RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Friday, December 30, 2011

लोकतांत्रिक शक्तियां एकजुट हों - इप्टा


भिलाई घोषणा पत्र, नई कार्यकारिणी का गठन और विविध सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के साथ इप्टा का 13वां राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न

तीन दिवसीय आयोजन के आखिरी दिन बुधवार की सुबह विभिन्न इकाइयों ने ट्विन सिटी के अलग-अलग हिस्सों में नुक्कड़ नाटक किया और जन गीत पेश किए। जम्मू कश्मीर इप्टा ने नेहरू नगर पार्क भिलाई और सफदर हाशमी चौक दुर्ग में ‘जागो बंधु जागो रे भइया’, पंजाब इप्टा ने नेहरू हाउस और आजाद चौक रामनगर में ‘खड्डा’, बोरिया गेट के पास आगरा इप्टा ने अपना नाटक ‘हक के लिए’, बिहार इप्टा ने नेहरू हाउस के शरीफ अहमद मुक्ताकाशी मंच में ‘ए स्टूपिड किंग इन द सिटी’, झारखंड इप्टा ने सेक्टर-7 मार्केट में सफदर हाशमी लिखित ‘राजा का बाजा’ खेला। आजमगढ़ इप्टा ने आकाशगंगा सुपेला और चौहान काम्पलेक्स में लोकनृत्य प्रस्तुत किया। महाराष्ट्र इप्टा ने जूते को आधार बना व्यंग्यपूर्ण नाटक खेला। नेहरू हाउस में असम के कलाकार शिरोमोनी डोले ने अपने मुंह में चम्मच लेकर रेत से एक कागज पर चित्र बनाया। शाम 7 बजे से कला मंदिर सिविक सेंटर में छत्तीसगढ़ इप्टा द्वारा लोकगीत असम इप्टा द्वारा झूमर नृत्य, बिहू एवं सत्रीय नृत्य प्रस्तुत किया गया। आजमगढ़ इप्टा द्वारा लोकनृत्य, पंजाब इप्टा द्वारा मालवयी गिद्दा, जम्मू-कश्मीर इप्टा द्वारा डोगरी नृत्य एवं कश्मीरी नृत्य और राजस्थान इप्टा द्वारा कालबेलिया नृत्य प्रस्तुत किया गया। नेहरू हाउस में बिहार इप्टा ने ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ नाटक प्रस्तुत की प्रस्तुति दी। क्लैरिनेट पर माधव ने ‘ए मेरे वतन के लोगों’ और रंभा ने ‘नफस-नफस कदम-कदम’ पेश किया। पश्चिम बंगाल के कलाकारों ने बाउल गीती और असम के कलाकारों ने जन गीत प्रस्तुत किए।

हंगल को फिर से इप्टा की कमान

94 साल के अभिनेता अवतार कृष्ण हंगल को भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) ने दूसरी बार तीन साल के लिए अध्यक्ष चुन लिया है। भिलाई में बुधवार की शाम हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में देश भर के प्रतिनिधियों के बीच से नए पदाधिकारी चुन लिए गए। छत्तीसगढ़ से दो प्रतिनिधियों को ओहदा दिया गया है। आज ही भिलाई घोषणा पत्र जारी कर दिया गया। नेहरू सांस्कृतिक सदन सेक्टर-1 में 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन व सांस्कृतिक महोत्सव के अंतिम दिन नई राष्ट्रीय कार्यकारिणी का चुनाव हुआ। जिसमें अध्यक्ष श्री हंगल के अलावा, कार्यकारी अध्यक्ष रणवीर सिंह, महासचिव जितेंद्र रघुवंशी, उपाध्यक्ष-एमएस सथ्यू, शमिक बंदोपाध्याय, पी. गोपाल कृष्णन, जावेद सिद्दीकी, डॉ. एम. नरसिंह, अंजन श्रीवास्तव, के. प्रताप रेड्डी, सीताराम सिंह, सचिव राकेश, हिमांशु राय, तनवीर अख्तर, अमिताभ चक्रबर्ती, पी. संबा शिव राव, सह-सचिव डॉ. ऊषा आठवले, राजेश श्रीवास्तव (दोनों छत्तीसगढ़ से), फिरोज अशरफ खान, मनीष श्रीवास्तव, प्रमोद भुइयां व कोषाध्यक्ष ओम ठाकुर चुने गए। महासचिव जितेंद्र रघुवंशी की रिपोर्ट पर चर्चा के बाद उपाध्यक्ष शमिक बंदोपाध्याय ने भिलाई घोषणा पत्र जारी किया गया, जिसमें धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्य के लिए काम कर रही शक्तियों को एकजुट करने का आह्वान किया गया।

‘मदर’ को जी रहे हैं 33 साल से
मैक्सिम गोर्की लिखित क्लासिक उपन्यास ‘मदर’ को मंच व नुक्कड़ व मंचीय नाटकों में पिछले 33 साल से जीवंत कर रहे हैं गौतम मुखर्जी ने। इतने लंबे अरसे से एक महिला पात्र को निभा रहे गौतम का कहना है कि इसे स्त्री या पुरुष पात्र के नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए बल्कि ‘मदर’ यानि मां तो इस सृष्टि का आधार है। श्री मुखर्जी का दावा है कि वह पूरी दुनिया में एकमात्र कलाकार हैं जिन्होंने अभिनय के हर माध्यम में ‘मदर’ को जिया है। पिछले साल ‘मदर’ पर बांग्ला फिल्म भी बन चुकी है,जिसमें भी मुख्य भूमिका उन्हीं की है। मूलतरू उत्तर 24 परगना जिले के रहने वाले और इप्टा के एक अंग के तौर पर ‘शौभिक सांस्कृतिक चक्र’ संगठन चला रहे गौतम मुखर्जी ने बताया कि दो साल बाद उन्हें इप्टा से जुड़े पूरे 50 साल हो जाएंगे।

चौलेंजिंग तो है मणिपुर में थियेटर करना - पी. खगेंद्र सिंह
नार्थ इस्ट के संवेदनशील राज्य मणिपुर के हालात इस कदर बिगड़े हुए हैं कि सामाजिक-आर्थिक नाकेबंदी की वजह से आम लोगों का आना-जाना बंद है। मणिपुर इप्टा की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि प्रांतीय महासचिव पी. खगेंद्र सिंह हवाई सफर की वजह से रायपुर होते हुए भिलाई पहुंच पाए हैं। खगेंद्र का कहना है कि नाकेबंदी तो आज की बात है, मणिपुर इसके पहले से ही विपरीत आंतरिक हालात झेल रहा है। ऐसे में वहां थियेटर हो चाहे कोई भी दूसरी सामान्य गतिविधियां, सब कुछ वहां चौलेंजिंग है। मणिपुर चूंकि सांस्कृतिक तौर पर एक समृद्ध राज्य है इसलिए वहां थियेटर को लेकर बेहद जागरूकता है। खगेंद्र के मुताबिक फिलहाल वहां विधानसभा चुनाव घोषित होने की वजह से ज्यादातर लोग चुनाव में व्यस्त हैं। इसलिए फिलहाल स्थिति थोड़ी सामान्य है। हालांकि अभी भी वहां पेट्रोल 200 रुपए लीटर मिल रहा है।

भूपेन-मामोनी के जाने से सूना हो गया हमारा असम - मीनाक्षी डेका
असम इप्टा से आई मीनाक्षी डेका जीवटता की अद्भुत मिसाल है। शादी को साल नहीं बीता था कि हादसे में पति चल बसे। फिर कोख में पल रहे बच्चे को परवान चढ़ाने और अपना जीवन संघर्ष जारी रखने में मीनाक्षी ने कोई कसर नहीं छोड़ी। आज वह असम दूरदर्शन-आकाशवाणी की स्थापित कलाकार है। संगीत उनकी रग-रग में इस कदर बसा है कि वो बातें भी संगीत की बंदिशों की तरह करती है। भिलाई आते वक्त ट्रेन में कुछ असामाजिक तत्वों से झड़प हुई तो मीनाक्षी ने उन्हें बाउल गीत सुना दिया। बस फिर क्या था झड़प खत्म। बुधवार को मीनाक्षी यह सब बताते हुए गा भी रही थी और मुस्कुरा भी रही थी। भूपेन हजारिका और मामोनी राइसोम (इंदिरा) गोस्वामी के बेहद करीब रही मीनाक्षी के पास इन लोगों से जुड़े ढेर सारे संस्मरण और गीत हैं। ये सब बताते हुए वह कुछ उदास होकर कहती हैं इस साल ने हम लोगों को सूना कर दिया। दोनों के जाने का सदमा मैं भूलना चाहती हूं इसलिए यहां भिलाई तुरंत चली आई।

