RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Thursday, April 7, 2016

10 प्रमुख भारतीय नस्लवादी फिल्में


सिनेमा शुरू से ही एक नस्लीय हथियार रहा है जिसके द्वारा आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार आज तक जारी है। दुनियाभर के सिनेमा में आदिवासियों को जंगली, बर्बर, असभ्य और हिंसक बताना तथा आदिवासी औरतों को ‘माल’ की तरह दिखाना-परोसना एक आम परिदृश्य है। चाहे वह 1915 में अमेरिका में बनी ‘द बर्थ ऑफ ए नेशन’ हो या भारत में 1917 में बनी ‘लंका दहन’, 1936 में बनी ‘इज्जत’ और 1938 में बनी तमिल फिल्म ‘वनराज कर्जन’ हो। हाल में प्रदर्शित हुई और कुछ राज्यों में प्रतिबंधित हुई ‘मैसेंजर ऑफ गॉड-2’ तक में आदिवासियों को ‘शैतान’ और ‘लाचार’ के रूप में चित्रित करने का नस्लीय सिलसिला जारी है।

कला के क्षेत्र में ‘ब्लैकफेस’ रंगमंच की खोज 1830 के आसपास अमेरिकन थिएटर ने की। मुख्यधारा में लोकप्रिय चरित्र टार्जन की खोज 1912 में एडगर राइस बर्रो ने की जो सिनेमा के पर्दे पर पहली बार 1918 में आई ‘टार्जन ऑफ द एप्स’ के रूप में। तब से लेकर आज तक टार्जन पर 200 से अधिक फिल्में बन चुकी हैं। टार्जन ने लोकप्रिय मनोरंजन उद्योग में जंगल और जंगल में रहने वालों को किसी बाहरी ग्रह के निवासियों की तरह परोसा जो दिखते तो इंसान की तरह हैं, मगर इंसान हैं नहीं। यह पूरा नजरिया ‘जंगल राज’ के रूप में सामने आता है। जंगल राज यानी एक ऐसी व्यवस्था जहां कोई व्यवस्था नहीं है। जहां लोग अराजक हैं, हिंसक हैं, बर्बर हैं, असभ्य हैं और जहां बलवान कमजोर को मारकर खा जाता है। वहीं, कला, साहित्य और सिनेमा में, यानी मनोरंजन और विज्ञापनों के बाजार में इस जंगल राज को या जंगलीपन को ‘वाइल्डनेस’ के रूप में बेचा जाता है। वाइल्डनेस का यहां अर्थ सिर्फ और सिर्फ चरम उत्तेजना है। चरम बर्बरता की हद तक उत्तेजना। टार्जन टाइप की फिल्में और कंडोम एवं विभिन्न किस्म के बॉडी स्प्रे के विज्ञापन इसके सबसे बढ़िया उदाहरण हैं।

भारतीय फिल्मों में जंगली यानी आदिवासियों पर केन्द्रित पहली फिल्म ‘इज्जत’ 1936 में बनी। इसे फ्रैंज ऑस्टन ने निर्देशित और हिमांशु राय ने प्रस्तुत किया था। उस समय की स्टार और बोल्ड अभिनेत्राी देविका रानी ने इसमें भील आदिवासी युवती और जानेमाने कलाकार अशोक कुमार ने भील युवक की भूमिका निभायी थी। फिल्म को प्रोड्यूस किया था बॉम्बे टॉकीज ने। टार्जन की पॉपुलर छवि वाली पहली फिल्म भी ‘इज्जत’ के साथ-साथ ही 1937 में आई। होमी वाडिया के निर्देशन में वाडिया मूवीटोन कंपनी ने ‘तूफानी टार्जन’ नाम से पहली टार्जन फिल्म बनायी। यह हिंदी के साथ-साथ तमिल में भी प्रदर्शित हुई थी। इसमें एक आदिवासी कैरेक्टर ‘दादा’ को जिसकी भूमिका बोमन श्राफ ने की है, जिसे फिल्म में आधा आदमी आधा वनमानुष बताया गया है। 1937 से 2000 तक भारतीय फिल्मोद्योग ने टार्जन कैरेक्टर वाली 22 फिल्मों का निर्माण किया है।

अब तक आदिवासी जीवन व समाज को किसी न किसी रूप में परंतु प्रमुखता से चित्रित करने वाले फिल्मों की संख्या 100 से ज्यादा हैं। इसमें उन फिल्मों की गिनती शामिल नहीं है, जिनमें आदिवासी चरित्रों को सिर्फ नाच-गान यानी ‘झींगा ला-ला हुर्र, हुर्र ...’ करते हुए दिखाया गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय फिल्मोद्योग और पॉपुलर कल्चर का अरबों रुपये का बाजार नस्लीय रंगभेद, जातिगत पूर्वाग्रहों और धार्मिक एवं लैंगिक उत्पीड़न पर खड़ा है।

