RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Friday, July 27, 2012

चायकोवस्की आज भी क्लीन में रहते हैं


प्योतर चायकोवस्की रूस के ऐसे महान् संगीतकार हैं, जिनका नाम पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। जैसे दुनिया भर के लोग रूसी कवि अलेक्सान्दर पूश्किन और रूसी लेखकों लेव तलस्तोय और फ़्योदर दस्तायेवस्की को जानते हैं, वैसे ही चायकोवस्की को भी जानते हैं। लेव तलस्तोय और प्योतर चायकोवस्की भी एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। वे मित्र थे और अक्सर कला सम्बन्धी चर्चाएँ और बहसें किया करते थे। लेव तलस्तोय अक्सर चायकोवस्की की संगीत रचनाओं को अपने घर पर पियानो पर बजाया करते थे। तलस्तोय और चायकोवस्की के एक और मित्र थे —अन्तोन चेख़व। चेख़व और चायकोवस्की के बीच लम्बे समय तक पत्र-व्यवहार भी हुआ। अन्तोन चेख़व ने अपना एक कहानी-संग्रह भी उन्हें समर्पित किया था। कभी चेख़व ने चायकोवस्की के बारे में कहा था — मैं उनका इतना ज़्यादा सम्मान करता हूँ कि मैं उनके घर के दरवाज़े पर दिन और रात खड़ा रह सकता हूँ ताकि प्योतर चायकोवस्की की एक झलक पा सकूँ। अगर पूरी रूसी संस्कृति की बात की जाए तो मैं उन्हें लेव तलस्तोय के बाद दूसरे नम्बर पर रूसी कला और संस्कृति का प्रतिनिधि मानता हूँ।

19 वीं शताब्दी में चायकोवस्की के जीवनकाल में ही रूस के अन्य कलाकार, नाटककार, लेखक, अभिनेता, संगीतकार और कवि आदि भी प्योतर चायकोवस्की का बड़ा सम्मान करते थे। इसका कारण शायद यह है कि उनका संगीत श्रोता के मन की गहराइयों में पूरी तरह से प्रवेश कर जाता है और उनकी संगीत-रचना का श्रोता अपने आसपास की दुनिया को भूलकर उसी संगीत में डूब जाता है। व्यक्ति का अपना दुख, अपना सुख, अपनी पीड़ा, अपनी ख़ुशी सब चायकोवस्की के संगीत के साथ एक-मेक हो जाती हैं।

प्योतर चायकोवस्की का जन्म मई 1840 में हुआ था। उनके पिता एक खदान में इंजीनियर थे। जब चायकोवस्की सिर्फ़ पाँच वर्ष के ही थे तो उनकी माँ ने उन्हें पियानो बजाना सिखाना शुरू कर दिया और फिर पियानो ही उनका जीवन हो गया। लेकिन उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे, इसलिए स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्हें कानून की पढ़ाई करनी पड़ी। सेंट पीटर्सबर्ग में वे वकालत पढ़ने के साथ-साथ संगीत में भी डूबे रहे। कानून की शिक्षा पाने के बाद वे रूस के न्याय और कानून मंत्रालय में काम करने लगे।

परन्तु 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने कानून-मंत्रालय की अपनी नौकरी छोड़ दी और सेंट पीटर्सबर्ग के संगीत महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया। बस, उनके जीवन में आए इसी मोड़ ने उन्हें संगीतकार बना दिया। उन्होंने नया से नया संगीत रचना शुरू कर दिया। उनकी धुनें लोकप्रिय होने लगीं और लोग उन्हें पहचानने लगे। बस, इसी तरह धीरे-धीरे वे प्रसिद्ध होते चले गए।

प्योतर चायकोवस्की ने दस ओपेरा नाटिकाओं को संगीतबद्ध किया है। उन्होंने तीन बैले-नाटिकाओं का संगीत रचा है। सात सिम्फ़नियाँ रची हैं। उनकी और भी सैंकड़ों संगीत-रचनाएँ हैं। चायकोवस्की के संगीत पर आधारित नाटिकाएँ न केवल रूस और यूरोप में, बल्कि अमरीका, जापान और चीन जैसे देशों में भी बड़ी लोकप्रिय हैं। उन्हें संगीतकारों का संगीतकार कहा जाता है।

प्योतर चायकोवस्की ज़्यादातर सेंट पीटर्सबर्ग या मास्को में रहते थे या फिर वे विदेशों के दौरे करते रहते थे। लेकिन मास्को से सौ किलोमीटर दूर क्लीन नगर में उनका अपना घर था, जहाँ पर वे एकान्त में संगीत-रचना किया करते थे। इसी क्लीन नगर में आज चायकोवस्की संग्रहालय बना हुआ है। उस घर में जहाँ वे रहा करते थे, आज भी सब कुछ वैसा का वैसा है, जैसा उनके जीवनकाल में था। सारी दुनिया के संगीतप्रेमी चायकोवस्की से मिलने और उनका घर देखने के लिए आज भी क्लीन पहुँचते हैं।