(दैनिक भास्कर, भिलाई से साभार)

Tuesday, December 27, 2011

राजनीति और मीडिया ने अपनी प्रतिष्ठा खोई है - इप्टा



भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के 13 वें राष्ट्रीय सम्मेलन और सांस्कृतिक महोत्सव का दूसरा दिन नुक्कड़ नाटकों और बहसों के नाम रहा। शाम को विविध भाषी रंगमंच की छटा शहर के अलग-अलग रंगमंचों पर बिखरी।

सुबह नेहरू हाउस के शरीफ अहमद मुक्तांगन में इप्टा जेएनयू नई दिल्ली के साथियों ने नुक्कड़ नाटक ‘खतरा’ खेला। यह नाटक बयान करता है कि किस प्रकार शासन और प्रशासन अपनी नीतियों और हरकतों से संविधान में दिए अधिकारों की अवहेलना कर रहा है। इसके पहले सुबह के सत्र की शुरुआत झारखंड इप्टा के जन गीत से हुई। प्रतिनिधि सत्र का संचालन राकेश ने किया। मंच पर महासचिव जितेंद्र रघुवंशी , रणवीर सिंह, प्रसन्ना, शमीम फैजी और हिमांशु राय ने। इस सत्र में इप्टा की विभिन्न इकाइयों के प्रतिनिधियों- प्रमुख वक्ताओं में के.प्रताप रेड्डी(आंध्र प्रदेश), विकास (दिल्ली), एम. अधि रमन (पुडुचेरी), शैलेंद्र (झारखंड) और अमिताभ चक्रवर्ती (पश्चिम बंगाल) आदि ने अपनी बातें रखीं। दोपहर के सत्र में तीन राष्ट्रीय संगोष्ठी अलग-अलग विषयों पर हुई। रंगमंच विषय पर प्रसन्ना, रणवीर सिंह, राकेश, डॉ. जावेद अख्तर और प्रभाकर चौबे ने अपनी बात रखते हुए कहा कि नाटक अभिनय प्रधान है और फिल्में दृश्य प्रधान। नुक्कड़ नाटक अगर नहीं हो रहे हैं तो सिर्फ इसलिए क्योंकि हम कर नहीं रहे हैं। अगर हम दर्शकों के बीच नुक्कड़ नाटक लेकर जाएंगे तो लोग जरूर देखेंगे। फिल्म एवं मीडिया पर हुई संगोष्ठी में जितेंद्र रघुवंशी, के. प्रताप रेड्डी, सुधीर, अजय आठले, विनीत तिवारी व समीक बंदोपाध्याय ने कहा कि आज के समय में राजनीति और मीडिया ने अपनी प्रतिष्ठा खोई है। ऐसे समय में जरूरत समानांतर मीडिया खड़ा करने की है, जो लोगों के संघर्ष के साथ खड़े हो सके। नृत्य एवं संगीत विषय पर हुई संगोष्ठी में सीताराम सिंह (बिहार), उपासना तिवारी, मणिमय मुखर्जी, आशुतोष मिश्रा, मधुर दामले, अतीक राम दास और बेदा राकेश ने इस बात पर जोर दिया कि संगीत एवं नृत्य की विधा को मात्र शास्त्रीय विधानों से निकालकर समस्यामूलक बातों को नृत्य एवं संगीत के माध्यम से आम जन की समझ के लायक बनाकर प्रस्तुत करे। गोष्ठी के दौरान तमिलनाडु से आई वनिला ने बताया कि उनके राज्य में इप्टा के अंतर्गत महिलाओं की तादाद पुरुषों से कहीं ज्यादा है। तमिलनाडु की कुल 12 इकाइयों में 6 हजार सदस्य हैं, जिनमें महिलाओं की संख्या 5 हजार के करीब है। गोष्ठी में उन्होंने रंगमंच की समस्याओं के कारण कलाकारों को हो रही दिक्कतों का खुलासा करते हुए सुझाव दिया कि इप्टा के अंदर संचार को और भी बेहतर बनाने की जरूरत है। शाम को विभिन्न भाषाओं के सांस्कृतिक कार्यक्रम हुए।



भाषाई रंगमंच की छटा बिखेरी, वाहवाही मिली छाया नाटक को

मंगलवार की शहर इस्पात नगरी के विभिन्न हिस्सों में भाषाई रंगमंच की छटा बिखरी। हबीब तनवीर कला मंच (नेहरू हाउस) में मध्यप्रदेश इप्टा का छाया नाटक (शैडो प्ले) दर्शकों ने काफी पसंद किया। इसमें परदे पर उभरती आकृतियों के माध्यम से अन्याय के खिलाफ स्त्री की एकजुटता को दर्शाया गया। राजस्थान इप्टा ने जन गीत पेश किए। इसके बाद ‘तमाशा’ में गोपीचंद का गायन और उरई इप्टा ने बुंदेली लोक गीत प्रस्तुत किया। मध्यप्रदेश इप्टा ने जन गीत पेश किए।

महाराष्ट्र धूलिया से आए इप्टा के कलाकारों ने चक्की पीसती महिलाओं के लोकगीतों की प्रस्तुति दी। जगन्नाथ मंदिर सेक्टर-4 में ओडीशा इप्टा का कार्यक्रम नहीं हो पाया। कालीबाड़ी सेक्टर-6 में पश्चिम बंगाल इप्टा के कलाकारों ने रंग जमाया। रविंद्र संगीत के बाद भूपेन हजारिका को श्रद्धांजलि देते हुए समूह गीत प्रस्तुत किए गए। गोकुल दास बाऊल का बाउल नृत्य, अमित पाल का मूक अभिनय, निर्देशक गौतम मुखर्जी का नाटक ‘कैनो ना मानुष’ यानि क्यों कि हम मनुष्य हैं की प्रस्तुति हुई।

नवेंदु राय और अतिक्रम दास के निर्देशन में गीत प्रस्तुत किए गए। गुरुनानक हायर सेकंडरी स्कूल सेक्टर-6 में ‘एक शाम पंजाब के नाम’ में पंजाब व हिमाचल इप्टा से आए कलाकारों की टीम ने रंग जमाया। इसमें शहीद भगत सिंह पर आधारित ओपेरा व नाटक ‘जिप्सी’, पटियाला से 30 महिलाओं का मालवा गिद्दा , साथ ही भांगड़ा व पंजाबी लोक संगीत भी हुआ। मुख्य अतिथि बीएसपी के ईडी फाइनेंस एसके गुलाटी थे व अध्यक्षता गुरुनानक स्कूल के चेयरमैन तारा सिंह ने की।

आयोजन में पंजाबी पंचशील समाज, गुरु गोविंद सिंह स्टडी सर्किल, नौजवान सिख्र सभा, हिमाचल कल्चरल एसोसिएशन, सिख्र यूथ फोरम और समस्त पंजाबी कलाकार संघ दुर्ग-भिलाई का सहयोग रहा। इसी तरह भिलाई क्लब में झारखंड इप्टा ने छाउ नृत्य व अन्य सांस्कृतिक प्रस्तुति दी। मंगलवार की देर रात कैंप व खुर्सीपार में तेलुगु नाटक का मंचन किया गया।

(दैनिक भारूकर से साभार)

