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Monday, December 12, 2011

पत्रकारिता के वैकल्पिक मुहिम में न्यू मीडिया पर छिड़ी जिरह

- पटना से अरूण नारायण की रपट -


‘आज गरीबी और अमीरी की खाई लगातार बढ़ती जा रही है। अस्सी प्रतिषत लोगों के लिए सत्ताधारी वर्ग अपनी कोई जबावदेही नहीं महसूस करते। वे बीस प्रतिशत लोगों के लिए यह जबावदेही महसूस करते हैं। आज मीडिया को नियंत्रित वही लोग कर रहे हैं जो अस्सी प्रतिशत आबादी को इग्नोर कर रहे हैं।’

ये बातें ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा ने कही। वे पटना में पत्रकार पै्रक्सिस द्वारा आयोजित ‘समकालीन मीडिया की चुनौतियां और वैकल्पिक रास्ते’ विषय पर बोल रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह का हमारा समाज होगा साहित्य में वह दिखाई दे जाएगा। आज का हमारा मीडिया सत्ताधारी वर्ग का दर्पण है। वह क्या चाहता है उसको मीडिया पूरी तरह प्रतिबिम्बित कर रहा है। यह चुनौती महज मीडिया की नहीं है आम आदमी की भी है। आज मीडिया की सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह आम आदमी को कैसे रिफलेक्ट करे। भारत में मीडिया का लंबा इतिहास नहीं है। उम्मीद थी कि नेहरू युग में कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी। लेकिन इमरजेंसी में मीडिया का गला ही घोंट दिया गया। अस्सी के दषक से मीडिया के स्वरूप में तेजी से परिवर्तन आया। हिंदी में नयी-नयी पत्रिकाएं आयीं। अखबारों के तेवर बदल गए। स्प्रींग की तरह मीडिया में उछाल आया। हालांकि रूलिंग क्लास का नजरिया मीडिया के प्रति और भी सख्त होता गया। 90 के बाद वैष्वीकरण ने पूरी तरह से भारतीय राजनीति, समाज और मीडिया को प्रभावित किया। इस दौर में आंदोलन की खबरों को हाषिये पर डाल दिया गया। तर्क दिया गया कि इससे निवेष का माहौल खराब होगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने माना कि इससे सबसे बड़ा संकट उनके सामने पैदा हुआ जो मिशन को लेकर पत्रकारिता कर रहे थे। सन अस्सी के बाद जो लोग ग्लैमर में पत्रकारिता में आये थे उनको इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ा। श्री वर्मा ने कहा कि आज जरूरत इस बात की है कि हमारे पत्रकार साथी चीजों की तह में जाएं क्यांेकि मीडिया जिससे नियंत्रित हो रही है वह उसको छापने नहीं देगी। बहुत कम लोग इसकी तहकीकात करते हैं। पी. साईनाथ की तरह अपने यहां आज कितने पत्रकार हैं? उन्हांेने कहा कि व्यापक समूह पत्रकारों का सजग हो तो कितना भी मालिकों की तरफ से प्रेशर होगा यथास्थितिवाद टूटेगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने राजेंद्र माथुर का जिक्र करते हुए बतलाया कि वे कहा करते थे कि संपादक पहले ही लक्ष्मण रेखा खींच देते हैं हमलोगों को इससे बचना चाहिए। उन्होंने कहा कि अब तो संपादक नामक संस्था ही समाप्त हो गई। आनंदस्वरूप वर्मा ने बतलाया कि 1998 में जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री थे तो उन्होंने हैदराबाद में डी.आई.जी की एक मीटिंग बुलाई थी जिसमें भारत के 4 राज्य को नक्सलवाद से प्रभावित बतलाया गया था। 2005 में शिवराज पाटिल ने इसी मुद्दो को लेकर मीटिंग की तो पता चला कि 15 राज्य नक्सलवाद और माओवाद से प्रभावित हो गए। 7 राज्य तो 1950 से ही इससे प्रभावित हैं और जम्मू काश्मीर तो शाश्वत रूप से इससे प्रभावित हैं ही। दरअसल यह सब करके सरकार माओवाद और नक्सलवाद के खिलाफ हवा तैयार कर रही थी। पत्रकार भाईयों को इसपर संदेह पैदा करना चाहिए था। इसी के समानान्तर 2004 में रूलर मार्केटिंग पर एक सेमिनार किया गया। 2005 में नेशनल कांफ्रेंस किया गया। आप गौर करें देखें कि इसमें शामिल रहे लोगों की पृष्ठभूमि क्या थी? ये सभी के सभी अनिल अंबानी, रमेश अयर, दिलीप सहगल, अजीम प्रेमजी और प्लानिंग कमीशन के लोग थे जिसकी छोटी सी खबर ‘हिन्दू’ में आयी थी। रूलर इंडिया में मल्टीनेशनल का प्रवेश होगा इसके लिए यह भूमिका पहले से ही तैयार की जा रही थी। इसकी राजनीति की तह में हमें जाना होगा। कल को अगर कोकाकोला के विरूद्ध कोई आंदोलन होता है तो तय मानिये वह रीजनल अखबारों में नहीं छपेगा। श्री वर्मा ने कहा कि असली चुनौतियां आज खड़ा हुई है जनपक्षधर मीडिया के सामने समग्र मीडिया के सामने नहीं। जनता के पक्ष में लिखने वालों का भविष्य आने वाले दिनों में बहुत संकट का है। उन्होंने कहा कि झारखंड के जीतन मरांडी को फांसी दिये जाने की खबर नहीं छपी। जबकि बिनायक सेन के लिए आवाज उठाने वाला एक बड़ा ग्रुप उठ खड़ा हुआ। इसके पीछे क्लास हित से इनकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि स्टेट किसी को फांसी की सजा दे रही हो माओवादी बतलाकर और जीतन कह रहे हों कि वे माओवादी नहीं संस्कृतिकर्मी हैं। आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि स्टेट के खिलाफ बार कर रहे हैं तब तो हम मारे जाएंगे ही लेकिन जब तक संविधान है इमरजेंसी लगाकर बातें खत्म नहीं कर दी गई हैं तब तक इस तरह का एक्शन कहां से उचित है। श्री वर्मा ने माना कि इन समस्याओं का समाधान लंबे संघर्ष की मांग करता है। इसके लिए हमें मुद्दों पर लगातार दबाब बनाते रहना होगा और साथी पत्रकारों को शिक्षित करते रहना पड़ेगा।