इस घर में आज चायकोवस्की नहीं रहते, लेकिन जैसे उनकी आत्मा इस घर में बसी हुई है। हर पाँच साल में एक बार मास्को में प्योतर चायकोवस्की संगीत-प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है, जिसमें दुनिया भर के युवा और किशोर संगीतकार भाग लेते हैं।

सन् 2015 में प्योतर चायकोवस्की की 175 वीं जयन्ती मनाई जाएगी। दुनिया भर के संगीत-प्रेमी यह चाहते हैं कि सन् 2015 के साल को 'प्योतर चायकोवस्की वर्ष' घोषित कर दिया जाए।

http://hindi.ruvr.ru/2012_07_22/82490792/ से साभार

Thursday, July 26, 2012

जहां रंगमंच पानी में बहता है


जर्मनी के हर्जोगटम लाऊएनबर्ग जिले, जिसे डची ऑफ लाऊएनबर्ग के नाम से भी जाना जाता है, में ग्रीष्म ऋतु हर साल अपने साथ उत्सवों का माहौल लेकर आती है। इन उत्सवों का संस्कृति तथा प्रकृति से गहरा संबंध है। ‘कुलतरसोमर एम कनाल’ नामक एक उत्सव वर्ष 2006 से यहां हर वर्ष आयोजित किया जा रहा है।

इस उत्सव का खास आकर्षण एक रोविंग थिएटर (पानी में बहता रंगमंच) है जिसमें दर्शकों को स्कालसी नहर में एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक नाव को खेते हुए जाना पड़ता है। यह स्थान ऐतिहासिक कस्बे रात्जबर्ग के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। फैस्टीवल के डायरैक्टर फ्रैंक डयूवैल के अनुसार, ‘‘यह उत्सव केवल लाऊएनबर्ग में ही आयोजित हो सकता है क्योंकि यहां प्रकृति तथा भूदृश्य उत्सव की विषय वस्तु को तय करते हैं। झीलें, जंगल तथा स्थान हर चीज अपनी कहानी कहती है जबकि संगीत, रंगमंच तथा चित्र उन्हें जरा विस्तार से समझाते हैं।’’

1300 वर्ग किलोमीटर में फैले हर्जोगटम लाऊएनबर्ग जिले का नाम मध्यकाल के डची (सामंती इलाका) ऑफ साक्स-लाऊएनबर्ग पर पड़ा है। 1864 में दूसरे स्क्लेसविग युद्ध के पश्चात इस पर फारस का कब्जा हो गया और 1876 में इसे जर्मनी के उत्तरी राज्य स्क्लेसविच-होल्सटाइन में शामिल कर लिया गया। हैम्बर्ग शहर के करीब स्थित डची ऑफ लाऊएनबर्ग की 48 झीलें तथा साकसेनवाल्ड का विशाल जंगली क्षेत्र प्रकृति की सुंदरता को निहारने के इच्छुक पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय है।

हालांकि ग्रीष्म ऋतु में यहां की रईस संस्कृति की झलक पेश करते विभिन्न स्थानों को भी देखा जा सकता है। इनमें वोटरसन का किला भी शामिल है। लाऊएनबर्ग जिले की राजधानी रात्जबर्ग की स्थापना 1143 में हुई थी। जल्द ही यह कस्बा हैनरी द लायन के शासन का हिस्सा बन गया जिन्होंने 1165 में यहां रोमनेस्क्यू गिरजाघर का निर्माण करवाया। यह ऐतिहासिक गिरजाघर पुराने कस्बे के उत्तरी हिस्से में स्थित है। इसी गिरजाघर के प्रांगण में ए.पॉल वैबर म्यूजियम भी स्थित है। इस म्यूजियम में 300 लिथोग्राफ्स (पाषाण से उकेरे चित्र या लेख), ड्राइंग्स तथा ऑयल पेंटिंग्स प्रदर्शित हैं।

म्यूजियम में प्रदर्शित ऑयल पेंटिंग्स के कलाकारों में से अधिकतर को रात्जबर्ग के निकट स्थित एक छोटे से गांव स्करेत्सटेकेन में रहते थे। जुलाई महीने के अंत में यहां आयोजित होने वाला रासेसबर्ग बाइलाग मिडेवियल नामक रंगारंग उत्सव पर्यटकों का खूब मनोरंजन करता है जहां वाइकिंग, रोमन, नोर्मन तथा अन्य लड़ाकू वेशभूषाओं में सजे कलाकार लड़ाइयों के नकली दृश्य पेश करते हैं। यहीं एक कस्बे मोएलन में टिल यूलैनस्पीगल नामक एक मसखरा बहुत लोकप्रिय है। कुछ का मानना है कि यह महज एक काल्पनिक व्यक्तित्व है परंतु आज भी यहां के कई लोग मानते हैं कि यह नटखट तथा शरारती व्यक्ति वास्तव में हुआ करता था।