बहुजातीय संस्कृति वाले भारतीय समाज में एक धर्म, एक संस्कृति, एक भाषा का नस्लीय फिल्मी मनोरंजन का बाजार खड़ा करने का काम दादा फाल्के ने किया। सिनेमा और फाल्के के आने के पहले मनोरंजन का पॉपुलर बाजार पारसी थिएटर और नौटंकी कंपनियां थीं। जिनमें डाकुओं, ऐतिहासिक किस्से और ऐय्यारों का ड्रामा हुआ करता था। रामलीला और रासलीला जैसी नाट्य परंपराएं मनोरंजन के बाजार की बजाय विशुद्ध रूप से धार्मिक अवसरों से जुड़े थे। फाल्के ने 1917 में ‘लंका दहन’ बना कर धर्म को मनोरंजन के सिनेमाई बाजार में बदलने का काम किया। 1913 में आई ‘हरिश्चंद्र तारामति’ के बाद ‘लंका दहन’ उनकी दूसरी फिल्म थी जिसकी ब्लॉकबस्टर कमाई ने मनोरंजन के बाजार में धार्मिक यानी नस्लीय ट्रेंड को पूरी तरह से स्थापित कर दिया। और ‘लंका दहन’ के आठ साल बाद 1925 में 27 सितंबर को भारत के बहुसंख्यक नस्लवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। विजयादशमी के दिन। यानी रावण वध के दिन। अनार्य राक्षसों, असुरों, आदिवासियों के संहार के पारंपरिक वार्षिक उत्सव दशहरा के दिन।

20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिका में एक ऐसी फिल्म आई जिसे फिल्मी इतिहासकारों का एक बड़ा वर्ग दुनिया का पहला फुल लेंथ फीचर फिल्म मानता हैै। डी. डब्ल्यू. ग्रिफिथ (1875-1948) की फिल्म ‘द बर्थ ऑफ ए नेशन’ (1915) निःसंदेह सिने ताकत और कला की बेजोड़ प्रस्तुति है। पर इसी के साथ यह दुनिया की सबसे नस्लीय फिल्म भी है। जिसमें गोरों का महिमामंडन और काले लोगों का स्टीरियोटाइप नकारात्मक चित्रण हुआ है। क्या यह महज संयोग है कि ठीक इसी समय भारत में दादा फाल्के ‘लंका दहन’ (1917) बनाते हैं जो नस्लीय और धार्मिक फिल्म है। जिसमें असुर आदिवासियों की हत्या करने वाले आर्यों का महिमांमंडन करते हुए ब्राह्मणवादी मूल्यों का गुणगान किया गया है। वास्तव में दादा फाल्के भारतीय सिनेमा के नहीं हिन्दू सिनेमा के ‘पिता’ हैं। उन्होंने सिर्फ और सिर्फ धार्मिक और मिथकीय फिल्में बनायी और सिनेमा कला के जरिए हिंदू धर्म का प्रचार-प्रसार किया। दादा फाल्के ने भारत की साझी सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासत की अवहेलना ही नहीं की बल्कि अपनी फिल्मों से नस्लीय भेदभाव और हिंसा को भी भरपूर खाद-पानी दिया। उनकी सारी फिल्में देश के मूलनिवासियों, आदिवासियों, राक्षसों और असुरों की हत्याओं का महिमामंडन करती हैं।

1909 में पंजाब में सबसे पहले और फिर 1910 में अखिल भारतीय स्तर पर एक राजनीतिक पार्टी के रूप में हिंदू महासभा का गठन हुआ। हमें बताया जाता है कि 1909 में मुस्लिम लीग की स्थापना की प्रतिक्रिया में हिंदू महासभा अस्तित्व में आया। इसके बाद 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना होती है और आदिवासी इलाके में हमें वनवासी कल्याण आश्रम पहली बार 1952 में दिखाई देता है। इसी समय यानी 1953 में ‘जंगल का जवाहर’ सिनेमाघरों में प्रदर्शित होती है जिसमें जंगली लोगों की सेवा करने वाले एक डॉक्टर और उसकी बेटी के एडवेंचरस कारनामों को होमी वाडिया ने ग्लैमरस तरीके से प्रस्तुत किया है। साथ ही 1954 में क्लासिक मानी जानेवाली ‘प्रगतिशील’ बिजन भट्टाचार्य की कहानी पर बनी हिंदी फिल्म ‘नागिन’ आती है जिसमें आदिवासियों को ‘जहर बेचनेवाला’ बताया जाता है। ध्यान रहे कि यह वही समय है जब दक्षिण के तेलंगाना, पूरब के तेभागा व (तत्कालीन मध्यप्रदेश, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल सहित) ग्रेटर झारखंड और उत्तर-पूर्व के आदिवासी अपने नैसर्गिक पुरखा अधिकारों व स्वायत्तता की लड़ाई लड़ रहे थे। उसी समय में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना आरएसएस ने सरकार के सहयोग से तत्कालीन मध्यप्रदेश के जशपुर में की थी। जबकि विश्व हिंदू परिषद 29 अगस्त 1964 को अस्तित्व में आता है।

बीसवीं सदी के दूसरे दशक से लेकर सातवें दशक तक में हुए हिंदू नस्लवादी संगठन के सामाजिक और राजनीतिक उभार व गठन के पीछे फाल्के की नस्लीय फिल्मी परंपरा की भयावह भूमिका है। हिमांशु राय, होमी वाडिया, बिमल राय, सत्यजीत रे, बिजन भट्टाचार्य, ऋत्विक घटक, राजेन्द्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास और तमिल के आर नारायण मूर्ति जैसे गंभीर व प्रगतिशील माने जानेवाले फिल्मकार और लेखक नस्लीय परंपरा के इस यथास्थितिवाद को अपनी फिल्मों से बनाये रखते हैं।