आनंदस्वरूप वर्मा ने कहा कि वैकल्पिक मीडिया बड़े अखबारों के समानांतर एक आंदोलन की तरह खड़ा करना होगा। आंदोलन के साथ जो-जो शर्तें हैं उसको हमें अपनाना होगा। मित्र शक्तियां कौन-कौन-सी होंगी इसका हमें ध्यान रखना पड़ेगा। इसमें पत्रकारों की भूमिका अहम होगी लेकिन मात्र वे ही नहीं होंगे। सभी क्षेत्रों के लोगों की अलग-अलग यूनिटें बनानी हांेगी। इसके लिए पहल मीडिया के लोग कर सकते हैं। जगह-जगह यूनिटें बनायें। आंदोलन के लिए होलटाइमर और पार्टटाइमर दोनों तरह के लोगों की टीम बनानी होेगी नहीं तो यह स्लोगन बनकर रह जाएगा।

समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने कहा कि मीडिया का चरित्र इस बात पर निर्भर करता है कि उसका नियंत्रण कौन कर रहा हैै। सरकार उसी तरह की नीतियां बनाने की कोशिश करती है जो पूंजीपतियों के लिए मददगार साबित हो। उन्होंने कहा कि पहला प्रेस आयोग ने सिफारिश की थी कि अपने यहां अखबारों में विदेशी निवेश न हो। उसके कंटेंट, कीमतें और विज्ञापन को लेकर भी आयोग ने कुछ अर्हताएं बनायी थी जिसमें यह बात भी शामिल थी कि चालीस प्रतिशत से ज्यादा का विज्ञापन न हो। लेकिन आज सब कुछ उल्टा हो रहा है। जब अखबारों के दाम उसके पन्ने के हिसाब से नहीं निर्धारित होंगे तो छोटे अखबार मर जाएंगे। पंकज बिष्ट ने अमेरीका का उदाहरण दिया। कहा कि बड़ी पूंजी जहां कहीं भी गई उसने अमेरीका की तर्जपर अपनी इसी रणनीति की बदौलत अखबारों के दाम घटाए फलतः प्रतिद्वंद्वी अखबार बंद हो गए। पंकज बिष्ट ने कहा कि मीडिया जनता का मत निर्धारित करने में बड़ी भूमिका निभाता है। पंकज बिष्ट ने कहा कि मुम्बई जैसे शहरों में सौ पेज के अखबार तीन-से-चार रुपये में मिलते हैं। उन्होंने आगाह किया कि इस तरह की मोनोपोली पर रोक लगनी चाहिये। उन्होंने माना कि अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग किसी भी जनतांत्रिक समाज की जरूरत है। जब तक कोई समाज या समूह अपने लिए मंच बनाने की स्थिति में नहीं होंगे तब तक स्थितियां नहीं बदलेंगी। श्री बिष्ट ने ब्रिटेन के मर्डाेक का उदाहरण दिया। बतलाया कि किस तरह उसने वहां के अखबारों पर धीरे-धीरे कब्जा कर लिया। ब्रिटेन का शासक दल भी उसका समर्थन कर रहा था। उसने ब्रिटेन के समाज को हिला दिया। उन्होंने कहा कि सरकारें हमेशा प्रेस को