Saturday, December 17, 2011

भिखारी को आलोचकों ने नहीं जन ने लोकप्रिय बनाया



बिदेसिया लोक महाकाव्य के प्रणेता की 125वीं जयंती की शुरुआत पर विशेष

- अश्विनी कुमार पंकज-

भारत की हिंदी पट्टी में सांस्कृतिक रूप से कलाओं को सम्मान नहीं है. सांस्कृतिक रूप से ‘विपन्न’ दृष्टि वाले इस समाज में विभिन्न कलाएं और कलाकार विद्रोही होकर ही अपने लिए स्पेस बनाते रहे हैं. इनमें 18 दिसम्बर 1887 को जन्मे भिखारी ठाकुर एक ऐसे सार्वकालिक विद्रोही कलाकार हैं जिन्होंने एक नई रंगशैली को लोकप्रिय बनाते हुए कला और कलाकार दोनों की गरिमा स्थापित की. अपने समय में अनेक नाटकों से समाज की वर्जनाओं को तोड़ते हुए उन्होंने समूची हिंदी पट्टी में व्याप्त सामंती संस्कारों पर प्रहार किया और कला के सामाजिक सरोकारों को सोद्देश्य रंगकर्म से रेखांकित किया. 10 जुलाई 1971 को उनका देहांत हुआ. यदि मान लिया जाए कि वे 1960 तक सक्रिय रहे होंगे तो आज 50 साल बाद भी हिंदी पट्टी में कलाओं के प्रति समाज के रवैये में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है. कलाकर्म अब भी जीविका के लिहाज से एक ‘अनुत्पादक’ काम माना जाता है. टीवी चैनलों पर होने वाले रीयलिटी कार्यक्रमों की वजह से नाच-गानों में भागीदारी जरूर बढ़ी है. फिर भी दिखावे के ग्लैमरस शोज के बाहर गीत-संगीत और नाट्य अध्ययन संस्थानों व समूहों में सन्नाटा ही पसरा हुआ है.

कलाएं अपने आंतरिक चरित्र में मूलतः बाजार की अपेक्षा समाजोन्मुखी होती हैं. कमर्शियल कंसर्ट, थिएटर, टीवी और सिनेमा उन्हीं कला उत्पादों को प्रोत्साहित करते हैं जो बिकने लायक होती हैं. बिकने लायक कौन है इसे बाजार तय करता है. वह बाजार को नियंत्रित करनेवाली शक्तियों के हितों के अनुरूप मनोरंजन का फार्मूला गढ़ता है और उन कलाकारों को प्रमोट करता है जो उसके फार्मूले के तहत कलाकर्म करने लगते हैं. इस संदर्भ में भिखारी ठाकुर एक ऐसी मिसाल हैं जिन्होंने न सिर्फ बाजार के फार्मूले का प्रतिकार किया बल्कि इस अवधारणा को फिर से प्रतिष्ठित भी किया कि कला और कलाकार की स्वायत्तता सर्वोपरि है जो जन मूल्य आधारित होती है. पर हम बाजार के आक्रमण से घिरे होने के बावजूद भिखारी को सिर्फ एक महान गंवई लोक कलाकार के रूप में याद करते हैं. जन संस्कृति आधारित कलात्मक मूल्यों और विचारों के लिए नहीं, जिसके कारण वे जीते जी एक रंगशैली बन जाते हैं. हिंदी क्षेत्र में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि लेखक-कलाकार के मरने के बाद ही उसका मूल्यांकन होता है. उसे लोकप्रियता मिलती है और उसके न होने की कमी अखरती है. दरअसल इस मिथ को बहुत चालाकी से उन अकर्मण्य कलाकारों, लेखकों और आलोचकों ने गढ़ डाला है जो सृजनात्मक रूप से जन सक्रिय नहीं होते हैं. वे लोकप्रियता को नकारते हैं क्योंकि लोक को साथ लिए बिना, उसके साथ हुए बिना उन्हें सारी सुविधाएं व लाभ चाहिए. भिखारी जैसे अनेक लोग हैं जो जीते जी ही बगैर सत्ता सहयोग के पॉपुलर हुए. आज भी ऐसे कई नाम हैं जो मीडिया में प्रमुखता से नहीं छपते पर पॉपुलर है.



दरअसल भारतीय रंगदृष्टि सामंती और बाहरी मूल्यों से ग्रसित है. इस दृष्टि में स्त्री, दलित, पिछड़े, आदिवासी आदि वंचित समूहों का स्थान नेपथ्य और सिर्फ परफारमेंस के लिए है. किसी भी परफारमेंस के निर्देशकीय क्षेत्र में जहां कि कथ्य, विचार और सौंदर्यदृष्टि पर विचार होता है, वहां ‘जन’ प्रवेश वर्जित है. भिखारी ठाकुर अपने रंगकर्म और निर्देशकीय भूमिका से खुद भी उस प्रतिबंधित क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और लोगों के लिए भी उसे सुगम बनाते हैं. अपढ़ भिखारी द्विज सामंती विचारों को कलात्मक चुनौती देते हैं, नयी सौंदर्य दृष्टि गढ़ते हैं और इस मिथ को ध्वस्त करते हैं कि कलाकर्म के लिए ‘विद्वान’ होना जरूरी है. उनका जीवन और रंगकर्म बताता है कि विद्वान होने से कहीं ज्यादा जरूरी है जन संस्कृति का शिक्षार्थी होना, उनके सुख-दुख, संत्रास और आनंद में सहभागी बनना. इसलिए भिखारी जब कहते हैं ‘बरजत रहलन बाप मतारी ...’ तो इसका अर्थ महज अभिभावकीय चिंता नहीं है. ‘बाप मतारी’ से ही समाज बनता है और समाज के शासकों की संस्कृति ही, यदि वे सचेत नहीं हैं, तो उनकी संस्कृति होती है. आज भी ‘बाप मतारी’ ही सबसे ज्यादा कलाकर्म की अवमानना करते हैं और बचपन से ही घर-परिवार में कला विरूद्ध माहौल बनाये रखते हैं. भिखारी इस सामंती विचार के खिलाफ चल रहे जन सांस्कृतिक युद्ध में सबसे बड़े योद्धा हैं. वे सिर्फ युद्ध के सिद्धांतकार भर नहीं हैं बल्कि उसके कमांडर भी हैं.

सामाजिक चेतना के अग्रदूत भिखारी ठाकुर ने तत्कालीन समाज की शोषित-पीड़ित, दीन-हीन जनता की दबी चीखों को अपनी नाट्य मंडली के द्वारा नया स्वर दिया। अपने गीतों तथा नाटकों से मनोरंजन के साथ-साथ जन सरोकारों को मुखर अभिव्यक्ति दी। समाज की कुरीतियों, रूढ़ियों, विसंगतियों एवं शोषणकारी तत्वों का लोकमंच से पर्दाफाश किया। सामाजिक बुराईयों पर निर्मम सांघातिक प्रहार किये। लोकरंजक जनहित उनका एकमात्र उद्देश्य था। दहेजप्रथा, बालविवाह एवं बेटी बेचने जैसी सामाजिक कुरीतियों व सामंती मूल्यों के खिलाफ एक जबरदस्त मुहिम छेड़ा। कलयुग प्रेम, भाई विरोध, बेटी बेचवा, विधवा विलाप, गंगा स्नान, पुत्र वध तथा बिदेसिया आदि बहुचर्चित नाटकों के माध्यम से संकुचित रूढ़िग्रस्त और अंधविश्वासी मूल्यों की कलात्मक आलोचना करते हुए ‘बिदेसिया’ लोक महाकाव्य रचा। उन्हें शेक्सपीयर, भारतेंदु और जयशंकर प्रसाद जैसा मानते हुए उपाधियों से विभूषित किया गया. परंतु वे शेक्सपीयर और जयशंकर प्रसाद से बहुत आगे जाते हैं. वे भारतेंदु जैसे भी हैं लेकिन उनसे भी बीस ही पड़ते हैं. बेशक इन तीनों की तरह उनके नाटक किसी क्लासिक भाषा में रचित नहीं हैं पर वे उसी जबान में लिखते हैं और रंगकर्म करते हैं जिसे जनता बोलती है. इसलिए ही वे इन तीनों से ज्यादा लोकप्रियता हासिल करते हैं. शेक्सपीयर, प्रसाद और भारतेंदु को हम उनकी रचनाओं से ज्यादा उनके आलोचकों की वजह से जानते हैं जिन्होंने उन सबको स्थापित करने के लिए सैंकड़ों पुस्तकें और हजारों लेख लिखा. भिखारी किसी आलोचक की वजह से प्रकाश में नहीं आए. आलोचकों ने तो आज भी उनकी ओर से मुंह फेर रखा है. कवि के रूप में भी भिखारी तुलसी, मीरा और कबीर त्रयी की भोजपुरी त्रिवेणी हैं। जनभाषा और जनजीवन के संगम।