इस दृष्टि से 2015 तक की 10 भारतीय नस्लवादी फिल्में निम्नांकित हैं जिनमें आदिवासियों का स्टीरियोटाइप नकारात्मक और नस्लीय चित्रण हुआ है -

1. नागिन (1954) हिंदी
2. अरण्येर दिनरात्रि (1970) बांग्ला
3. ये गुलिस्तां हमारा (1972) हिंदी
4. अल्लुरी सीताराम राजु (1974) तेलुगू
5. आक्रोश (1980) हिंदी
6. मैसी साहब (1985) हिंदी
7. टैंगो चार्ली (2005) हिंदी
8. ओंगा (2012) ओड़िया/हिंदी
9. अरवान (2012) मलयालम/तेलुगू
10. मैसेंजर ऑफ गॉड-2 (2015) हिंदी

1954 में रिलीज हुई बॉलीवुड की ‘नागिन’ संभवतः उत्तर-पूर्व की झलक दिखलाने वाली पहली पॉपुलर मसाला फिल्म है। बॉलीवुड निर्मित अन्य चार फिल्में हैं - ‘ये गुलिस्तां हमारा’ (1972), ‘दिल से’ (1998), ‘टैंगो चार्ली’ (2005) और ऑस्कर के लिए 2014 में भारत की ओर से भेजी गयी ‘लियर्स डाइस’ (2013)। ‘नागिन’ फिल्म की शुरुआत इन शब्दों के साथ होती है कि ‘यह फिल्म किसी भी मौजूदा या पुरानी जाति के जीवन से संबंध नहीं रखती’। लेकिन फिल्म का पहला ही दृश्य अपने कॉस्ट्यूम्स और प्रॉपर्टी के जरिए बता देता है कि यह उत्तर-पूर्व के आदिवासियों की कहानी है। फिल्म में दो कबीले बताए गए हैं जो जहर का व्यापार करते हैं और व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता के चलते दोनों एकदूसरे के खून के प्यासे हैं। सबसे सोचनीय पक्ष यह है कि फिल्म की कहानी प्रगतिशील वामपंथी नाटककार बिजन भट्टाचार्य ने लिखी है। गैर-आदिवासी समाज का दक्षिणपंथी हो या वामपंथी वह आदिवासियों के प्रति कैसी दृष्टि रखता है और उनसे किस हद तक नस्लीय घृणा करता है, इसका सिनेमाई दस्तावेज है ‘नागिन’।

इसी तरह 1972 में आई देवानंद अभिनीत और आत्माराम निर्देशित ‘ये गुलिस्तां हमारा’ भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि पर है। इसमें भी उत्तर-पूर्व के आदिवासियों को देश के लिए जहरीला यानी ‘देशद्रोही’ के रूप में दर्शाया गया है। इसका एक गाना ‘मेरा नाम आओ ...’ सीधे-सीधे अरुणाचल के ‘आओ’ आदिवासियों पर केन्द्रित थी जिसे उत्तर-पूर्व के आदिवासियों के विरोध के कारण संपादित करना पड़ा था। ‘टैंगो चार्ली’ (2005) में भी उत्तर-पूर्व के विद्रोही आदिवासियों को इसी तरह से दिखाया गया जिसे उत्तर-पूर्व में जबरदस्त विरोध के कारण प्रतिबंधित करना पड़ा।

2014 में भारत की ओर से ऑस्कर को भेजी गई फिल्म ‘लियर्स डाइस’ हिमाचल की पृष्ठभूमि पर है। इसमें एक पहाड़िन महिला अपनी बच्ची के साथ दिल्ली में मजदूरी करने आए और फिर गुम हो गए पति को ढूंढने आती है। उसकी इस तलाश में सेना का एक भगोड़ा सिपाही साथ देता है। मतलब फिल्म बताती है कि सेना ही उत्तर-पूर्व के आदिवासियों की रक्षक है। सेना का भगोड़ा फौजी भी कितना ‘मानवीय’ होता है ‘लियर्स डाइस’ दर्शकों को यही बताती है। यहां यह याद रखना होगा कि उत्तर-पूर्व के आदिवासी ‘आफ्सपा’ जैसा कानून और अपने इलाके से सेना को हटाने के लिए लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।

- अश्विनी कुमार पंकज

(यह लेख ‘फॉरवर्ड प्रेस’ के अप्रैल 2016 अंक में छपा है.)

Tuesday, May 21, 2013

हिंदी समाज हिंदी लेखकों के पक्ष में नहीं है - असगर वजाहत




अक्सर हिंदी नाटकों में धन की कमी और रंगकर्मियों की आजीविका के स्थायी बंदोबस्त को लेकर सवाल किए जाते हैं। इस प्रश्न पर जहां तक मेरी राय का सवाल है तो मैं तो साफ तौर पर यही कहूंगा कि हिंदी नाटक को समाज का सहयोग नहीं मिल रहा है। आज भी वह राज्याश्रय में ही पल रहा है। जब तक हिंदी नाटक सरकारी हाथों से मुक्त नहीं होगा। तब तक वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता और न ही उसका कोई भला होने वाला है। मराठी, कन्नड़, मलयालम में नाटकों को जनता का सहयोग मिलता है। मैंने जितने भी उपन्यास, नाटक या कहानियां लिखी हैं उनमें दूसरी बातों के अलावा सामाजिक तथ्य जरूर मिलेंगे। यह बात दीगर है कि समय और जरूरत के मुताबिक हमारी भाषा में बदलाव आता रहता है। अच्छा निर्देशक ही अच्छे नाटक के साथ न्याय कर सकता है। क्योंकि वह जानता है कि कौनसे शब्द में नाटक की आत्मा बसी है। बस! उसका काम उसे दर्शकों तक संप्रेषित करना होता है। इसके अलावा कलाकार की अच्छी एक्टिंग का भी सहयोग होता है। फिल्म निर्माता- निर्देशक मणि कौल ने मुझे फिल्म माटी के मानस में एक भूमिका ऑफर की थी। पर व्यस्तताओं की वजह से अभिनय नहीं कर सका।