मान्यता के अनुसार सन् 1350 में मोएलन में उसकी मौत प्लेग के कारण हुई थी। वह लोगों का मजाक उड़ाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता था जिसमें वह उनकी बुराइयों, लालच तथा मूर्खता को उजागर करता था। मोएलन में वह हर कहीं दिखता है जहां टिल यूलैनस्पीगल म्यूजियम भी स्थित है। यहां एक स्थान पर उसकी प्रतिमा भी स्थापित है। मान्यता है कि इसे एक साथ दोनों तरफ से रगडऩे पर भाग्योदय होता है। इस कस्बे में प्रत्येक तीन साल पर यूलैनस्पीगल उत्सव का आयोजन भी होता है। यह उत्सव इस साल भी आयोजित हो रहा है जो 9 से 18 अगस्त तक चलेगा।

पंजाब केसरी से साभार

Tuesday, July 17, 2012

जीवन के सत्यार्थ को पेश करता ‘अगस्त: ओसेज काउंटी’


जिंदगी के उतार चढ़ाव और क्षीण भावनाओं से भरी विकट परिस्थितियों के रास्ते से होकर गुजरता है अगस्त: ओसेज काउंटी। ट्रेसी लैट्स द्वारा रचित इस अंग्रेजी नाटक का मंचन गोवा में फिल्माया गया, जिसकी पटकथा में पाश्चत्य संस्कृति को बखूबी बयान किया है लेकिन इसका भारतीय सभ्यता के मूल चित्रण के बाद यह अपनी वास्तिवकता नहीं खोता और निरंतर जीवन के हर रंगीन और काले पलों की झलक उकेरता हुआ नजर आता है। द ट्रिब्यून ट्रस्ट के सौजन्य से यहां सेक्टर 18 के टैगोर थियेटर में लिलेट दूबे द्वारा निर्देशित किए गए इस नाटक में तमाम दिग्गज थियेटर कलाकारों ने हर चरित्र को बखूबी निभाया। 135 मिनट चले अगस्त: ओसेज काउंटी में एक वेस्टन परिवार के दुख को पात्रों ने यूं बयां किया है कि परिवार के सदस्य विकट परिस्थितियों के बावजूद खुशी की तलाश करते हैं, जिसे पात्रों ने बखूबी निभाया। थियेटर कलाकार किटू गिडवानी, नीता वशिष्टï, अमर तलवार, संध्या मृदुल, सुमित्रा पिल्लई, नंदीता दूबे और स्वयं लिलेट दूबे ने एक परिवार पर मुखिया के बिछडऩे के बाद टूटे दर्द और मार्मिकता को बयां किया है। वेस्टन परिवार सभ्यता और भावुकता के मिश्रण को सत्यार्थ करता है। लियोन परिवार का मुखिया है। वह पांच दिन से गायब है। उसके इंताजर में सारा परिवार दुखी भी है और बेहद भावुक भी है। लेकिन उसकी मौत की खबर सबको भीतर तक तोड़ देती है। कहानी शमशानघाट से मुड़ती है, जहां से लियोन के परिवार को रिश्तेदार ढांढस बंधाते हैं, साथ ही परिवार को कटीली आंखों से भी देखते हैं। क्योंकि तमाम बुराइयां इस परिवार का पीछा नहीं छोड़े हुए थी। लियोन पत्नी वोलेट अपने शौख अंदाज में पति की मौत को भूलाने का प्रयास करती है। नाटक में उसकी तीन बेटियों के चरित्र भी बेहद प्रेरक हैं जो परिवार के मुखिया के बिछडऩे के बाद हर परिस्थिति का सामना खुशी खुशी करते हुए करती हैं। वे मां से आहत भी हैं। (दैनिक ट्रिब्यून 15 जुलाई से साभार)

Wednesday, July 11, 2012

हर क्षेत्र में, हर भाषा में नाट्य प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी ही चाहिए - कारंत


रंगकर्मी ब॰ व॰ कारंत अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन न सिर्फ़ हिंदी और कन्नड़ बल्कि भारतीय रंगमंच में उनका जो अवदान है वह न सिर्फ़ अविस्मरणीय है, मील का पत्थर भी है। संगीत भी वह साधते थे और कहते थे कि नाटक पॉपुलर होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है गर्मी पैदा करना। वह जब आखि़री बार लखनऊ आए थे तो एक नाट्य प्रतियोगिता में शिरकत के लिए। उनकी सादगी और सक्रियता देखते बनती थी। तभी राष्ट्रीय सहारा के लिए ब॰ व॰ कारंत से दयानंद पांडेय ने एक ख़ास बातचीत की थी। पेश है वह बातचीत:


