिश्र ज्ञानी, प्रभात कुमार बोस की अगुआई वाली संस्थाएं शामिल हैं। इस लिहाज से राजधानी में करीब 35-40 ऐसे अभिनेता हैं जो बकायदा वेतन पाते हैं। लेकिन ये कौन लोग हैं, ये किस प्रकार का पेशेवर काम कर रहे हैं, राष्ट्रीय स्तर पर इनके बारे में लोगों की क्या राय है, यह कोई नहीं जानता। प्रसिद्ध रंगकर्मी राज बिसारिया और युवा रंगकर्मी आनंद प्रहलाद की संस्थाओं के लिए भी इस वर्ष वेतन अनुदान स्वीकृत हुआ है।

पूर्व में हुआ है प्रतिनिधित्व
वैसे पूर्व में कई बार लखनऊ की नाट्य संस्थाओं की प्रस्तुतियां भारंगम में हिस्सा ले चुकी हैं। नीपा चार बार भारंगम में जा चुकी है। मंचकृति, दर्पण की प्रस्तुतियां भी भारंगम में हो चुकी हैं। राज बिसारिया, उर्मिल कुमार थपलियाल, सूर्यमोहन कुलश्रेष्ठ, पुनीत अस्थाना, जितेन्द्र मित्तल के निर्देशन में इस समारोह में कई नाटक हो चुके हैं। दर्पण ने वर्ष 2008 में ब्रेख्त पर आधारित ‘हमारे समय में तुम’ का मंचन किया था।

(अमर उजाला, लखनऊ 8 जनवरी से साभार)

Friday, January 6, 2012

14वें भारंगम की शुरुआत कल मणिपुर के रंग बयान से


रानावि द्वारा आयोजित इस बार के भारतीय रंग महोत्सव में मणिपुर के पांच नये-पुराने निर्देशकों के नाटकों को देखने का अवसर मिलेगा. 14वें रंग महोत्सव की शुरुआत भी 8 जनवरी को भारत के दिग्गज मणिपुरी निर्देशक रतन थियम की प्रस्तुति ‘द किंग ऑफ डार्क चैम्बर - राजा’ से होगी. 15 दिनों तक चलने वाले इस रंग महोत्सव में देसी-विदेशी कुल 26 भाषाओं के 96 नाटकों का मंचन किया जाएगा. इसमें 16 विदेशी नाटक भी शामिल हैं. कुल नाटकों में से 17 नाटक रविंद्रनाथ टैगोर की जबकि 6 नाटक शेक्सपियर की कृतियों पर आधारित होंगे. पोलैंड को इस वर्ष महोत्सव में फोकस कंट्री के तौर पर शामिल किया गया है. पिछले वर्ष दक्षिण अफ्रीका बतौर फोकस कंट्री शामिल हुआ था. विदेशी नाटकों के वर्ग में पहली बार टर्की अपनी रंगमंचीय प्रस्तुति करेगा. इसी तरह, देशी भाषाओं में पहली बार संथाली और तुलु भाषा के नाटकों को देखने का अवसर दर्शकों को मिल सकेगा.

मणिपुर के जो पांच नाटक समारोह में होनेवाले हैं, वे हैं - रतन थियम का ‘द किंग ऑफ डार्क चैम्बर - राजा’ उद्घाटन समारोह में कल 8 जनवरी को, लोइतोंग्बम परिंगंबा लिखित एवं निर्देशित ‘मिराज’ 10 जनवरी को, गोशे मिताइ के आदिवासी नाट्य ‘लोइका लोइकुम’ का मंचन 13 जनवरी, को हेसनेम तोंबा का ‘हंगरी स्टोन’ 14 जनवरी को और निंग्थोजा दीपक का ‘सरेंडर’ 17 जनवरी को.