यह हिंदी प्रदेश का दुर्भाग्य है कि आज वह साहस भरी बिदेसिया लोकमंचीय परंपरा लगभग दम तोड़ चुकी है। कुछ रंगकर्मियों ने जरूर उनकी शैली को अपने एकाध नाटकों में शामिल कर ख्याति पाई, पर उन्होंने भी बिदेसिया रंगशैली को एक ‘तत्व’ से ज्यादा महत्व नहीं दिया. प्रशिक्षित रंगकर्मियों की नजर भी इस लोकधर्मी परंपरा पर नहीं जाती क्योंकि नाट्य अध्ययन-प्रशिक्षण संस्थानों में भिखारी ठाकुर पाठ्यक्रम से बाहर हैं. सुदृढ़ बुनियाद के बावजूद मौजूदा हालात में रंगमंच जहां आधुनिक, आर्थिक एवं तकनीकी दृष्टि से विकसित हो चुका है, वहीं हमारे रंगकर्मियों का ध्यान इस मरती हुई लोकमंचीय परंपरा की तरफ से उदासीन है। नाट्य संस्थानों से निकले रंगकर्मी मैकबेथ जरूर करते हैं पर भिखारी उनके लिए त्याज्य हैं. भिखारी अब भी सचेत कर रहे हैं कि हम अपनी लोकभाषा तथा लोकशैलियों से कट कर रंगमंच के स्वतंत्र आत्मनिर्भर अस्तित्व का विकास नहीं कर सकते हैं। यदि हिंदी रंगकर्म को बाजार की शर्तो को नकारते हुए आजीविका व पेशेवर आर्थिक आत्मर्भिरता की ओर बढ़ना है तो भिाखरी बनने का सहस करना होगा. हिंदी समाज को भी अपने नजरिये में बदलाव लाने के लिए, अपनी सांस्कृतिक अभिरूचियों के परिष्कार के लिए बिदेसिया के समाजी की टेर सुननी होगी. ‘बाप मतारी’ के बरजने का प्रतिकार ही रंगकर्म व समाज की सौंदर्यदृष्टि को जन संस्कृतिमूलक बना सकता है.

पहली तस्वीर ‘बिदेसिया’ पत्रिका की है जिसका प्रकाशन भिखारी ठाकुर जन्म शताब्दी समारोह 1987 में हुआ था.
दूसरा चित्र रांची में दिसंबर 1987 में आयोजित दो दिवसीय भिखारी ठाकुर जन्म शताब्दी समारोह का है. इस चित्र में प्रो. रामसुहाग सिंह अध्यक्षीय वक्तव्य दे रहे हैं.

Friday, December 16, 2011

रंगमंच में कलाकार बड़ा और छोटा नहीं होता - रंजीत कपूर


धार, इंदौर, 14 दिसंबर 2011: आज भी अमेरिका और कई राष्ट्रों में सिनेमा हॉल के टिकट तो आसानी से मिल जाते हैंए किंतु नाटकों के टिकट कुछ माह पूर्व भी नहीं मिल पाते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत के कुछ हिस्सों में रंगमंच को लेकर स्थिति बहुत चिंताजनक है जबकि यह एक जीवंत कला है। रंगमंच में कलाकार बड़ा और छोटा नहीं होता है। ये बातें जाने-माने रंगकर्मी व निर्देशक रंजीत कपूर ने कहीं।

शर्त और लज्जा से लेकर कई महत्वपूर्ण फिल्मों के लिए श्री कपूर ने संवाद व पटकथा लेखन का कार्य किया है। उन्होंने चर्चा में बताया कि हमारे यहाँ नई पीढ़ी को अभी भी रंगमंच के संस्कार नहीं दिए जा रहे हैं जबकि बेहद जरूरी हैं। फिल्में अच्छी.बुरी सभी तरह की बनती हैं। किस फिल्म को देखा जाए, यह दर्शक को ही तय करना होता है।

खास है नाटक : श्री कपूर ने बताया कि 15 दिसंबर को धार में 'आदमजाद' का मंचन करने जा रहे हैं, वह कई पहलुओं से विशिष्ट नाटक है। न्यूनतम साधन और 9 कलाकारों के माध्यम से हम ये प्रस्तुत करेंगे कि जो मानव सर्वश्रेष्ठ है, वह किस तरह से आज के युग में खराब हो गया है। उन्होंने बताया कि यह रचना विजयदान देथा की है, जो राजस्थान के लेखक हैं।

कम साधन से बड़ा काम : 15 दिसंबर को दूसरे दौर में 'पंच लाइट' नामक एक नाटक का मंचन करेंगे, जो कि फनीश्वर नाथ रेणु की रचना है। श्री कपूर ने कहा कि यह रचना बहुत पुरानी है किंतु आज भी लोगों को हँसाने.गुदगुदाने में कामयाब रहती है। हम लोग रंगमंच को प्रोत्साहन देने के लिए बहुत कम साधन और कम कलाकारों के साथ छोटे से छोटे कस्बे में नाटक प्रस्तुत कर रहे हैं।

श्री कपूर ने कहा कि आमतौर पर देखने में आया है कि लोग समय की कीमत नहीं करते और खासकर रंगमंच के कार्यक्रम को लेकर समय का ध्यान नहीं रखते। हम नाटक को समय पर शुरू करेंगे और समय पर ही खत्म करेंगे, इसलिए दर्शकों से आग्रह है कि वे समय पर पहुँचें।
------------------------------------------------------------------------------------------------गरूपिया और राष्ट्रीय नाट्‍य अकादमी के बैनर तले इन दिनों नाट्‍योत्सव का आयोजन किया जा रहा है। कल इसका पहला दिन था और इस दिन दो नाटक 'आदमजाद' और 'पंचलाइट' की प्रस्तुति दी गई।

Thursday, December 15, 2011

परेश रावल और किशन की फिलासफी


रायपुर: डॉ. अरूण सेन स्मृति संगीत उत्सव के दूसरे दिन 14 दिसंबर को मुंबई के आंगिका समूह के कलाकारो ने राजधानी के अरूण मंच में स्वरूप संपत्त निर्मित और भावेश मांडले दिग्दर्शित नाटक किशन कन्हैया की सशक्त प्रस्तुति के जरिए नाटय प्रेमियों को कर्मकांड और अंधविश्वास के नाम पर छली जा रही जनता और उससे उत्पन्न स्थिति का नाटकीय चित्रण कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि किसी को गुरू या भगवान बनाने से पहले उसे ठीक तरह से परखा जाए। भगवान या ईश्वर को किसी मंदिर या मस्जिद में ढूंढने से पहले मन में ढूंढ़ो। कही.कहाई बात या लकीर का फकीर बनने से अपना ही नुकसान है।