प्रसिद्ध निर्देशक और रंगकर्मी ब॰ व॰ कारंत का कहना है कि मैं हीरो वाले नाटकों को बहुत कम पसंद करता हूं। मैं करता नहीं। अब कि जैसे भारतेंदु का अंधेर नगरी चौपट राजा नाटक मैंने किया। इसमें कोई हीरो नहीं। इसमें सरकारी तंत्र पर जो व्यंग्य किया गया है, इस नाते यह हमेशा प्रासंगिक रहता है। ‘कल्लू बनिए को पकड़ लाओ जी’ जैसे संवादों के मार्फत अंधेर नगरी सिर्फ़ हास्य नाटक नहीं, व्यंग्य हो जाता है। और आज के हालात पर, त्रासदी पर इससे सटीक व्यंग्य मुझे नहीं दिखता।

कारंत कहते हैं कि इसी तरह कालिदास की शकुतला मेरे लिए आज भी प्रासंगिक है। क्यों कि दुष्यंत आज भी शकुंतला को धोखा देता मिलता है। डेढ़ सौ साल पहले का यह नाटक है। पर शकुंतला पुरूष के लिए आज भी जंगली चीज़ है। शुरू में जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मैंने इन नाटकों को उठाया तो इन नाटकों के बारे में बहुत सारी शंकाएं उठाई गईं। अब पाता हूं कि मेरी बहुत सारी पुरानी धारणाएं निरंतर टूटती जाती हैं। खैर इस पर बात ज़रा आगे। पहले हम लोग कहते थे कि नाटक करना पैदाइशी है। पर अब मानते हैं कि सीखना चाहिए। और फिर भी इस सबके बावजूद भरतमुनि से आगे हम नहीं बढ़ पाए हैं। खुशी है इस बात की। तो माडर्न नाटक क्या है? मेरे लिए अंतर नहीं पड़ता कि आज का नाटक तुगलक है कि कल का शकुंतला ! बस प्रासंगिकता रहनी चाहिए। तो नाटक में ट्रेनिंग ज़रूरी है कई बार तात्कालिक चीज़ों पर भी नाटक ठीक लगते हैं। जैसे मंडल आंदोलन चला तो उस पर भी नाटक हुए। गिरीश कर्नाड ने भी नाटक लिखा कन्नड़ में तलदंडा। फिर घासी राम कोतवाल, हयवदन बिलकुल भिन्न नाटक हैं। दरअसल, रंगमंच में समकालीनता की तलाश हो रही है। यह आज का ट्रेंड है। पर दिक्क़तें भी कई हैं। रंगमंच से संबंधित पत्रिकाएं पहले चलती थीं। और म्यूज़िकल कंसेप्ट की भी। नटरंग, नाट्य शोध आज भी है।

कारंत कहते हैं कि मैं माडर्न थिएटर नहीं मानता। समकालीनता को मानता हूं। जैसे महेश दत्तानी लिखते अंगरेज़ी में हैं पर समस्या हिंदुस्तानी लेते हैं। जाति-पांति का सवाल है। ये सारे सवाल अब नाटक में देखे जा सकते हैं। हां, तकनीक वेस्टर्न ले सकते हैं, कैसेट जैसी तकनीक लेना भी ग़लत नहीं है। किसी चीज़ को वेस्टर्न कह कर नहीं फेंक सकते। वस्तुतः रंगमंच का स्वरूप वेस्टर्न से काफी प्रभावित है। ब्रेख्त की बात करते हैं तो संसार के रंगमंच की भी बात करते हैं। रंगमंच में कमियां भी बहुत हैं हमारे। क्यों कि हिंदुस्तान में बहुत सी भाषाएं हैं। तो भाषागत विविधता होते हुए भी प्रशिक्षण के लिए एक ही स्कूल है नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा। यह ठीक नहीं है। हर क्षेत्र में, हर भाषा में नाटक की ट्रेनिंग की व्यवस्था होनी ही चाहिए। पर दिक्क़त यह है कि आंध्र का कोई लड़का एन.एस.डी. में नाटक सीखने आता है तो अपनी भाषा से कट जाता है। जबरदस्ती हिंदी सीखनी पड़ती है। तो उसका सारा ध्यान नाटक से हट कर हिंदी पर आ जाता है। होना यह चाहिए कि देश के हर विश्वविद्यालय में नाटक पढ़ाने की व्यवस्था वहां की भाषा में ही होनी चाहिए। देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय हैं पर अभी सिर्फ़ चालीस विश्वविद्यालयों में ही नाटक पढ़ाया जाता है। थिएटर में विश्वविद्यालयों का योगदान बहुत कम है। हालांकि थिएटर के लिए दो विश्वविद्यालय इन दिनों बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। एक त्रिचूर में और एक चंडीगढ़ में। एन.एस.डी. ने भी ब्रांचेज़ खोलने की कोशिश की। बेंगलूर में खोला। पर सरकार नाटक को महत्व नहीं देती। स्थिति यह है कि हमारे केंद्रीय बजट में संस्कृति पर सरकार सिर्फ़ 0.03 प्रतिशत ही खर्च करती है। तब जब कि दूसरे देशों में ठीक इसका उलटा है। लंदन में भाषा एक है। पर थिएटर सिखाने के लिए 16 संस्थाएं हैं।