हिंदी भाषा की स्थिति दयनीय

बांग्ला, कन्नड़ और मलयालम आदि भाषाएं भाषायी दृष्टि से सुदृढ़ है, वहीं हिंदी भाषा के मौजूदा हालात दयनीय हैं। दरअसल हिंदी समाज हिंदी लेखकों के पक्ष में नहीं है, जबकि हिंदुस्तान में अंग्रेजी तर्ज के लेखकों को सिर्फ अखबार ही नहीं प्रचार के दूसरे संसाधन भी तवज्जो देते हैं। जिस तरह यूपी, बिहार में हिंदी के स्कूल खत्म हो रहे हैं। उनकी जगह अंग्रेजी भाषा के निजी स्कूलों की तादाद बढ़ रही है। वह हिंदी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है। करीब तीन साल पहले जब मैं शायर फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी में हुए जलसे में शिरकत करने पाकिस्तान गया तो देखा कि वहां सब कुछ है पर, फकत धर्म ही नहीं है। पाकिस्तान में घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर इस्लाम संबंधी स्लोगन जरूर देखने को मिलते हैं। सत्ता के लिए धर्म का इस्तेमाल किसी भी मायने में मुनासिब नहीं है।

गांधीजी की सोच का ताना-बाना

इन दिनों मेरे लिखे नाटक गोडसे एट गांधी डॉट कॉम के विभिन्न शोज हो रहे हैं। फिल्म अभिनेता टॉम आल्टर इसे मंचित कर रहे हैं। इसमें गांधीजी की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समेत विकास और प्रशासन की स्थिति को मौजूदा दौर में पिरोया गया है। तमाम कथानक का ताना-बाना गांधीजी को गोली लगने और उनके जीवित रहने के बाद बुना गया है। पूरा नाटक फिक्शन पर आधारित है। इसमें एक तरह की डिबेट का चित्रांकन किया गया है, क्योंकि गांधीजी और गोडसे दोनों की आदर्श ग्रंथ गीता की पुस्तक ही थी। इस नाटक में हिंदुस्तान में मौजूद कट्टरपंथी और उदार पंथी विचारधाराओं को गूंथा गया है। इसमें दर्शकों को गांधीजी के क्रिटिक ((कमजोर)) और आदर्श रूप को भी दर्शाया गया है। गांधीजी के आजादी के बाद कांग्रेस को डिजॉल्व करने की पैरवी को भी तार्किक ढंग से दर्शाया गया है।

(जैसा उन्होंने सर्वेश भट्ट को बताया)
दैनिक भास्कर से साभार

Thursday, March 21, 2013

लिपिका दराई हमें तुम पर नाज है



जैसा कि अक्सर होता है. सेलिब्रेटी और बड़े नाम अपने आकार से नए और प्रतिभावान लोगों के रास्ते को संकरा कर देते हैं. लिपिका सिंह दराई के साथ भी ऐसा ही हुआ है. बारीपदा (उड़ीसा) की रहनेवाली 29 वर्षीय लिपिका को किसी निर्देशक की सर्वश्रेष्ठ पहली फिल्म (गैर फीचर) के लिए 60वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया है. यह पुरस्कार उन्हें उनकी डॉक्यूमेंट्री ओड़िया फिल्म ‘एक गाछ, एक मनुष्य, एक समुंदर’ के लिए दिया जाएगा. लिपिका सिंह दराई ने फिल्म इंस्टीट्यूट, पुणे से साउंड इंजीनियरिंग और ऑडियोग्राफी में विषेज्ञता हासिल की है और इन दिनों वह ओड़िसा के लोक व कठपुतली कला को डॉक्यूमेंट करने में लगी हुई है.

जबकि फीचर फिल्म की श्रेणी में यही पुरस्कार हिन्दी फिल्म ‘चिट्टागॉन्ग’ के निर्देशक बेदब्रत पेन तथा मलयालम फिल्म ‘101 चोदियन्गल’ के निर्देशक सिद्धार्थ सिवा को संयुक्त रूप से देने की घोषणा हुई है. लेकिन इरफान के शोर में लिपिका की सफलता दब कर रह गई है जिसने दूसरी बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता है. इससे पहले वह 2010 में हिंदी-मराठी फिल्म ‘गरूड़ा’ (वर्तनी) के लिए बेस्ट ऑडियोग्राफी का का 57वां राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीत चुकी है.

लिपिका क्लासिकल संगीत की भी छात्रा रही है और वह एक बेहतरीन गायिका भी है. ओड़िसा, बालासोर के प्रफुल्ल कुमार दास उसके संगीत शिक्षक रहे हैं. अपनी इस राष्ट्रीय उपलब्धि पर वह कहती है, ‘यह फिल्म एक तरह से मेरे गुरु को श्रद्धांजलि है.’

