RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Thursday, November 15, 2012

बहुभाषिक नहीं होने के खतरे


- गिरीश कारनाड

हमारी शिक्षा व्यवस्था का एकल भाषा आधारित होना बहुत ही भयानक है. जहां स्कूलों में बच्चे अंततः एक ही भाषा ‘अंग्रेजी’ में सीखने को बाध्य हैं. आखिर हमारे स्कूलों में सीखने का माध्यम एक ही भाषा क्यों है? मैंने अंग्रेजी दसवीं के बाद पढ़ी. बहुभाषिकता की योग्यता का तेजी से क्षरण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. जबकि बच्चों में एक से अधिक भाषाओं के सीखने की क्षमता होती है और जो लोग बॉर्डर पर रहते हैं वे सब बहुत ही सहजता से कई भाषाएं बोल-समझ लेते हैं. बहुभाषिक होते हैं. यह कैसी बहुभाषिक विचित्र स्थिति है कि एक ओर जहां क्षेत्रीय भाषाओं में अनेको सेटेलाइट चैनल हैं तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी सीखने और रोजगार की भाषा बनकर सभी भारतीय भाषाओं को लीलता जा रहा है. यह एक विरोधाभासी सचाई है कि एक ओर तो हमारी मातृभाषाएं ‘हंस और रो’ रही हैं जबकि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने की होड़ में लगे हैं ताकि वे मौजूदा रोजगार के बाजार में फिट हो सकें.

औपनिवेशिकरण ने हमारे जीवन और कलाओं पर गहरा प्रभाव डाला है. जाति के प्रति हमारी समझ, संस्कृति, कला और भाषा के जिन विचारों और अवधारणाओं के बीच हम रह रहे थे उसके नये मूल्यांकन को अंग्रेजी ने बहुत हद तक प्रभावित किया है. हम देखते हैं कि जहां नृत्य और संगीत जैसे कुछ कला रूप जटिल औपनिवेशिक संवाद के कारण और तेजी से विकसित होते हैं जबकि स्थापत्य एवं चित्रकला अपना आधार खो देते हैं. रंगमंच पर शेक्सपीयर का प्रभाव व्यापक तौर पर पड़ता है और पचास के दशक तक हमें ऐसी प्रभावशीलता वाला कोई भारतीय नाटक नहीं दिखाई देता. टैगोर जितने महान कवि हैं उतने ही महान नाटककार नहीं हैं. उनके नाटक दोयम दर्जें के हैं. उनके लिखे नाटकों में से कुछ ही नाटक पर काम हुआ है। बीते 50 साल में भारत ने बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर जैसे तमाम नाटककार पैदा किए हैं. वे टैगोर से कहीं बेहतर हैं.

औपनिवेशिक आधुनिकता के कारण ही तकनीक के नये रूपों से हमारा परिचय हुआ जैसे कि पिं्रटिंग और फिल्म. लंबे समय तक गीत, संगीत और नृत्यों के भरमार की वजह से भारतीय फिल्मों की आलोचना की जाती रही है. पर ध्यान देने वाली बात है कि इसी एक विशेषता ने भारतीय फिल्मोद्योग को ‘हॉलीवुड की खुराक’ बनने से बचा लिया. जबकि यूरोपीयन सिनेमा हॉलीवुड से बच नहीं पाया. हां, सही है कि भारतीय सिनेमा ‘टाइटेनिक’ नहीं बना सकता. पर यह भी सच है कि हॉलीवुड भी ‘हम आपके हैं कौन’ का निर्माण नहीं कर सकता.

- अजीम प्रेमजी युनिवर्सिटी, मुम्बई में 8 नवंबर 2012 को दिए गए व्याख्यान का अंश. अनुवाद एवं प्रस्तुति: रंगवार्ता source : http://www.thehindu.com/news/states/karnataka/bemoaning-the-loss-of-bilingualism/article4078293.ece

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