कोई भाषा, कोई एक्टिंग, कोई संगीत ऐसे ही और कई चीज़ें वहां सिखाई जाती हैं। पर आप के लखनऊ में? भारतेंदु नाट्य अकादमी होते हुए भी हिंदी पर कितना काम हो रहा है। मैं नहीं समझता। बात एन.एस.डी के पुराने हो जाने की चली तो कारंत बोले, हम नहीं कह सकते कि एन.एस.डी. बुढ़ऊ हो गई संस्था है। नए-नए लोग आ रहे हैं। आज कल वर्कशाप ओरिएंटेड नाटक भी बहुत हो रहे हैं। अब वेस्टर्न में भी ऐसी ही रेपेट्री चलने लगी हैं। यह एक नया ट्रेंड है। एन.एस.डी. दिल्ली, भोपाल, रंगमंडल और बेंगलूर रंगमंडल अच्छा काम कर रहे हैं। आज भले गली-गली में नाटक न खेला जा रहा हो। पर चर्चा हो रही है।

थिएटर और मीडिया से कम्पेयर की जब बात चली तो कारंत का कहना था कि टी.वी. से ख़तरा है। थिएटर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। कोई भी समझदार आदमी थिएटर पर ध्यान नहीं दे रहा है। सेमिनार हो रहा है पर गर्मागर्मी नहीं। ठंडा हो गया है माहौल। टी.वी. का जाल इतना घना है कि असर पड़ गया है। इसी लिए नाटक कम हो गए। बड़े शहरों में नाटक नहीं हो रहा है। पर गांवों में हो रहा है। रंगमंच संबंधी लाइब्रेरी नहीं के बराबर हैं। एक एन.एस.डी. के पास है, दूसरा मेरे पास है। मेरे पास पांच हज़ार किताबें हैं थिएटर से संबंधित। तो यह मेरा व्यक्तिगत पागलपन है। पर कितने लोग नाटक पढ़ते हैं? मैं पटना गया था। तो कहा कि आप लाइब्रेरी खोलें तो पचास किताबें मैं दूंगा। पर किसी ने खोला नहीं। मैं सोचता हूं कि हर संस्था के पास अपनी होम मैगज़ीन होनी चाहिए। नाटकों पर चर्चा होनी चाहिए। पर ऐसा कुछ नहीं है। यह पूछने पर कि इस दिक्क़त को कौन दूर करेगा? तो कारंत बोले, शायद समाज ही। वह कहने लगे इतना सब होने के बाद भी रूस में आज भी नाटक ज़रूर पढ़ाया जाता है। संगोठियां ज़रूर होनी चाहिए। भले ही झगड़ा क्यों न हो। पर आज तक लोग जैसे गूंगे हो गए हैं। अब जरा ठंड बढ़ गई है बहस में।

बात फिर नाटकों की ओर वापस आई है। कारंत कहते हैं कि जब जयशंकर प्रसाद कहते थे कि रंगमंच के लिए नाटक नहीं, नाटक के लिए रंगमंच है। तो लोग यह बात मानते नहीं थे। लेकिन प्रसाद के स्कंदगुप्त के दर्जनों शो मैंने किए। दरअसल दुनिया में कहीं भी साहित्यिक और मंचीय नाटक का विभेद नहीं है। पर हिंदी में चला। खूब चला। यह ठीक नहीं है। नाटक, नाटक है।

वह कहते हैं कि मैं थिएटर के लिए हमेशा आशावादी रहूंगा। मैं भले ही रंगमंच से निवृत हो जाऊं, पर रंगमंच निवृत नहीं होगा। बात निर्देशक के निरंकुश होने की चली तो कारंत बोले मैं निर्देशक को दोषी नहीं पाता। यह कहने पर कि आप को नहीं लगता कि निर्देशक की मनमानी और उसके बूटों तले लेखक कितना कुचला गया, ख़ास कर हिंदी लेखक तो नतीजतन अच्छे नाटकों की निरंतर कमी होती गई। और अब अकाल पड़ गया है? कारंत बोले आप के प्रश्नों के पीछे बहुत पूर्वाग्रह है, इनका जवाब नहीं दे सकता। पर यह ज़रूर है कि निर्देशक को मैं दोषी नहीं पाता। अब किसी एक ख़ास समूह के लिए आप बात कह रहे हों तो बात और है। यह ज़रूर है कि आज रंगमंच में थोड़ी सी मंदी आ गई है। तो भी किसी न किसी रूप में नाटक करने की जो चेतना है। वह जागृत है। अभी आप पांडवानी और तीजनबाई की बात कर रहे थे तो क्या पांडवानी नाटक से बाहर है?