निःसंदेह इरफान और जिन्हें भी राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले हैं, उनकी चर्चा जरूरी है. हम सब इरफान जैसे कलाकारों को चाहते हैं. लेकिन मीडिया ने जिस तरह से इस युवा निर्देशिका की उपेक्षा की है और कर रही है, उससे विश्वास करना मुश्किल है कि प्रतिभाओं की पूछ होती है. बीबीसी हिंदी ने भी अपने समाचार में अन्य भारतीय मीडिया की तरह उसका उल्लेख करना तक जरूरी नहीं समझा है.

मसला तब और गंभीर हो जाता है, जब कोई विजेता दमित-वंचित समुदाय से आता है. और यह महज संयोग नहीं है कि लिपिका आदिवासी है. वह ‘हो’ आदिवासी समुदाय की बेटी है. हमें नहीं मालूम उपेक्षा उसके आदिवासी होने की वजह से हो रही है या कोई और कारण है. लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जब शिवाजी चंद्रभूषण देवगम को 2007 में ‘फ्रोजेन’ के लिए निर्देशक की सर्वश्रेष्ठ पहली फीचर फिल्म का अवार्ड मिला था, तो मीडिया ने उन्हें भी कवरेज नहीं दिया था. देवगम भी ‘हो’ आदिवासी समुदाय से आते हैं और वे मूलतः चाईबासा, झारखंड के रहने वाले हैं. हो सहित समस्त आदिवासी समुदाय के को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाले इन दोनों निर्देशकों की उपलब्धि पर गर्व है.

ओड़िया मीडिया में लिपिका की खबरें हैं पर कोई भी उसके आदिवासी होने का उल्लेख नहीं कर रहा है. तो क्या यह मान लिया जाए कि लिपिका की उपेक्षा में उसका आदिवासी होना ‘ही’ या ‘भी’ है.

Monday, March 18, 2013

एकलव्य उवाचः सत्य का असत्य



सत्यव्रत राउत की बातों में कितना असत्य है. इसका एक और उदाहरण ‘मत्ते एकलव्य’ या ‘एकलव्य उवाच’ के नाटककार का नाम है. जब हमने उनसे सवाल किया कि आपने आदिवासी एकलव्य को दलित क्यों बताया तो गोल-गोल जवाब के बाद यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया कि आप अपना सवाल निर्देशक से नहीं बल्कि नाटककार कुलदीप कुणाल से करें. उन्होंने कुलदीप का फोन नंबर भी कमेंट में डाल दिया. असत्यता की हद यह है कि ‘मत्ते एकलव्य’ का लेखक कब कुलदीप कुणाल हो जाता है और कब वे स्वयं, कहना मुश्किल है.

सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का मेटा अवार्ड जीतने के बाद daily Pioneer को दिए गए वक्तव्य में उन्होंने कहा है कि वे स्वयं इस नाटक के लेखक हैं और जिसे उन्होंने अपने दिल्ली के एक छात्र के साथ मिलकर लिखा है. The script was written by me and one of my students in Delhi. (लिंक) ध्यान दीजिए वे लेखक का नाम नहीं ले रहे हैं. कह रहे हैं एक छात्र.

इसी तरह जब वे जुलाई 2011 में कोलंबिया जाने की तैयारी कर रहे थे तब इस संबंध में एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस में भी उन्होंने एकलव्य का नाट्यालेख खुद लिखने की बात कही है. It is scripted and directed by Satyabrata Raut, acclaimed playwright ... (लिंक) मतलब जब पुरस्कार, पैसा और नाम की बात हो तो वे खुद इसके स्क्रिप्ट राईटर हो जाते हैं और जब नाटक पर सवाल उठता है तो वे अपने निरीह छात्र को अपनी ढाल बना लेते हैं. यही नहीं, जब नाटक के जरिए खुद को भीड़ भरे ट्रैफिक से निकाल कर आगे ले जाना हो तो इसके कन्नड़ रूपांतरकार के. रामैया जैसे प्रतिष्ठित और साहित्य अकादमी से सम्मानित दलित लेखक हो जाते हैं.

Saturday, March 16, 2013

हमारे लिए आदिवासी पहचान मुद्दा नहीं है


Stage Impressions जो For the love of theatre & because theatre is alive! Stage Impressions (www.stageimpressions.com) is the Mumbai-based theatre appreciation website, co-owned by Deepa Deosthalee and Vikram Phukan द्वारा बनाया गया पेज है ने यह कहते हुए कि वे पॉलटिकल मुद्दे को सपोर्ट नहीं करते रंगकर्मी और Theatre magazine ‘रंगवार्ता के Editor अश्विनी कुमार पंकज की कुछ टिप्पणियों को remove कर दिया है और Block भी. अश्विनी कुमार पंकज ने सत्यव्रत राउत के नाटक ‘मत्ते एकलव्य’ पर सवाल उठाया है कि इस नाटक में आदिवासी एकलव्य को क्यों अछूत और दलित बताया गया है. उन्होंने कहा है कि किसी जातिविहीन चरित्र को सायास जाति का सिद्ध करना एक तरह से आदिवासियों का Cultural Genocide करना है.

हम सभी की बातें यहां रख रहे हैं. आप देखें कि कैसे आदिवासी के नाम पर खेल चल रहा है और जैसे लोग भारत के 12 करोड़ से भी अधिक आदिवासी समुदाय के पहचान को खा जाने की, उसके संस्कृतिकरण करने की कुत्सित पॉलटिक्स कर रहे हैं और सवाल उठाने पर कह रहे हैं कि अश्विनी पंकज पॉलटिक्स कर रहे हैं.