इन नाटकों और नृत्य नाटिकाओं में फोक, ट्रेडिशनल, मॉर्डन, इंप्रोवाइजेशन जैसी कई स्टाइल देखने को मिलेंगी. हेनरिक इबसन और शेक्सपियर जैसे नाटककारों के नाटक आपको कंटेपरेरी या इंडियन स्टाइल में देखने को मिलेंगे, तो छोटी कहानियां, उपन्यासों, ऐतिहासिक, किस्से-कहानियों पर डायरेक्टर्स की खास पकड़ भी दिखेगी.

राजनीतिक व्यथाओं से प्रभावित 14 दूसरे देशों के नाटकों को भी दिखने का चांस यहां होगा. इसमें यूके से शिमेल्पनीज का ‘द गोल्डन ड्रैगन’, इटली से ज्यूले वर्ने का ‘ट्वेंटी थाउजेंड लीग्स अंडर द सी’, तुर्की से यूरीपाइड्स का ‘ऐंटीगॉन’, इजराइल से ‘स्टार्टिंग ओवर’ शामिल हैं। पाकिस्तान से दो प्रोडक्शन भी आपको भाएंगे - अनवर जाफरी का ‘इंशा का इंतजार’ और मदीहा गौहर का ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’. सेक्स वर्कर्स, फिजिकली चैलेंज्ड और बौने कलाकार भी कई गंभीर मुद्दों के साथ मंच पर उतरेंगे.

फेस्ट में पोलिश थिएटर को खास जगह दी गई है. इनमें आलोचनात्मक थिएटर ‘इन द नेम ऑफ जैकब एस’ और ‘ग्रोतोवस्की - एन अटेंप्ट टु रिट्रीट’ शामिल है. वहीं, महिला के अनुभव को दिखाता ‘कोरस ऑफ वुमेन’ फेस्ट की खास पेशकश मानी जा रही है. एक शानदार एग्जिबिशन भी आपकी पोलिश थिएटर से मुलाकात कराएगी.

रानावि की डायरेक्टर डॉ अनुराधा कपूर ने बताया कि इस साल कुल 400 नाटकों में 96 नाटकों को भारंगम के लिए चुना गया है. जिनमें कई सामाजिक मुद्दों पर केंद्रित नाटक हैं, जो संथाली, तुलू, मिजो जैसी दूर दराज के क्षेत्रों से चुने गए हैं. यहां सीमा बिस्वास, साई परांजपे, सौरभ शुक्ला सहित कई जाने-माने रंगकर्मी दर्शकों के बीच अभिनय करते दिखेंगे. इस साल रानावि के साझा शहर के रूप में अमृतसर को शामिल किया गया है, जिसमें 11 भारतीय और 7 अंतरराष्ट्रीय नाटकों का मंचन होगा.

एजेंसी और रंगवार्ता डेस्क

Wednesday, January 4, 2012

जिनसे बढ़ा मराठी रंगमंच


दीनानाथ मंगेशकर, इस नाम के बारे में आज का शायद ही कोई युवा झट से बता पाए। लेकिन उनके पांच बच्चों के नाम आज भारतीय फिल्मोद्योग के जरिए विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। लता मंगेशकर, मीना मंगेशकर, आशा भोसले, उषा मंगेशकर और पुत्र हृदयनाथ मंगेशकर के पिता दीनानाथ मंगेशकर पिछली शताब्दी के आरंभिक वर्षो में मराठी रंगमंच के एक सुपरिचित हस्ती थे।

अपने जमाने में मास्टर के रूप में मशहूर दीनानाथ मंगेशकर का जन्म गोवा के नजदीक मंदिरों के लिए मशहूर एक कस्बा पोंडा में 29 दिसंबर 1900 को हुआ था। उस शहर की विशेषताओं ने शुरू से ही उनके भीतर पारंपरिक कलाओं के संस्कार डाल दिए थे। वे अपने शुरुआती दौर में एक गायक के रूप में जाने गए। उस जमाने में किर्लोस्कर नाटक कंपनी का पूरे महाराष्ट्र में डंका बजता था। इस कंपनी के मालिकों ने किशोरावस्था में ही दीनानाथ मंगेशकर को अपनी संस्था में शामिल कर लिया। यह वही नाटक कंपनी थी, जिसमें बाल गंधर्व जैसे मशहूर रंगकर्मी काम किया करते थे।