अल्काज़ी और शंभू मित्रा के बाद आप की पीढ़ी ने थिएटर की वह परंपरा नहीं खड़ी की? पूछने पर कारंत ने प्रति प्रश्न किया, आप ने यह नहीं पूछा कि हिंदी प्रदेशों से जो लोग एन.एस.डी. से ट्रेनिंग ले कर निकले वह लोग कहां गए? और फिर ड्रामा स्कूल अल्काज़ी से बहुत आगे जा चुका है। अल्काज़ी ने 16-17 वर्ष काम किया। पर अब वापस भी आ जाएं तो वह कुछ नहीं कर सकते। तो आप का यह सवाल मुझे ठीक नहीं लगता। और जो आप बार-बार अल्काज़ी-अल्काज़ी की रट लगाए हुए हैं। तो इधर एन.एस.डी. के लिए उन्होंने तीन नाटक किए। पर कन्नड़ नाटक अल्काज़ी अच्छा नहीं कर पाए, अल्काज़ी पकड़ नहीं पाए। मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का एक संवाद है कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। तो समय अल्काज़ी के हाथ से निकल गया है। बात एन.एस.डी. में कारंत के कार्यकाल में आत्महत्याओं की चली, तो वह बोले, इससे रंगमंच का क्या? यह कहने पर कि यह सवाल आज भी वहां गूंजता है। कारंत का कहना था, वहां भी आदमी रहते हैं, मठ थोड़े ही है। आज तक किसी ने नहीं कहा कि एन.एस.डी. की ज़रूरत नहीं है।

आप को एक समय में थिएटर में लोक संगीत के प्रयोग के नाते हम लोग जानते थे। पर अब थिएटर से लोक संगीत का प्रयोग लगभग बिसरता जा रहा है। आप को क्या लगता है? कारंत बोले ख़त्म होना स्वाभाविक है। क्यों कि पहले वेस्टर्न से प्रभावित था हमारा थिएटर, तो वह बदलाव ज़रूरी था। अपनी पहचान के लिए थिएटर ने लोक नाटकों से प्रेरणा ली। और इसमें कुछ ग़लत भी नहीं था। इस मामले में हमारे गुरू हैं हबीब तनवीर। उन्होंने बहुत पहले आगरा बाज़ार जैसे नाटक किए। लोक संगीत पर आधारित। पर अब यह बात ख़त्म हो रही है तो अच्छी बात है। क्यों कि अब और भी आगे की चीज़ें आने लगी हैं। और अब स्थिति अच्छी है। एक निर्देशिका अपने अभिनेता के बारे में विश्लेषण करती है। पर सोचिए एक समय वह भी था कि हिंदी के अवार्ड के लिए कोई अभिनेता नहीं मिलता था। बात फिर मुड़ी है और कारंत कह रहे हैं कि अब हिंदी रंगमंच पर बात भी हो रही है और जो कोई कहता है कि मैं संघर्ष कर रहा हूं तो यह सहज गुण है उसका। फ़िल्म में तो जो कोई संघर्ष कर रहा है वह अपने अकेले के लिए कर रहा है। पर रंगमंच में एक कोई अकेला संघर्ष नहीं करता।

थिएटर को आखिर संभव फिर से कैसे बनाया जाए? सवाल पर कारंत का कहना था कि अभी मुंबई में गांधी वर्सेज गांधी नाटक चल रहा है। पॉपुलर है। लेकिन हमारी राय में नाटक पॉपुलर होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है गर्मी पैदा करना। मैंने कर्नाटक में देखा अगर नाटक में सफल होना है तो पहले दर्शक चाहिए। तो दर्शकों को ध्यान में रख कर मैंने अभिनेता तैयार किए। पर दस साल बाद प्रसन्ना ने कहा कि दर्शकों के लिए नाटक देना चाहिए। यह आइडियालॉजी रखा। पर आज भी आइडियालॉजी को उतना महत्व मैं नहीं देता जितनी कि रंगमंच की गतिविधियों को। अब आप ही बताइए कि उत्तर प्रदेश में कई चीज़ें अस्थिर हैं। राजनीति में भी साहित्य में भी और कला में भी अस्थिरता होगी? आप बता सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में किस क्षेत्र में अच्छा काम हो रहा है? तो सिर्फ़ एक थिएटर से ही एक अच्छी उम्मीद आप क्यों लगा बैठते हैं? मैं दिल्ली से निकल कर अपने गांव नहीं गया। एन.एस.डी. से बाहर मुझे सबसे पहला मौक़ा लखनऊ में ही मिला। हयवदन किया 1972 कि 73 में। सारे लखनऊ के लोगों को ले कर। मैं मानता हूं कि टी.वी. का भी यह शुरू-शुरू का असर है। जैसे हिंदी फ़िल्मों ने पारसी थिएटर को ख़त्म किया। राधेश्याम कथा वाचक का ज़ोर था तब। आगा हश्र कश्मीरी के नाटक चलते थे। पर हिंदी सिनेमा उनको खा गया। पारसी नाटक ख़त्म सा हो गया। पर नाटक नहीं। क्यों? क्यों कि पारसी थिएटर जो दिखाता था वही चीज़ फ़िल्म ज़्यादा अच्छी तरह से दिखाने लगी। तो पारसी थिएटर लोग क्यों देखते? ऐसे में हमने जयशंकर प्रसाद के नाटक करने शुरू किए। और आज भी हम पाते हैं कि प्रसाद के नाटक काफी महत्वपूर्ण हैं। खैर नाटकों में प्रगति तो हुई। पर तामझाम भी चला। पर तामझाम ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। यह बहुत पहले मोहन राकेश ने कहा था। दरअसल थिएटर में ह्यूमन वैल्यू ज़्यादा इम्पार्टेंट है। कोई न्यूज़ कहानी कैसे बनती है? एक राजा था, मर गया, यह न्यूज़ है। पर एक राजा मर गया, फिर उसके दुःख से रानी भी मर गई तो यह कहानी बन गई। पर अब हर कोई चाहता है कि नाटक को सशक्त बनाया जाए। तो नाटक का आलेख ही नहीं, मंच सज्जा, वेशभूषा, विज्ञापन, ब्रोसर में भी बहुत परिवर्तन करना पड़ेगा। अभी जो मंदी आ गई है थिएटर में उससे घबड़ाने की ज़रूरत नहीं है, वह स्वाभाविक है। पारसी थिएटर को जब फ़िल्मों ने खाया था, तो अंधकार सा छा गया था। साहित्यिक और मंचीय नाटक के विभेद ने भी मुश्किल में डाला था। मेरा कहना है कि अगर नाटक है तो साहित्यिक गुण होना चाहिए और साहित्यिक है तो नाटकीय गुण भी होना चाहिए।