परेश रावल अभिनीत इस नाटक में कर्मकांड और अंधविश्वास पर करारा कटाक्ष भी किया गया। किशनलाल के बहाने उस पूरी सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल उठाये गए जिसमें तथाकथित धमाचार्यए तांत्रिक बाबाओं का पाखंडए धर्मस्थलों में जनता को लूटने के प्रायोजित षडयंत्र को नाटक के प्रमुख पात्र किशनलाल के अपने तर्क से निरूतर करते हुए सत्य की नए सिरे से व्याख्या की। ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते किशनलाल उर्फ परेश रावल की खूबी ये रहती है कि वह ग्राहकों को तरह.तरह के लुभावनी बातों से प्रभावित कर औने.पौने दाम में एंटिक सामान बेचने में माहिर रहता है। कब किस को टोपी पहना दे कहा नहीं जा सकता। दिलचस्प बात ये है कि चाहे तो वो किशन भगवान की मूर्ति को द्वारिका से निकली दुर्लभ मूर्ति बता दे या फिर उसी तरह की कोई दूसरी पीतल की मूर्ति को मथुरा से प्राप्त मूर्ति बताते हुए बेच दे। नास्तिक किशनलाल का ये मानता है कि भगवान या ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। जबकि उसकी पत्नी सुशीला धार्मिक आस्था वाली महिला रहती है जो कि पूजापाठ से लेकर व्रत रखने में विश्वास रखती है। घटनाक्रम में एक बार भूकंप आने से किशनलाल की दुकान और उसमें रखे बहुमूल्य सामान नष्ट हो जाते हैं। सुशीला इसे भगवान के निरादर करने पर मिले श्राप के रूप में मानती है। और इसके के प्रायश्चित के लिए पूजा पाठ करने की सलाह पति को देती है। पर किशनलाल ये बात नहीं मानता । उल्टे इस बात से खुश होता है कि नुकसान से हुई भरपाई वो बीमा कंपनी से वसूल लेंगे। इंश्यारेंस कंपनी से 35 लाख की दुकान का 50 लाख का बीमा जब देने की बात आती है तो इंश्योरेंस कंपनी का मैनेजर दिनेश सोनी इस अपने आप को फ्रेश गरीब कहलाने वाले किशनलाल के मंसूबो पर पानी फेरते हुए ये कहता है कि आग या चोरी या दुर्घटना में यदि दुकान व समान की क्षति होती कंपनी क्षतिपूर्ति का भुगतान जरूर करती। पर प्राकृतिक आपदा जिसे एक्ट ऑफ गॉड कहकर बीमा कंपनी इसे भुगतान से परे बताती है। किशनलाल भड़क उठता है और कहता है कि उसने प्रीमियम जब पूरे जमा कर दिए हैं तो भुगतान क्यों नहीं करोगेघ् बात बढ़ने पर यह दलील दी जाती है कि प्राकृतिक प्रकोप पर किसी का बस नहीं चलता इसके लिए ईश्वर ही सब कुछ है। किशनलाल ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देता है और यहीं से उसकी लड़ाई मठाधीशों व कर्मकांडियों से शुरू होती है।

विचारोत्तेजक नाटक में कई दृश्य ऐसे हैं जो दर्शकों की मनोस्थिति को झकझोरने का काम करते हैं। सिद्धेश्वर बाबाए धर्माचार्य से लेकर वकील से किशनलाल की बहस काफी हद तक कड़वे सच को उजाकर करती है। कहीं धर्म की रक्षा के नाम पर तो कहीं मंदिरों में चढावे के रूप में अंध श्रद्धा पर नाटककार ने जबदस्त कटाक्ष किया है। नयी पीढ़ी को सोचने के लिए विवश करते इस नाटक का मध्यांतर कृष्ण वासुदेव यादव के किरदार के प्रवेश होती है। धरती पर भगवान के आने और उसके बदले स्वरूप को नाटकीय रूप में दिखाया गया है। कहीं.कहीं नाटक के संवाद सुन दर्शकों को कोफ्त होती है तो कहीं किशनलाल का लॉजिक ठहाके लगाने के मौके देता है। कृष्ण का यह कहना कि चमत्कार कर सकता हूं इसलिए कृष्ण नहीं हूं। मन में बसा लो हर जीव में भगवान के रूप में विद्यामान हूं । कहानी का यही सार है। इस पर किशनलाल का तर्क रहता है कि भगवान हैं तो सामने क्यों नहीं आते। नाटक के आखिर में यह संदेश कि फूलए प्रसाद से नहीं आस्था से भगवान प्रसन्न होते हैं। जो इसे ढूंढता है वो इसे पा लेता है। पर दिक्कत ये है कि लोग सत्य नहीं सात्वंना ढूंढते हैं।

Tuesday, December 13, 2011

उच्च वर्ग का पाखंड और आम आदमी की नियति


- राजेश चन्द्र -

सतीश आनंद आधुनिक हिंदी रंगमंच की उस साठोत्तरी पीढ़ी के सशक्त प्रतिनिधि हैं जिसका मुख्य सरोकार रंगमंच में भारतीयता की या अपनी अस्मिता की तलाश रहा है और वह नाटक और प्रदर्शन दोनों में एक ऐसे रूप, भाषा और मुहावरे की तलाश में तल्लीन रही है, जो हमारे आज के जीवन की जटिलताओं, संघर्षों, यातनाओं और उसके सारे अंतर्विरोधों को सभी स्तरों पर अभिव्यक्त करे और वह रुचिकर भी हो। साहित्य कला परिषद और दिल्ली सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा विगत 28 नवंबर से 8 दिसंबर के बीच श्रीराम सेंटर में आयोजित भारतेन्दु नाट्योत्सव के अंतर्गत 7 दिसंबर को अभिनव भारती द्वारा मंचित नाटक ‘एक इंस्पेक्टर से मुलाकात’ में भी निर्देशक सतीश आनंद इसी दोहरे उद्देश्य को हासिल करने की एक छटपछाहट के साथ सामने आते हैं।

एक गंभीर संस्कृतिकर्मी के तौर पर सतीश आनंद ने एक बार फिर यह अहसास कराया है कि वे किसी भी शर्त पर लोकप्रियता या जनस्वीकृति हासिल करने में विश्वास नहीं करते, बल्कि रचना में जीवन की जटिलता, बहुस्तरीयता और द्वंद्वात्मकता की अंतर्दृष्टिपूर्ण और कल्पनाशील अभिव्यक्ति के प्रति संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता जगाने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वे रूप और कथ्य की एक ऐसी संगति तैयार करते हैं जिसे अनुकरणात्मक नहीं, मौलिक रूप से भारतीय कहा जा सकता है। शिल्पगत तिकड़मों और तरकीबों पर भरोसा न करते हुए नाटककार, निर्देशक और अभिनेता की सृजनात्मकता के समुचित समन्वय पर बल देने वाले सतीश आनंद का योगदान अलग से रेखांकित किए जाने की पात्रता रखता है। वे अभिनेता के काम के द्वारा ही अपनी पूरी अभिव्यक्ति और कलात्मक प्रासंगिकता हासिल करते हैं। विवेच्य नाटक इसका एक सशक्त उदाहरण है।

‘एक इंस्पेक्टर से मुलाकात’ मूलत: 1912 में प्रख्यात नाटककार जे.बी. प्रिसले द्वारा रचित नाटक ‘एन इंस्पेक्टर कॉल्स’ का भारतीय रूपांतरण है, जिसे 20वीं शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य में एक कालजयी कृति का दर्जा हासिल है। मूल नाटक की अंतर्वस्तु के केंद्र में इंग्लैंड के तत्कालीन सामाजिक जीवन की वह विषमता और अन्यायपूर्ण वर्गीय संरचना है जिसमें प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा विशाल आबादी की संभावनाओं और श्रम का निर्बाध और अमानवीय शोषण किया जाता है।

खास बात यह है कि बगैर किसी समाजवादी नारे का डंका पीटे और पूंजीवादी संस्कृति के गलित मूल्यों की कटु आलोचना के, प्रिसले ने कुलीनता और आभिजात्यता के पाखंड को अपने इस नाटक में उजागर किया है। उन्होंने यह सिद्ध करके दिखाया है कि किस प्रकार धनिक वर्ग सामाजिक व्यवस्था में खुद को श्रेष्ठतर समझता है और गरीब आदमी की जिंदगी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। प्रिसले जनसाधारण की भावनाओं के प्रवक्ता थे और समाज की वर्गीय विषमता उन्हें व्यथित करती थी। उन्होंने यह पाया था कि लोग समाज में अपनी वर्गीय अवस्थिति के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं और वर्गीय संरचना के अंतर्गत यदि निम्न वर्ग का कोई व्यक्ति अपनी वर्गीय नियति से मुक्ति पाने की कोशिश करता है तो यह कोशिश प्रभुत्वशाली लोगों को नागवार गुजरती है।

