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Monday, September 17, 2012

जिंदगी से जुड़े बगैर अच्छा नाटक नहीं लिखा जा सकता


महेश दत्ताणी भारतीय नाटककारों में अग्रणी स्थान रखते हैं। 'फाइनल सॉल्यूशंस', 'डांस लाइक अ मैन', 'तारा' और 'थर्टी डेज इन सेप्टेंबर' जैसे नाटकों ने न सिर्फ उन्हें दुनिया भर में ख्याति दिलाई, बल्कि भारतीय रंग परिदृश्य पर गहरा असर भी डाला है। अभी कुछ दिनों पहले वह भोपाल नाट्य विद्यालय, मध्यप्रदेश के दीक्षांत समारोह में भाग लेने के लिए भोपाल गए थे। उनसे राजेश चन्द्र की बातचीत:

पिछले 20-25 वर्षों में आपकी नजर में भारतीय रंगमंच ने क्या खोया और क्या पाया है?

भारतीय रंगमंच एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। हर प्रदेश में कई तरह के काम हो रहे हैं। मैं अपने नजरिए की बात करूंगा। इधर एक कोशिश रिवाइवल की मुझे जरूर दिखाई पड़ती है। जो फॉर्म लुप्त हो रहे हैं, उन्हें बचाने की कोशिश हो रही है, पर इतना करना ही काफी नहीं है। हम अपनी लोक नाट्य परंपराओं को आगे नहीं बढ़ा पा रहे। बैले जो पचास साल पहले था, हम उसमें किसी तरह का बदलाव नहीं ला सके। यह उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है। परंपरा रिवाइव हो रही है, उसमें निरंतरता है, यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है।

पिछले 50 वर्षों के रंगमंच को भारतीयता की खोज का रंगमंच कहा जा रहा है। इस विषय में आप क्या सोचते हैं?

यह सब मुझे बहुत बनावटी नजर आता है। असल में भारतीयता की खोज एक राजनीतिक मुद्दा है। यह सांस्कृतिक मुद्दा नहीं है। भारत, अफगानिस्तान या पाकिस्तान की सांस्कृतिक पहचान क्या अलग-अलग है? मुझे यह विचारधारा काफी पिछड़ी हुई लगती है। आज दुनिया भर में देशों की सीमाएं खत्म हो रही हैं। असल में भारतीयता का नारा देश को हिंदुत्व की लाइन पर आगे बढ़ाने के मकसद से ही लगाया जा रहा है। और लोग हैं कि बिना उसकी असलियत को समझे ही उसकी रौ में बहे चले जा रहे हैं।

नाटक लिखते वक्त क्या आप किसी विशेष दर्शक वर्ग को ध्यान में रखते हैं? या सब स्वाभाविक ढंग से होता चला जाता है।

यह बहुत ही मुश्किल सवाल पूछा आपने। आप अगर यह सोचते हैं कि आप अपने दर्शक को सचमुच जानते-समझते हैं, तो यह आपकी एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। यह कहना भी कि मैं तो सिर्फ अपने लिए लिखता हूं, बिलकुल गलत होगा। मेरी व्यक्तिगत इच्छा तो यह है कि मैं अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का ज्यादा से ज्यादा जनता के मुद्दों को उठाने में उपयोग करूं। मुझे भी अच्छा लगता है जब मेरे नाटकों को देखने बड़ी संख्या में दर्शक पहुंचते हैं और उनकी सराहना भी करते हैं।

नाटक लिखना आपके लिए कविता, कहानी या उपन्यास जैसी दूसरी विधाओं में लिखने से किस तरह अलग है?

यह बहुत अलग है। सच बात यह है कि नाटक की अंतिम यात्रा कागज पर नहीं मंच पर है। यह याद रखना पड़ता है कि आपके बाद भी कई लोग आएंगे जो उसमें काफी कुछ जोड़ सकते हैं। इसलिए आप उसे किसी बंदरिया के बच्चे की तरह चिपटाकर नहीं रख सकते। नाटककार नाटक के लिए मां की तरह है, जिसकी सोच यही होती है कि उसका नाटक फले-फूले, विकसित हो, उसका निरंतर विकास होता रहे। नाटक लिखते समय इन चीजों का ध्यान रखा जाना जरूरी होता है।

पारंपरिक नाट्य रूपों के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल पर क्या कहना चाहेंगे?

यह सब ग्रांट मिलने की वजह से हो रहा है। लोग अनुदान में मिलने वाले पैसों के कारण किसी परंपरागत नाट्य शैली को पकड़कर काम करना चाहते हैं। इसके मूल में सिर्फ व्यावसायिकता है। यह बात अलग है कि वे ऐसा भ्रम जरूर फैलाए रखते हैं मानो सांस्कृतिक परंपरा को बचाने का महान काम कर रहे हैं।

आज भी अच्छे और गंभीर नाटकों के लिए हमें दुनिया की दूसरी भाषाओं की तरफ जाना पड़ता है। नाटक की ओर हमारी हिंदी के लेखकों का झुकाव क्यों नहीं है?

मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि मैं अंग्रेजी में नाटक लिखता हूं। पर यह मेरी मजबूरी है। दूसरी भाषाओं में लिखने वालों को उतना महत्व नहीं मिलता। सामाजिक क्षेत्र में जो बाधाएं हैं, उन्हें मिलकर ही समाप्त किया जा सकता है। यह समझना होगा कि हमें जड़ों के साथ शाखों और पत्तों की भी उतनी ही जरूरत है। लेखक के लिए जरूरी है कि वह खुद को अपने समाज का साक्षी समझे, उसका भागीदार समझे, उसके संस्कारों से जुड़े। जब तक हम जनता की जिंदगी से, उस जिंदगी की सच्चाइयों से खुद को नहीं जोड़ेंगे, अच्छा नाटक कैसे लिख पाएंगे? गुफाओं में बैठकर कविता तो लिखी जा सकती है, नाटक नहीं।

अभी किस विषय पर काम कर रहे हैं?

इन दिनों दो नाटक लिखे हैं - एक लिंलेट दुबे को दिया है जो नवंबर में शुरू होगा। एक और नाटक है जो मैं खुद निर्देशित करूंगा। एक निर्देशक के तौर पर मुझे उसमें बहुत दिलचस्पी है। मुंबई में जो हालत है, लोग यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे सफल हैं, पर असलियत कुछ और ही होती है। 'द बिग फैट सिटी' नाटक नवंबर में शुरू करूंगा, जिसे फरवरी तक मुंबई में ओपन करने की योजना है। मैं एक फ्रीलांसर हूं। मुझे किसी के साथ बंधने में घुटन होती है। बंधकर आप संगठन की सेवा कर सकते हैं, नाटक की नहीं।

(नवभारत टाइम्स | Sep 8, 2012 से साभार)

1 comments:

garnetejago said...

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