कारंत कहते हैं कि एक समय खुद भी मैं भारतीय रंगमंच और हिंदी नाटक पर थीसिस लिखने वाला था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मेरे गाइड थे डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा। पर मैंने थीसिस जमा नहीं की। पर तब मैंने भी कहा था कि प्रसाद का नाटक मंचीय नहीं है। पर एन.एस.डी. में जाने के बाद मुझे यह अपनी ही बात ग़लत लगी। और मैंने वहां प्रसाद के पांच-छह नाटक किए। तो प्रसाद के नाटकों को मंचीय न कहना मेरी ग़लती नहीं थी। दरअसल यह एक भ्रम था। और उसका कारण यह था कि प्रसाद के नाटक करने के लिए श्रम चाहिए, आसक्ति चाहिए। और यही लोगों में नहीं होता। इसी से लोग बचते हैं। तो कह देते हैं कि प्रसाद के नाटक मंचीय नहीं हैं। मैं अपनी बात कहूं तो इस समय मैं प्रसाद और भारतेंदु से बहुत प्रभावित हूं। प्रसाद और भारतेंदु मेरे लिए मूल धन हैं। और सबसे ज़्यादा इन्हीं के नाटक मैंने किए भी। क्यों कि इनका नाटक बड़ी डिमांड करता था, ट्रेनिंग की।

आप जो कहते हैं कि रंगमंच सुधारने की बात तो अगर मैं कहूं कि सब जगह रंगमंच सुधार दूंगा तो यह बहुत बड़ा अहंकार होगा ना ! दरअसल हिंदी रंगमंच को सुधारने के लिए दर्शक चाहिए। और दर्शक बनाने के लिए मैं सबसे पहले योग्य नाटक खोजूंगा। अभिनेता नहीं खोजूंगा। जो हैं उन्हीं से काम कराऊंगा। जैसे सबसे पहले मैंने लखनऊ में हयवदन किया तो पद्मिनी की भूमिका के लिए मैंने शोभना को चुना था। आज वह दूरदर्शन दिल्ली में समाचार वाचिका है। पर तब वह पढ़ रही थी बी. ए. में। अनिल रस्तोगी को लिया, कपिल बनाया था। विजय वास्तव को देवदत्त बनाया था। यह सभी नए थे। हल्लो भइया को लिया। नाटक में हल्लो-हल्लो आता है। तभी से उसका नाम हल्लो भइया पड़ गया। हयवदन नाटक कठिन था, शरीर किसी का, मस्तक किसी का इस बात को नए कलाकारों के मार्फ़त कहना आसान नहीं था। लेकिन मैंने किया। नए लोगों को ले कर किया। क्या आज भी अगर लखनऊ का रंगमंच सुधारने के लिए आप को बुलाया जाए तो क्या आप आना चाहेंगे? कारंत बोले, सरकार के कहने से नहीं। रंगमंच वाले बुलाएं तो आ जाऊंगा।