नाटक की कथा एक अभिजातवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गई है जिसकी शुरुआत शीला (ज्योति पंत) और रमेश कपूर (राकेश यादव) की सगाई के समारोह में आयोजित एक रात्रिभोज के साथ होती है। गृहस्वामी और शीला के पिता मिस्टर खन्ना (दीपक कुमार) एक हृदयहीन उद्योगपति हैं जैसे कि आम तौर पर पूंजीवादी व्यवसायी होते हैं और हर कीमत पर मुनाफा कमाना उनका सबसे बड़ा मूल्य है। उन्हें अपने रसूख का अहंकार है जिसे बात-बात में जाहिर करना वे अपना अधिकार समझते हैं। इंस्पेक्टर कौशल (स्पर्श शर्मा) के आगमन और उत्सव में व्यवधान उत्पन्न होने से मिस्टर खन्ना के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। घटनाक्रम के विकास के साथ अंतत: उनका अहंकार टूटता अवश्य है, जिसके कारण वे परेशानी महसूस करते हैं पर इस स्थिति में भी वे अपने अंत:करण को प्रभावित होने से बचा ले जाते हैं। इंस्पेक्टर एक स्थानीय स्त्री के मामले की छानबीन करता है, जिसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली है। पहले तो पूरा परिवार उस स्त्री के प्रति अनभिज्ञता प्रदर्शित करता है पर जैसे-जैसे इंस्पेक्टर की जिरह आगे बढ़ती है, यह साफ होने लगता है कि इस परिवार के मुखिया से लेकर पत्नी (नीलम शर्मा), बेटे, बेटी और उसके मंगेतर तक सबने उस स्त्री के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाला है और ऐसी स्थितियां निर्मित की हैं, जिसमें उसके सम्मानपूर्ण जीवन की कोई संभावना शेष नहीं रह गई थी।

अशोक (कनिष्क ज्ञान) अपने माता-पिता को संवेदनाशून्य और निकृष्टतम मनुष्य मानता है और इसलिए उनके प्रति असीम घृणा प्रदर्शित करने का कोई अवसर नहीं गंवाता। इसके उलट शीला संयत और समझदार है। नाटक में दो अलग-अलग तरह के विवेक का प्रतिनिधित्व करते इन दोनों चरित्रों में शीला अपनी कथनी और करनी में अधिक उर्वर है। वह अपने मंगेतर में तब तक आसक्ति रखती है और इस मिथ्याचार का अंग बनी रहती है जब तक इंस्पेक्टर नहीं आता, पर सत्य से साक्षात्कार होते ही वह इस पाखंड को अस्वीकार कर देती है। नाटक के अंत में वह यह देख कर स्तब्ध रह जाती है कि उसके माता-पिता का बर्ताव नहीं बदलता। वे अपने ही द्वारा उद्घाटित सत्य को अस्वीकार करने में जुट जाते हैं और धीरे-धीरे पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इस तरह नाटक आभिजात्यता और सामाजिक प्रभुत्व के पाखंड को उजागर करते हुए आज की व्यवस्थागत विसंगतियों और आम आदमी की दयनीय स्थिति को प्रभावशाली तरीके से सामने लाता है।


(दैनिक भास्कर से साभार)

राजेश चन्द्र
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन एवं पत्रकारिता, नयी दिल्ली।
सम्पर्क- म.नं.- 1सी, द्वितीय तल-बी, सरोजिनी नायडू पार्क,
निकट काली मंदिर, शास्त्रीनगर, दिल्ली- 110031.
मोबाइल नं.- 09871223317.
ईमेल-

Monday, December 12, 2011

हिंदी लेखन की विविध छवियों का कोलाज

- अरुण नारायण -

डा. कुमार विमल हिंदी आलोचना के एक दिग्गज स्तंभ रहे हैं। अभी ही उनका निधन हुआ है। प्रस्तुत पुस्तक उनके अब तक के संपूर्ण विधाओं में लिखे प्रतिनिधि रचनाओं का संग्रह है। आलोचना, संपादकीय टिप्पणियां, यात्रा विवरण, ललित निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, कहानियां, कविताएं और टीप और टीपें जैसी अलग-अलग विधाओं की उत्कृष्ट रचनाए इसमें हैं। आलोचना खंड में विमल जी के 10 लेख हैं। इनमें पर्याप्त वैविध्य है। एक ओर आजादी के आंदोलन मंे लेखकों की भूमिका की तहकीकात है तो दूसरी ओर नाटक की क्या स्थितियां हैं इसपर भी उनकी गहरी नजर है। प्रसाद, दिनकर, अज्ञेय, निराला और प्रेमचंद पर एक-एक लेख हैं। इसके साथ ही आधुनिकता और राष्ट्रवाद पर भी उनके लेख हैं। ये लेख समकालीन लेखन से अलग गहरे कंसर्न और विश्लेषण के साथ लिखे गए हैं। इसलिये यहां आपको चालू और तात्तकालिक प्रवृतियों के समानांतर एक चिंतनशील और निर्भीक विश्लेषण मिलेगा।

पुस्तक के संपादकीय अग्रलेख और टिप्पणियां साहित्य के षास्त्रीय और गंभीर सवालों पर केंद्रित हैं। सौंदर्यशास्त्र, अस्तित्ववाद, शुद्व कविता, कला की अवधारणा आदि कई दुरूह सवालों को विमल ने डील किया है। हालांकि इन लेखों की भाषा पारंपरिक फैब्रीकेटेड हिंदी की है। एक तरह से कहें तो अकादमिक जगत में आतंक पैदा करने वाली भाषा है वो। किताब में तीन यात्रा संस्मरण हैं तीनों ही यूरोप और भारत के अलग-अलग अनुभवों को बयान करते हैं। किताब शामिल निबंध सचमुच उच्चकोटि के हैं। यहां लेखक का गहरा एनालिसिस उन्हें एक उच्चकोटि का निबंधकार साबित करता है। संस्मरण खंड तो कमाल का है। बहुत ही सधा हुआ जीवन और लेखन के गहरे पर्यवेक्षण के बाद ही इस तरह के संस्मरण लिखे जा सकते हैं। शिवपूजन सहाय, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, हरिवंश राय बच्चन और नलिन विलोचन शर्मा के जीवन और लेखन दोनों पक्ष इन संस्मरणों में बहुत खूबसूरती से उजागर हुए हैं। संकलन में ‘चुनकी’ और मीना ठाकुर’ नामक दो रेखाचित्र भी हैं। दोनों ही हाशिये के समाज के पात्र हैं जिनकी बेचारगी और नियति के कई प्रसंग पढ़ने वाले को सिहरा कर रख देते हैं। ‘आत्म वितरण’ और ‘घघ्घो रानी!कितना पानी?’ दो कहानियां हैं। हालांकि इनका ट्रीटमेंट सामान्य ही है लेकिन यह एक आलोचक की सोच को समझने में मदद करती है। संकलन में विमल जी की 15 कविताएं हैं। कविता लेखन उन्होंने आरंभिक दिनों से लेकर अंतिम दिनों तक किया। हालांकि इसमें उनकी जो कविताएं हैं वो कोई खास इप्रेशंस नहीं जगातीं। ‘टीप और टीपें’ में आदर्श वाक्य की तर्ज पर की गई उनकी टिप्पणियां हैं। एक जगह लेखक लिखता है, ‘शिक्षा केवल साक्षरता नहीं है और जीविकोपार्जन का एक स्रोत भर है। भौतिक दृष्टि से भी देखें तो शिक्षा इन तीन प्रकार के अर्जनों का साधन है-विद्यार्जन, जीविकोपार्जन और स्नेहार्जन। इसलिए शिक्षा सभ्यता और शिष्टता का दिखाउ ‘काकुल’ नहीं है।’

यह संकलन कुमार विमल के सर्जनात्मक मानस के व्यापक फलक को उदघाटित करता है। यह बतलाता है कि विभिन्न विधाओं को देखने-आंकने का उनका नजरिया क्या था। साथ ही यह इस बात को भी प्रमाणित करता है कि उनके पठन-पाठन और विश्लेषण की नजर कितनी गहरी और पैनी थी।

किताबः रचना के विविध रंग (प्रतिनिधि रचनाएं)
लेखकः डा.कुमार विमल
पेजः 252
कीमतः400
प्रकाशकः जागृति साहित्य प्रकाशन, साईंस कालेज के सामने
अशोक राजपथ पटना 800006

