RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Sunday, August 26, 2012

भाजपाई विरोध के चलते भोपाल में ‘तमाशा न हुआ’


23 अगस्त, 2012: भारतीय जनता पार्टी की निगाह में जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है, इसका अंदाजा भोपाल की ताजा घटना से लगाया जा सकता है। वहां भारत भवन में रंगमंडल थिएटर उत्सव के दौरान बीते शनिवार की शाम भानु भारती के निर्देशन में ‘तमाशा न हुआ’ नाटक का मंचन था। रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक ‘मुक्तधारा’ पर आधारित इस नाटक में विभिन्न पात्रों के कुछ संवाद भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक को इतने आपत्तिजनक लगे कि उन्होंने उसे राष्ट्रविरोधी तक घोषित कर डाला और मामला उच्चाधिकारियों तक ले जाने की बात कही।

इसके पहले भाजपा ने ‘नील डाउन ऐंड लिक माइ फीट’ नाटक पर भी आपत्ति जताते हुए उसे ‘पवित्र’ भारत भवन में मंचित होने से रोक दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, इसलिए शायद उसके कार्यकर्ताओं को अपने मन-मुताबिक सांस्कृतिक पहरेदारी करने में सुविधा हो सकती है। लेकिन जिस तरह वे ‘तमाशा न हुआ’ नाटक को राष्ट्रविरोधी बता कर उसके खिलाफ वितंडा खड़ा करने में लगे हैं, वह किसी के गले नहीं उतर रहा। यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बार मंचित हो चुका है और हर बार उसकी सराहना हुई है। इसमें ‘मुक्तधारा’ के पूर्वाभ्यास के बहाने गांधीवाद, मार्क्सवाद, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार, यांत्रिकता, मनुष्य, प्रकृति और विज्ञान के बीच संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना निर्देशक और पात्रों के बीच गंभीर बहस होती है। कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति ऐसी बहस को एक स्वस्थ और जनतांत्रिक समाज की निशानी मानेगा। लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक पहरुओं को केवल एक बात याद रह जाती है कि इसमें एक जगह भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बांध और चिनाब नदी पर बगलिहार पनबिजली परियोजनाओं के कारण बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों के सामने पैदा होने वाले संकट की चर्चा की गई है। सिर्फ इसी वजह से भाजपा ने इस नाटक को यहां के बजाय पाकिस्तान में मंचित करने की सलाह दे डाली।

विचित्र है कि जिन बहसों और बातचीत से एक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मजबूत होती है, वे भाजपा के अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी लगती हैं। सवाल है कि क्या वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहस के लिए कोई जगह नहीं होगी? अब तक आमतौर पर आरएसएस से जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या श्रीराम सेना जैसे कट््टरपंथी धड़े ऐसी असहिष्णुता दर्शाते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों की प्रदर्शनी से लेकर कला माध्यमों में मौजूद प्रगतिशील मूल्य उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा नजर आते हैं और उनका विरोध करने के लिए वे हिंसा का सहारा भी लेते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि खुद भाजपा भी भावनात्मक मसलों को अपनी राजनीति चमकाने के लिहाज से फायदेमंद मानती रही है, इसलिए उन्हें मुद्दा बनाने का वह कोई मौका नहीं चूकती। सत्ता में आने पर अपने एजेंडे पर अमल करना उसके लिए और सुविधाजनक हो जाता है।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में संस्कृति की रक्षा के नाम पर सभी सरकारी और स्थानीय निकायों में ‘वंदे मातरम’ का गायन अनिवार्य कर दिया गया है, स्कूल-कॉलेजों में फैशन शो पर पाबंदी लगा दी गई है और करीब एक दर्जन शहरों को पवित्र घोषित करके वहां खाने-पीने की चीजों को लेकर कई तरह के फरमान जारी किए गए हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में खुद को एक ताकतवर पक्ष मानने वाली भाजपा को यह सोचना चाहिए कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना उसका पहला दायित्व है।

जनसत्ता, दिल्ली से साभार

Sunday, August 12, 2012

आईना ढूंढे है अपना चेहरा


संजय कृष्ण
एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं। जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है।
रांची के रंगमंच पर बात करना आसान नहीं। रांची की जो बनावट और बुनावट है, संस्कृतियों का जो घालमेल है, उससे रांची का कोई अपना चेहरा नहीं बनता। आठ दशकों से ऊपर रंगमंच की यात्र में न जाने कितने पड़ाव आए, लेकिन कोई एक चेहरा मुक्कमल नहीं बन पाया है, जबकि आधा दर्जन नाट्य संस्थाएं रह-रह कर सक्रिय रही हैं। आज भी कुछ संस्थाएं सक्रिय हैं, जो रह-रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
पांच-सालों के दौरान 2012 का यह साल इस मामले में काफी खुशकिस्मत रहा। अखड़ा ने मार्च में तीन दिनी नाट्योत्सव का आयोजन कराया। अजय मलकानी की संस्था युवा रंगमंच ने भी जून में तीन दिनों तक वैरागी मन हारा का मंचन किया। केंद्रीय पुस्तकालय में रंगवार्ता ने विभारानी की एकल प्रस्तुति का आयोजन कराया, लेकिन अजय मलकानी की प्रस्तुति में दर्शकों का टोटा रहा तो केंद्रीय पुस्तकालय में पहली बार लोगों ने सौ-सौ रुपये सहयोग देकर नाटक देखा। एक्सआइएसएस के हॉल में भी अखड़ा के तीन दिनी उत्सव में दर्शकों की कोई कमी नहीं रही। क्यों? रंगकर्मी बार-बार दर्शकों का रोना रोते हैं।
यह समस्या पूरे हिंदी पट्टी में है। रांची इससे अछूती नहीं है, लेकिन यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर एक नाटक को देखने के लिए लोग पैसा देकर जाते हैं, दूसरे में नहीं। मलकानी ने तीन दिनों तक एक ही नाटक का मंचन किया। लेकिन उसका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया। दूसरे, जो विषय था, वह अब अप्रासंगिक है। जो दर्शकों को अपनी ओर खींच नहीं पाया।
रांची में दर्शकों की कमी नहीं हैं, क्योंकि रांची के एक कोने में विभा रानी के प्ले को देखने के लिए पूरा हॉल भर जाता है। एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं।
जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है। पिछले दिनों मजलिस ने मेकॉन में एक नाटक पद्मा नदीर मांझी का मंचन कराया था। कोलकाता से टीम आई थी। आयोजक उदयन बसु ने बताया कि देखने के लिए पास सुविधा दी गई है, लेकिन सबको हिदायत भी दी गई है कि वे अपने साथ किसी और को लेकर न आएं।
उन्होंने चार सौ पास बांटे थे और इतनी ही बैठने की व्यवस्था की गई थी। नाटक संध्या छह बजे शुरू होने वाला था और हॉल सवा छह बजे भर गया। नाटक मछुआरों की जिंदगी को उकेरता है। क्या हिंदी का रंगमंच अपने लोगों की आवाज बन पाया है? क्या वह अपने लोगों को अपने साथ जोड़ पाया है? हिंदी लेखकों-आलोचकों की तरह वायवीय होकर अपना चेहरा नहीं ढूंढ सकता है।

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