कारंत अपने रंगकर्म यात्रा के बाबत बताते हैं कि मैं हिंदी प्रचारक था। और ठीक से हिंदी सीखने के लिए बनारस आया था। संगीत भी वहीं सीखा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी में अपना नाम लिखाया। तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वहां मेरे अध्यापक थे। नामवर भी थे। और जब नाटक पर थीसिस लिखने की बात आई तो मुझे लगा कि नाटक को भी समझ लेना चाहिए। तो नाटक को समझने के लिए मैं नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा दिल्ली गया। मैं तब 32 वर्ष का था। और प्रोफेसर बनना चाहता था। और भारतीय रंगमंच पर अपने शोध को पुख्ता बनाने के लिए नाटक की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी। पर देखिए विधि ने कहां से कहां पहुंचा दिया। तीन साल एन.एस.डी. में पढ़ाई करने के बाद भी कर्नाटक वापस नहीं गया। दिल्ली में ही रहा। एक स्कूल में काम करने लगा। वहां भी नाटक ही सिखाता था। फिर तब का दिन है और आज का दिन कि मैंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। और नाटक ने मुझे छोड़ा नहीं। आज मैं जब भी सोचता हूं थिएटर ही सोचता हूं, कुछ और नहीं। मैं संगीत भी जानता हूं। बाक़ायदा। पर कभी संगीत की बैठक करूं। यह कभी मन में नहीं आया। हालांकि थिएटर करता हूं तो कई बार मुझे लगता है कि मैं रिपीट कर रहा हूं। पर संगीत में मैं अपने को रिपीट करता नहीं पाता। बावजूद इसके मैं संगीत छोड़ सकता हूं। लेकिन थिएटर नहीं। अब यह बात भी ज़रूर है कि थिएटर बिना संगीत के नहीं होता ना ! जब कि संगीत बिना थिएटर के भी हो सकता है। तो मैं थिएटर ही हरदम करते रहना चाहता हूं। क्यों कि इसमें संगीत भी है और थिएटर भी। शायद इसी लिए इन दिनों मैं लाइट एंड साउंड प्रोग्राम भी करने लगा हूं। जिसमें थिएटर और संगीत दोनों की ही अनिवार्यता होती है।

(बातचीत राष्ट्रीय सहारा से साभार. 1998 में लिया गया इन्टरव्यू)

Wednesday, July 4, 2012

एक थाली में खाते हैं राम और अली


रमेश शुक्ला 'सफर', अमृतसर दिन : सोमवार समय : दोपहर के दो बजे स्थान : अमृतसर का विरसा विहार
दोपहर के खाने के लिए जैसे ही अंतरराष्ट्रीय थियेटर वर्कशाप में आधे घंटे का अवकाश होता है, वर्कशाप में हिस्सा लेने वाले आर्टिस्ट एक साथ खाना लेने के लिए लाइन में खड़े हो जाते हैं। लाइन में कोई हिंदू है, कोई सिख है तो कोई मुसलमान या फिर ईसाई। कोई जाति-पाति का भेद नहीं, सभी एक साथ लाइन में खाना लेते हैं और एक साथ खाने के लिए बैठ जाते हैं। खाने का स्वाद तब और बढ़ जाता है जब किसी थाली में एक साथ भारत काराम तो पाकिस्तान के अली निवाला तोड़ते हैं। कहीं बिहार के सचिन और पंजाब के हैरी संधू तो कहीं स्वलेंजी और सुखजीत सिंह एक ही थाली में पेट पूजा में जुटे हैं। 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' किसी शायर की लिखी यह चंद लाइनें इन्हीं के लिए शायद लिखी गई होंगी। दैनिक जागरण से बातचीत में पाकिस्तान के मोहम्मद कैसर अली कहते हैं कि वह पिछले करीब एक महीने से वर्कशाप में हैं। ऐसा लगता ही नहीं है कि वह अपने देश में नही है। यहां सभी लोगों से लगाव हो गया है। सुनील, गुरजीत सिंह, रामकुमार, जतिंदरपाल, अशोक, अभिषेक, दिनेश आदि कई लोग हैं जिनके साथ इतने कम समय में घुलमिल गया। पता ही नहीं चलता कि अमृतसर में हूं या लाहौर में। रंगमंच से सीखा है कि मजहब से बड़ी इंसानियत है। आज अगर अलग-अलग मजहब के होते हुए भी एक थाली में खाना खा रहे हैं तो यह इंसानियत की जीत है। खुशी है कि रंगमंच हमेशा दो दिलों को जोड़ने की बात करता है। मजहब की बड़ी-बड़ी बाते करने से पहले एक अच्छा इंसान बनना होगा। कैसर कहता है कि सीमाओं की कंटीली तारें अवाम का दर्द नहीं समझती। बेजान तारें दोनों देशों को अलग करती हैं। दोनों देशों के युवा नफरत से ऊब चुके हैं, वे प्यार और सुकून चाहते हैं। गोलियां कहीं भी चले, राकेट, मिसाइल किसी भी देश में गिरे नुक्सान तो अवाम को ही उठाना पड़ेगा। वर्कशाप में हिस्सा लेने सचिन, गुरजीत सिंह, बलजिंदर, अमनदीप, गुरप्रीत कहते हैं कि रंगमंच ऐसा मंच है जहां भेदभाव, ऊंच-नीच नहीं होता। कलाकार की न कोई जाति होती है और न ही वह किसी एक संप्रदाय से बंधा ही रह सकता है। वर्कशाप पांच जुलाई को खत्म होगी। (दैनिक जागरण से साभार)

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