सम्पर्क : हिंदी प्रकाशन, उपभवन, बिहार विधान परिषद पटना 800015 मोबाइल 9934002632

पत्रकारिता के वैकल्पिक मुहिम में न्यू मीडिया पर छिड़ी जिरह

- पटना से अरूण नारायण की रपट -

‘आज गरीबी और अमीरी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। अस्सी प्रतिषत लोगों के लिए सत्ताधारी वर्ग अपनी कोई जबावदेही नहीं महसूस करते। वे बीस प्रतिशत लोगों के लिए यह जबावदेही महसूस करते हैं। आज मीडिया को नियंत्रित वही लोग कर रहे हैं जो अस्सी प्रतिशत आबादी को इग्नोर कर रहे हैं।’

ये बातें ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा ने कही। वे पटना में पत्रकार पै्रक्सिस द्वारा आयोजित ‘समकालीन मीडिया की चुनौतियां और वैकल्पिक रास्ते’ विषय पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह का हमारा समाज होगा साहित्य में वह दिखाई दे जाएगा। आज का हमारा मीडिया सत्ताधारी वर्ग का दर्पण है। वह क्या चाहता है उसको मीडिया पूरी तरह प्रतिबिम्बित कर रहा है। यह चुनौती महज मीडिया की नहीं है आम आदमी की भी है। आज मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह आम आदमी को कैसे रिफलेक्ट करे। भारत में मीडिया का लंबा इतिहास नहीं है। उम्मीद थी कि नेहरू युग में कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी। लेकिन इमरजेंसी में मीडिया का गला ही घोंट दिया गया। अस्सी के दषक से मीडिया के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन आया। हिंदी में नयी-नयी पत्रिकाएं आयीं। अखबारों के तेवर बदल गए। स्प्रींग की तरह मीडिया में उछाल आया। हालांकि रूलिंग क्लास का नजरिया मीडिया के प्रति और भी सख्त होता गया। 90 के बाद वैष्वीकरण ने पूरी तरह से भारतीय राजनीति, समाज और मीडिया को प्रभावित किया। इस दौर में आंदोलन की खबरों को हाषिये पर डाल दिया गया। तर्क दिया गया कि इससे निवेष का माहौल खराब होगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने माना कि इससे सबसे बड़ा संकट उनके सामने पैदा हुआ जो मिशन को लेकर पत्रकारिता कर रहे थे। सन अस्सी के बाद जो लोग ग्लैमर में पत्रकारिता में आये थे उनको इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। श्री वर्मा ने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि हमारे पत्रकार साथी चीजों की तह में जाएं क्यांेकि मीडिया जिससे नियंत्रित हो रही है वह उसको छापने नहीं देगी। बहुत कम लोग इसकी तहकीकात करते हैं। पी. साईनाथ की तरह अपने यहां आज कितने पत्रकार हैं? उन्हांेने कहा कि व्यापक समूह पत्रकारों का सजग हो तो कितना भी मालिकों की तरफ से प्रेशर होगा यथास्थितिवाद टूटेगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने राजेंद्र माथुर का जिक्र करते हुए बतलाया कि वे कहा करते थे कि संपादक पहले ही लक्ष्मण रेखा खींच देते हैं हमलोगों को इससे बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि अब तो संपादक नामक संस्था ही समाप्त हो गई। आनंदस्वरूप वर्मा ने बतलाया कि 1998 में जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे तो उन्होंने हैदराबाद में डी.आई.जी की एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें भारत के 4 राज्य को नक्सलवाद से प्रभावित बतलाया गया था। 2005 में शिवराज पाटिल ने इसी मुद्दो को लेकर मीटिंग की तो पता चला कि 15 राज्य नक्सलवाद और माओवाद से प्रभावित हो गए। 7 राज्य तो 1950 से ही इससे प्रभावित हैं और जम्मू काश्मीर तो शाश्वत रूप से इससे प्रभावित हैं ही। दरअसल यह सब करके सरकार माओवाद और नक्सलवाद के खिलाफ हवा तैयार कर रही थी। पत्रकार भाईयों को इसपर संदेह पैदा करना चाहिए था। इसी के समानान्तर 2004 में रूलर मार्केटिंग पर एक सेमिनार किया गया। 2005 में नेशनल कांफ्रेंस किया गया। आप गौर करें देखें कि इसमें शामिल रहे लोगों की पृष्ठभूमि क्या थी? ये सभी के सभी अनिल अंबानी, रमेश अयर, दिलीप सहगल, अजीम प्रेमजी और प्लानिंग कमीशन के लोग थे जिसकी छोटी सी खबर ‘हिन्दू’ में आयी थी। रूलर इंडिया में मल्टीनेशनल का प्रवेश होगा इसके लिए यह भूमिका पहले से ही तैयार की जा रही थी। इसकी राजनीति की तह में हमें जाना होगा। कल को अगर कोकाकोला के विरूद्ध कोई आंदोलन होता है तो तय मानिये वह रीजनल अखबारों में नहीं छपेगा। श्री वर्मा ने कहा कि असली चुनौतियां आज खड़ा हुई है जनपक्षधर मीडिया के सामने समग्र मीडिया के सामने नहीं। जनता के पक्ष में लिखने वालों का भविष्य आने वाले दिनों में बहुत संकट का है। उन्होंने कहा कि झारखंड के जीतन मरांडी को फांसी दिये जाने की खबर नहीं छपी। जबकि बिनायक सेन के लिए आवाज उठाने वाला एक बड़ा ग्रुप उठ खड़ा हुआ। इसके पीछे क्लास हित से इनकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि स्टेट किसी को फांसी की सजा दे रही हो माओवादी बतलाकर और जीतन कह रहे हों कि वे माओवादी नहीं संस्कृतिकर्मी हैं। आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि स्टेट के खिलाफ बार कर रहे हैं तब तो हम मारे जाएंगे ही लेकिन जब तक संविधान है इमरजेंसी लगाकर बातें खत्म नहीं कर दी गई हैं तब तक इस तरह का एक्शन कहां से उचित है। श्री वर्मा ने माना कि इन समस्याओं का समाधान लंबे संघर्ष की मांग करता है। इसके लिए हमें मुद्दों पर लगातार दबाब बनाते रहना होगा और साथी पत्रकारों को शिक्षित करते रहना पड़ेगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा कि वैकल्पिक मीडिया बड़े अखबारों के समानांतर एक आंदोलन की तरह खड़ा करना होगा। आंदोलन के साथ जो-जो शर्तें हैं उसको हमें अपनाना होगा। मित्र शक्तियां कौन-कौन-सी होंगी इसका हमें ध्यान रखना पड़ेगा। इसमें पत्रकारों की भूमिका अहम होगी लेकिन मात्र वे ही नहीं होंगे। सभी क्षेत्रों के लोगों की अलग-अलग यूनिटें बनानी हांेगी। इसके लिए पहल मीडिया के लोग कर सकते हैं। जगह-जगह यूनिटें बनायें। आंदोलन के लिए होलटाइमर और पार्टटाइमर दोनों तरह के लोगों की टीम बनानी होेगी नहीं तो यह स्लोगन बनकर रह जाएगा।

समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा कि मीडिया का चरित्र इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नियंत्रण कौन कर रहा हैै। सरकार उसी तरह की नीतियां बनाने की कोशिश करती है जो पूंजीपतियों के लिए मददगार साबित हो। उन्होंने कहा कि पहला प्रेस आयोग ने सिफारिश की थी कि अपने यहां अखबारों में विदेशी निवेश न हो। उसके कंटेंट, कीमतें और विज्ञापन को लेकर भी आयोग ने कुछ अर्हताएं बनायी थी जिसमें यह बात भी शामिल थी कि चालीस प्रतिशत से ज्यादा का विज्ञापन न हो। लेकिन आज सब कुछ उल्टा हो रहा है। जब अखबारों के दाम उसके पन्ने के हिसाब से नहीं निर्धारित होंगे तो छोटे अखबार मर जाएंगे। पंकज बिष्ट ने अमेरीका का उदाहरण दिया। कहा कि बड़ी पूंजी जहां कहीं भी गई उसने अमेरीका की तर्जपर अपनी इसी रणनीति की बदौलत अखबारों के दाम घटाए फलतः प्रतिद्वंद्वी अखबार बंद हो गए। पंकज बिष्ट ने कहा कि मीडिया जनता का मत निर्धारित करने में बड़ी भूमिका निभाता है। पंकज बिष्ट ने कहा कि मुम्बई जैसे शहरों में सौ पेज के अखबार तीन-से-चार रुपये में मिलते हैं। उन्होंने आगाह किया कि इस तरह की मोनोपोली पर रोक लगनी चाहिये। उन्होंने माना कि अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग किसी भी जनतांत्रिक समाज की जरूरत है। जब तक कोई समाज या समूह अपने लिए मंच बनाने की स्थिति में नहीं होंगे तब तक स्थितियां नहीं बदलेंगी। श्री बिष्ट ने ब्रिटेन के मर्डाेक का उदाहरण दिया। बतलाया कि किस तरह उसने वहां के अखबारों पर धीरे-धीरे कब्जा कर लिया। ब्रिटेन का शासक दल भी उसका समर्थन कर रहा था। उसने ब्रिटेन के समाज को हिला दिया। उन्होंने कहा कि सरकारें हमेशा प्रेस को नियंत्रित करना चाहती हैं। इसके लिए जरूरी है कि प्रेस काउंसिल को प्रभावशाली बनाया जाए। ब्रिटेन की प्रेस ऑफ काउंसिल प्रभावशाली नहीं है। भारतीय प्रेस ऑफ काउंसिल भी उसी की नकल है इसलिए इसका भी हश्र वही हुआ। उन्होंने कहा कि जनता के विस्थापन, बेरोजगारी, दमन से जुड़े मुद्दे और ओनरशिप बड़ी पूंजी निर्धारित करती है। वे ही तय करती हैं कि अखबार का फैलाव किस तरह किया जाए। मर्डाेक का पूरा तंत्र यही करने के लिए मजबूर करता था।

पंकज बिष्ट ने कहा कि आज अखबारों के लिए सबसे बड़ा खतरा बहुसंस्करणीय अखबारों का है। दैनिक भास्कर के 64-65 संस्करण कई भाषाओं मंे निकलते हैं। इसके परिणाम क्या होंगे? इसमें स्थानीयता के सर्वाइल का सवाल छोड़ भी दें तो यह भारत देश की विविधता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। अमेरीका का जिक्र करते हुए बिष्ट ने बतलाया कि वहां बाल स्ट्रीट से लेेकर सभी अखबार एक ही जगह से निकलते हैं। उन्होंने माना कि अखबारों की स्वतंत्रता बनाये रखनी है तो उनके आर्थिक ढांचे को रेशनल आधार देना होगा। उन्होंने माना कि जनता के बिना इसमें बदलाव नहीं हो सकता। सबसे बड़ा संकट यह है कि राजनीति पार्टियां भी उन्हीं के दबाव में हैं। वोटर में यह चेतना होनी चाहिए। जो नियम है हम बना सकते हैं प्रेस कमीशन ने जो रिकोमेंडेशन की दूसरे की आजादी तो स्वीकार कर लें लेकिन सिर्फ वैकल्पिक मीडिया से इसका रास्ता हम नहीं निकाल सकते। छोटे अखबार इसका विकल्प नहीं हो सकते।

गोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी पत्रकार किसी मीडिया हाउस में रहकर खबरों की तह मंे जाता है तो उसे अपनी नौकरी गंवाकर उसकी कीमत वसूलनी पड़ती है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि मीडिया के भीतर रहकर इस दुष्चक्र से कैसे बचा जाए। अभिषेक ने कहा कि 30 साल पहले आनंदस्वरूप वर्मा ने वैकल्पिक मीडिया का जो आंदोलन खड़ा किया था वह ढह क्यों गया?

आनंदस्वरूप वर्मा ने इस सवाल को स्पष्ट किया। कहा कि वैकल्पिक मीडिया की टीम हमने हिंदी भाषी क्षेत्र और नागपुर में खड़ी की थी। उसकी 20-22 मीटिंगे भी की लेकिन उसी समय तेजी से इलेक्ट्रानिक चैनलों की बाढ़ आयी और सभी के सभी उसी में चले गए। उसको लेकर ब्लूप्रिंट हैं हमारे पास। तीस सालों में अनुभव भी बहुत हुए हैं। अगर इसको लेकर अलग से व्यवस्थित मीटिंग की जाए संगठनात्मक ढांचा तैयार किया जा सकता है।

मोहल्ला लाइव के मोडरेटर अविनाश ने कहा कि 90 के दशक में अपने यहां जो पत्रकार नायक बने राडिया प्रकरण के बाद यकबयक ढहते दिखे। बरखा दत, राजदीप सरदेसाई और वीर संघवी आदि का हश्र हमारे सामने है। दो-तीन पत्रिकाएं मौजूदा पत्रकारिता का विकल्प नहीं हो सकतीं। आज की पत्रकारिता का पूरा जोर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना भर है इसलिये ऐसे बदले हालात में सरोकार की सबसे सशक्त रौशनी न्यू मीडिया में ही दिखलायी पड़ती है। इजराइल गाजा पर हमले कर रहा है। पूरे अरब में इस न्यू मीडिया पर सेंसर है और यही न्यू मीडिया पूरे विश्व को उसकी जमीनी हकीकत बता रहा है कि वहां दरअसल हो क्या रहा है? अविनाश ने कहा कि न्यू मीडिया में ही पत्रकारिता के विकल्प की खोज एवं उसके संभावना की तलाश की जानी चाहिये।

अविनाश के बाद पंकज बिष्ट ने न्यू मीडिया को लेकर अपनी कुछ शंकायें रखी। कहा यह किसी भी क्षण नियंत्रित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहंुच व्यापक आबादी तक संभव नहीं है क्यांेकि भारत में अभी भी ढेरों ऐसे गांव हैं जहां बिजली की पहंुच नहीं है। अंततः एक अराजक मंच भी हैं जिसका इस्तेमाल सूचना के लिए ज्यादा होता रहा है एनालिसिस के विभिन्न पक्ष इसमें कैसे डील होंगे? श्री बिष्ट ने कहा कि न्यू मीडिया पत्रकारिता का विकल्प नहीं हो सकती हमें अंततः वर्तमान मीडिया में रहकर ही उसका विकल्प भी खड़ा करना होगा। इसपर अविनाश ने पुनः हस्तक्षेप किया। कहा 2000 तक अपने यहां मोबाइल स्टेटट्स सिंबल हुआ करता था आज रिक्शे वाले के पास भी मोबाइल है इसी तरह इंटरनेट का इस्तेमाल करना भी लोग सीख जाएंगे। न्यू मीडिया विकल्प की पत्रकारिता का अंतिम रास्ता है।

पुरूषोतम के सवाल का जबाव देते हुए आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि पत्रकार यूनियनों इसलिए खत्म होती गईं क्यांेकि उसके दिग्गज लीडर मुख्यमंत्रियों से सौदेबाजी करने लगे। ये यूनियनें दलालों के हाथ चली गई। बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय यूनियनें भी महज केवल एजेंसी बनकर रह गई।

कथाकार अवधेश प्रीत ने 80-90 के दशक में वामपंथ की पहल पर निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं के बंद होने के कारणों का संदर्भ उठाया। आनंदस्वरूप् वर्मा ने कहा कि आज करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ी है। पूरे स्टेट पर पूंजी का कब्जा हो गया है फलस्वरूप वामपंथी आंदोलन भी हाशिये पर गए हैं। खेतीहर मजदूर, सी.पी.आई. सी.पी.एम. के सपोर्ट से निकलने वाले अखबार पृष्ठभूमि में चले गए हैं। फिर विदेशी निवेश, आर्थिक नीतियां और वैश्वीकरण के कारण भी यह संकट पैदा हुआ है।

गोष्ठी की शुरुआत कमलेश ने की और विषय प्रवेश रोहित जोशी ने। महेंद्र सुमन, अभिरंजन कुमार, अनंत और ए. के. सिन्हा ने भी अपने हस्तक्षेप से गोष्ठी को जीवंत बनाया।

सम्पर्क : हिंदी प्रकाशन, उपभवन, बिहार विधान परिषद पटना 800015 मोबाइल 9934002632

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