ये लिंक सीधे उस पोस्ट का है जहां बहस चली और कमेंट किए गए : https://www.facebook.com/photo.php?fbid=576170035740338&set=a.191334460890566.46040.153781044645908&type=1&theater

इस लिंक पर चली पूरी बहस यहां है. आप भी देखिए -

Stage Impressions : http://bit.ly/WpchgA | Satyabrata Rout was adjudged the best director at theMahindra Excellence in Theatre Awards for 'Matte Eklayva', an Aadima ಆದಿಮpresentation | Speaking to the The Pioneer (daily), he said, "Eklavya had skills but he suffered just because he did not have a guide, the same happens to so many students today. It is a vital issue which was narrated through folk forms by illiterate people. More than the medium it was the message that was important and I think the message has reached out well to the people" (http://bit.ly/ZHA6ip) | Image courtesy Mohit Kaycee -Satyabrata Rout के साथ. Unlike • • साझा करें • बुधवार 13 March 2013 आपको और 6 अन्य को यह पसंद है. • 7 shares

Stage Impressions : A comment by Ak Pankaj: ‘एकलव्य’ का इस्तेमाल रंगमंच पर भी उसकी आदिवासी अस्मिता को नकार कर हुआ है. इसका प्रमाण है सत्यव्रत राउत का यह स्टेटमेंट जिसमें वे सिर्फ उसे एक ‘सामान्य’ छात्र के बतौर देखते हैं और उसके आदिवासी समुदाय को अपढ़ मानते हैं. वे कहते हैं कि वह इसलिए पीड़ित हुआ क्योंकि उसका कोई गाइड नहीं था. यह कैसी मानसिकता है जो आदिवासियों के विजडम को स्वीकार करने को तैयार नहीं है और ‘मुख्यधारा’ को गुरु बनाए बिना उसका विकास नहीं हो सकता है, ऐसी झूठी उद्घोषणा कर रहा है. आप आदिवासियों की कहानियां उठाते हैं और उसके माध्यम से उनकी नहीं अपने समाज की तकलीफ संप्रेषित करते हैं. बुधवार को 03:51 अपराह्न बजे • पसंद

Stage Impressions : Please read the entire article: "Satyabrata Rout, who won the best director honour for his play Matte Eklavya at the META awards, shared that his production describes the class and caste discrimination faced by students in India.

In 2010 when he was invited to Latin America with the play that is based on Indian mythology or folklore, director Satyabrata Rout was clear about what he wanted to present. But the Herculean task was to come up with the play with the limited number of actors, five. “The company that was sponsoring us only could have taken five people so it was our major limitation. I went to Karnataka and met a guy who runs his organisation called Aadima, the term that derives its name from Aadim, meaning primitive or ancient, without any government support. He is a fantastic screenplay and is know for his work but unfortunately he faced problems just because he belongs to scheduled caste. I narrated him the idea and the concept of the play and he agreed to help us because even he was working towards removing the class and caste barriers from our society. Through him we reached to some remote areas and tribals of Karnataka and chose a narrative form of theatre. In our play the story is told as a narrative through a tribal folk form. Otherwise it was not possible to come up with the play with such a small team,” shared Rout, while he went back to the history to describe the origin of his play Matte Eklavya. The play was recently staged in Delhi as part of Mahindra Excellence in Theatre Awards (META) and Rout received the best director award this year for his play that talks about the deficiencies and how students are treated differently by their teachers just because some belong to a particular cast.

Matte Eklavya means ‘Eklavya once again.’ It is the story from the Mahabharata about this boy named Eklavya, who could not have his training under Guru Dronacharya because he was not a Brahmin. Eklavya did not give up and assumes Guru Dronacharya as his teacher and learns on his own. However, when Dronacharya got to know about the boy’s brilliant skills he asked for his thumb as a Guru Dakshina, so that the boy could never master the bow and arrow. Rout has redefined this story to suit the present times. “I can find the Eklavya in modern day students as well. Some of them have the passion for learning but the teachers discriminate on the basis of caste. It was on 2008 when I went from Delhi to Hyderabad where I saw how some teachers discriminated among the students because of issues like caste and class, these issues are very prominent in South India. In 2008, two Dalit students committed suicide in our university in Hyderabad and they wrote in their suicide note that they were harassed by their teachers. Later when we got to know about the performance in Latin America, I thought we could build this issue in the form of the play. The script was written by me and one of my students in Delhi,” informed the director, who has been staging the play at the tribal and rural areas for the meagre sum of money.

“Eklavya had skills and he was a talented boy but he suffered just because he did not have a guide, the same happens to so many students today. It is a vital issue which was narrated through folk forms by illiterate people. More than the medium it was the message that was important and I think the message has reached out well to the people,” added the director.

The director feels that there have been some changes in our education system, but the change needs to reach the rural areas. “I am really thankful for the recognition and platform that META has given us. It was difficult to talk about such an important issue but we have found a voice and we hope to send across the message far and wide through this play,” ended the director." बुधवार को 04:01 अपराह्न बजे • संपादित • पसंद

Ak Pankaj : जब एकलव्य दलित या पिछड़ी जाति का नहीं है बल्कि वह भील आदिवासी है तो उसे जाति संघर्ष का नायक क्यों बनाया गया?