दीनानाथ मंगेशकर ने इसी कंपनी में अभिनय करना आरंभ किया। कलकत्ता में उर्दू नाटक ताज-ए-वफा में अभिनय करने के लिए उन्हें काफी सराहना मिली। इस नाटक कंपनी ने द्वितीय विश्वयुद्ध के जमाने में मराठी शैलियों और उर्दू रंगमंच के मिश्रित प्रयोगों से जो लोकप्रियता अर्जित की, उसमें दीनानाथ मंगेशकर के अभिनय से और भी निखार आया।

बाद में दीनानाथ मंगेशकर अपने सहयोगियों के साथ इस नाटक कंपनी से अलग हो गए और उन्होंने संगीत नाटक मंडली बनाई। 1921 में बंबई में इस संस्था का गठन किया गया। इस मंडली की पहली प्रस्तुति शकुंतला थी, जिसे बेहद सराहना मिली। इस नाटक कंपनी की प्रमुख नाट्य भूमिकाएं दीनानाथ स्वयं करते थे।

यह वह जमाना था, जब हिन्दुस्तानी संगीत का गायन और मंचीय गायन को दीनानाथ मंगेशकर ने शास्त्रीय सम्मान दिया। अपने रंगमंचीय जीवन के अलावा उनका झुकाव उस जमाने के नए सिनेमा की ओर भी हो रहा था। उन्होंने बलवंत फिल्म कंपनी की स्थापना की। अपनी मृत्यु के कुछ वर्ष पूर्व ही उन्होंने इस फिल्म कंपनी के माध्यम से भक्त पुंडलिक नामक मराठी फिल्म पूरी की। इस फिल्म में उन्होंने स्वयं एक साधु की भूमिका निभाई थी। इस फिल्म कंपनी के साथ-साथ उनका रंगमंचीय जीवन भी चलता रहा। वे कुछ समय के लिए ऐसे हो गए जैसे पूरी दुनिया उनकी मुठ्ठी में हो। पैसे खूब आते थे, लेकिन फिल्मों के आने के बाद नाटक कंपनियां खत्म होने लगीं। फिर एक दिन वह भी आया जब नाटकों के दर्शक कम ही नहीं खत्म हो गए। ऐसा होने की वजह से दीनानाथ मंगेशकर का आखिरी वक्त बड़ा कठिन गुजरा। इस समय वे बच्चों को पढ़ाकर अपना गुजारा चला रहे थे। पांच बच्चों का साथ और परिवार का बोझ चलाना कठिन हो गया था। आखिर में वे कम समय में ही, मात्र 41 वर्ष की उम्र में 24 अप्रैल 1942 को उनका निधन हो गया। हालांकि उनके निधन के बाद परिवार का सारा बोझ बड़ी बेटी लता मंगेशकर ने उठा लिया। उनकी मृत्यु के बाद उनकी नाटक कंपनी और फिल्म कंपनी दोनों खत्म हो गई। लता ने अपने युवावस्था के दिनों में उनकी स्मृतियों को संजोने का अपने स्तर से प्रयास किया।

दीनानाथ मंगेशकर एक अच्छे गायक के रूप में मराठी रंगमंच की परवर्ती परंपरा में लंबे समय तक जीवित रहे। उनकी गायन शैली का प्रभाव बाद के रंगमंचीय गायकों के ऊपर भी लगातार पड़ा, बाद के लोग उस शैली को अपनाते हुए गर्व महसूस करते थे। उनकी आखिरी रंगमंचीय प्रस्तुति 1933 में सांगली में हुई। ब्रह्मकुमारी नामक इस नाटक की उस जमाने में काफी चर्चा हुई थी। बाद में इसी सांगली में मराठी रंगमंच के लिए समर्पित यह कलाकार आखिरी नींद सो गया। दीनानाथ को मराठी रंगमंच कभी नहीं भूलेगा..।

-रतन

दैनिक जागरण, 1 जनवरी 2012 अंक से साभार

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