हालांकि आप किसी उत्पीड़ित चरित्र के माध्यम से अपनी बात कहने के लिए स्वतंत्र हैं फिर भी आदिवासी संघर्ष की कहानी क्यों नहीं ली, जिस आदिवासी समुदाय से एकलव्य आता है. क्योंकि जाति संघर्ष आदिवासियों के संघर्ष को प्रतिबिंबित नहीं करता.

किसी आदिवासी को जाति के घेरे में ले आना आदिवासियों का जाति में रूपांतरण करना है और यह आदिवासी अस्तित्व व उसकी पहचान को नकारने का गंभीर मामला है.

आप आदिवासी चरित्र लेते हैं. आदिवासी कहानी लेते हैं. आदिवासी फोक फॉर्म लेते हैं और कहानी ‘जाति’ की कहते हैं. क्या यह सही है?

यह इसलिए है दोस्त कि आप आदिवासी समुदाय को जानते ही नहीं हैं. इसीलिए आपको आदिवासी समस्या महत्वपूर्ण नहीं लगी. कुछ और लगा. गुरूवार को 10:28 अपराह्न बजे • पसंद

Ak Pankaj : मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता राउत जी आप जैसे लोगों से. जो यह कहते हैं कि उन्हें एकलव्य का सिर्फ "self learning,struggle for survival, prakriti prem, spirituality and sense of learning" दिखता है. मतलब आप उसे जाति और समुदाय से ऊपर देखते हैं. एकलव्य आपके लिए सिर्फ एक ‘इंसान’ है जो व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष करता है और नए मूल्यों का प्रतिनिधित्व करता है. और आप बड़ी गर्व से कहते हैं कि एकलव्य के माध्यम से महाभारत जैसे एपिक को ‘री-डिफाइंड’ कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है. क्योंकि आपका एकलव्य पहले ही दृश्य में कहता है ‘मैं एक अछूत. ... मैं महाशूद्र एकलव्य’. आपका एकलव्य जातिविहीन, अस्मिताविहीन ‘इंसान’ नहीं है. वह बार-बार और पूरे नाटक में खुद को शूद्र बोलता है. तो एक आदिवासी चरित्र को गलत झंग से ‘री-डिफाइन’ करने की यह कैसी मानसिकता है?

अगर आपको एकलव्य का अस्मिताविहीन चरित्र इतना ही पसंद था फिर उसे ‘अछूत’ और ‘शूद्र‘ क्यों बता रहे हैं? उसे आदिवासी नहीं कहना चाहते थे तो अछूत, शूद्र क्यों बना दिया? क्या मजबूरी या सोच है एक जातिविहीन आदिवासी को अछूत बनाने की? उसे इंसान ही क्यों नहीं रहने दिया राउत जी?

यह विडियो आपने ही पोस्ट किया है न? आपके ही नाटक का है न?

http://www.youtube.com/watch?v=X9fEcfUC-AU बीते कल 03:09 अपराह्न बजे • पसंद

Stage Impressions : For those following this thread, a response from the play's director Satyabrata Rout: "Priya Pankaj Ji, Subah bhi aap ka comment padha tha. Aap bil kul sagi kaha hai. Main adivasi ka problem se wakif nahin hun. Mereliye Eklavya ka Adivashi hone se jyada uska self learning,struggle for survival, prakriti prem, spirituality and sense of learning jyada mahatwapurna hai. Kya ye galat hai! Eklavya ka anek ayyam ho sakte hain. Main koun si angle se dekha hun o' mereliye mahatwapun hai. Aap ki nazariya bilkul alag ho sakte hain. Ye ek mythical character hai. New interpretation dena mere khayal se artha hin nahin ho sakta. Aap kripaya ise anyatha na lein. Main apni simit budhi se ye natak banaya hun. Aap ki tarah adibashi byabastha ka sodhak bhi nahin hun. Aap zaroor bislesan (analyse) kare par natak dekhe bina comment kaise kar sakte hai? Isliye kabhi hamain Ranchi bulaiye, Ye natak karte hain phir chir phad karna sayad achha rahega....Aap ka ek rangakarmi. mitra..satyabrata rout." 20 घंटे पहले • पसंद

Ak Pankaj : प्रिय एडमिन, यह पुराना रिस्पांस है. इस रिस्पांस के जवाब में ऊपर का मेरा कमेंट देखें जिसका कोई जवाब मि. राउत ने नहीं दिया है. यह मासूम जवाब नहीं चलेगा कि ‘सीमित बुद्धि से नाटक बनाया है.’ आप किसी भी बुद्धि से किसी का जाति-समुदाय नहीं बदल देंगे. मैंने नाटक देखा है, तभी ऊपर का कमेंट लिखा है. जिसके बाद से राउत चुप हैं. 19 घंटे पहले • पसंद

Satyabrata Rout Rout ko aap kitna jante hain Pankaj ji? Aur Rout ka simit budhi bhi dushron se kahin jyada hai. Agar kabhi mulaqat ho to jaan bhi jayenge. Mujhe choop karakar kya hasil karna chahatein hain? Main choop isliye nahin hun ki aap se mujhe daarlagraha hai.. main aise rangkarma nahin kiya hun. Ghat ghat ka pani pee kar bada hua hun... Ye duniya jaan ti hai...Patanahin aap ko malum hai ya nahin. Mera ek nischit sooach hai, bichar hai.. Natak ki kitni gahrai ko naapein hai aap? political aspect to ek ayaam hai... is ke ilawa bahut kuch hai... Mera nazariya nischit roop se aap se alag hoga. Kyon apni ankho mein mujhe taultein hai aap? Mera kaam tha natak karna aur samajh ke saath karna...so kar diya...Baki bahas karna mera kaam nahin na ki aap ka prashna ka uttar dena... Isliya abtak choop tha. Mera paas waqt nahin hai sirf is par baat kar ne ko. Aur bhi bahut kaam hai jeevan main. Isliye aap ka prashna ka jawab nahi diya tha. Par main abhi bhi kahta hun Eklavya ka learning aspect mereliye jyada mahatwapurna tha kyon ki main us aspect ko jyada samajh patahun. Dushre kai ayaam ho sakte hain. Uspar aap ek dushra Eklavya likhiye aur kheliye. Meri sooch muhje mubaraq ho. Aap kyon paresaan ho rahain hai? Mereliye Rangkarm sirf political propagation nahin hai... aur bahut kuch hai... main ek teacher hun aur duniya janti hai ki ek achha teacher hun.. aap mane ya na mane... Meri apni drishti hai.. apni ankhon se dekhta hun aur dekhunga... Kisi ko usse koi problem ho to main mafi chahunga. Eklavya kisi ka niji sampatti nahin hai. O' Hindustan ka dharohar hai...Uspar saab ka HAQ HAI. Iske baad meharwani kar ke ye superficial FB ka bahash band kijiye. Bahash karna hai to seminar mein bula lijiye yaa phir amne samne karte hai na! 9 घंटे पहले • पसंद • 4

Satyabrata Rout : Bura lage to muaf kar dijiye.> 9 घंटे पहले • पसंद

Satyabrata Rout : Aap ka mitra Satyabrata Rout 9 घंटे पहले • पसंद

Satyabrata Rout : Aur agar Script main koi kami hai to writer ka phone no. de deta hun baat karlijiye... Name: KULDEEP KUNAL, Delhi Ph. no: +91-9891419707, ok? 9 घंटे पहले • पसंद

Hasan Khan : I do respect Your point of view Sir. 9 घंटे पहले • पसंद

Praveen Rao : apni baat kehna aur prabhaavi roop se kehna..dradh nischit ho aur apni jeet kar..aise rangkarmi ko salam...i think caste n creed r very much relevant in contemporary times sir..hats off to u 4 saying n depicting d issue loud n clear..salute d mr.ROUT.. 8 घंटे पहले • पसंद

Satyabrata Rout : You are right Praveen! Thank you. 8 घंटे पहले • पसंद

Ak Pankaj : मैंने जो सवाल उठाए. आपने उनमें से किसी का जवाब नहीं दिया. मैं वैचारिक सवाल कर रहा हूं और आप व्यक्तिगत ढंग से कह रहे हैं कि आपने ‘घाट-घाट का पानी’ पिया है. बुरा न माने राउत जी मैं आपकी पूरी यात्रा को जानता हूं. लेकिन व्यक्तिगत बात नहीं करना चाहता. कन्नड़ के ही एम गोविंद पै का नाटक ‘हेब्बेरळु’ (1946) पढ़िए. एम गोविंद पै को राष्ट्रकवि कहा जाता है. पढ़िए ‘हेब्बेरळु’ में उन्होंने एकलव्य को भील आदिवासी मानते हुए कैसे चित्रित किया है. मैं भी रंगकर्मी हूं लेकिन अपने नाटक में किसी समुदाय की जाति बदलने का काम नहीं करता. ऐसा करने का हक भी नहीं है किसी को.

खैर, आप ताजमहल को व्हाइट हाउस नहीं बोल सकते और न व्हाइट हाउस को ताजमहल. जैसे आप राउत हैं तो राउत ही रहेंगे. यदि मैं आपकी जाति बदल दूं तो आपको कैसा लगेगा? आज तक किसी ने अभिमन्यू जैसे मिथकीय चरित्र को अछूत बना कर पेश नहीं किया लेकिन एकलव्य चूंकि आदिवासी है इसलिए उसके पहचान के साथ कुछ भी खिलवाड़ किया जा सकता है? अफसोस! इसके जवाब में मेटा अवार्ड का विजयी निर्देशक यह बता रहा है कि वह कितना पहुंचा हुआ और ‘घाट-घाट का पानी पीया’ हुआ है. और एकलव्य यदि धरोहर है तो उस धरोहर के साथ छेड़छाड़ मत कीजिए. सांस्कृतिक हंट मत कीजिए आदिवासियों का. 4 घंटे पहले • पसंद

Ak Pankaj : जहां तक आमने-सामने बहस करने की बात है तो हमने आपको एकलव्य का मंचन करने और नाटक पर बात करने का आमंत्रण पहले ही दिया था. पर रांची से गुजरते हुए भी आप नहीं आए. 4 घंटे पहले • पसंद

और अंततः Stage Impressions ने Satyabrata Rout के पक्ष में पॉलटिक्स करते हुए क्या कहा -

Stage Impressions : Thanks Ak Pankaj for writing in. You have made your views amply clear and Satyabrata Rout has responded equally lucidly, but this discussion seemed to have reached a logical end (at least in this forum). Any political agenda (re: cultural genocide etc) that you may have remains outside the scope of this page. We reserve the right to remove any further comment in this regard.

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