नियंत्रित करना चाहती हैं। इसके लिए जरूरी है कि प्रेस काउंसिल को प्रभावशाली बनाया जाए। ब्रिटेन की प्रेस ऑफ काउंसिल प्रभावशाली नहीं है। भारतीय प्रेस ऑफ काउंसिल भी उसी की नकल है इसलिए इसका भी हश्र वही हुआ। उन्होंने कहा कि जनता के विस्थापन, बेरोजगारी, दमन से जुड़े मुद्दे और ओनरशिप बड़ी पूंजी निर्धारित करती है। वे ही तय करती हैं कि अखबार का फैलाव किस तरह किया जाए। मर्डाेक का पूरा तंत्र यही करने के लिए मजबूर करता था।

पंकज बिष्ट ने कहा कि आज अखबारों के लिए सबसे बड़ा खतरा बहुसंस्करणीय अखबारों का है। दैनिक भास्कर के 64-65 संस्करण कई भाषाओं मंे निकलते हैं। इसके परिणाम क्या होंगे? इसमें स्थानीयता के सर्वाइल का सवाल छोड़ भी दें तो यह भारत देश की विविधता के लिए बहुत बड़ा खतरा है। अमेरीका का जिक्र करते हुए बिष्ट ने बतलाया कि वहां बाल स्ट्रीट से लेेकर सभी अखबार एक ही जगह से निकलते हैं। उन्होंने माना कि अखबारों की स्वतंत्रता बनाये रखनी है तो उनके आर्थिक ढांचे को रेशनल आधार देना होगा। उन्होंने माना कि जनता के बिना इसमें बदलाव नहीं हो सकता। सबसे बड़ा संकट यह है कि राजनीति पार्टियां भी उन्हीं के दबाव में हैं। वोटर में यह चेतना होनी चाहिए। जो नियम है हम बना सकते हैं प्रेस कमीशन ने जो रिकोमेंडेशन की दूसरे की आजादी तो स्वीकार कर लें लेकिन सिर्फ वैकल्पिक मीडिया से इसका रास्ता हम नहीं निकाल सकते। छोटे अखबार इसका विकल्प नहीं हो सकते।

गोष्ठी में हस्तक्षेप करते हुए अभिषेक श्रीवास्तव ने कहा कि कोई भी पत्रकार किसी मीडिया हाउस में रहकर खबरों की तह मंे जाता है तो उसे अपनी नौकरी गंवाकर उसकी कीमत वसूलनी पड़ती है। ऐसे में एक बड़ा सवाल यह भी उठता है कि मीडिया के भीतर रहकर इस दुष्चक्र से कैसे बचा जाए। अभिषेक ने कहा कि 30 साल पहले आनंदस्वरूप वर्मा ने वैकल्पिक मीडिया का जो आंदोलन खड़ा किया था वह ढह क्यों गया?

आनंदस्वरूप वर्मा ने इस सवाल को स्पष्ट किया। कहा कि वैकल्पिक मीडिया की टीम हमने हिंदी भाषी क्षेत्र और नागपुर में खड़ी की थी। उसकी 20-22 मीटिंगे भी की लेकिन उसी समय तेजी से इलेक्ट्रानिक चैनलों की बाढ़ आयी और सभी के सभी उसी में चले गए। उसको लेकर ब्लूप्रिंट हैं हमारे पास। तीस सालों में अनुभव भी बहुत हुए हैं। अगर इसको लेकर अलग से व्यवस्थित मीटिंग की जाए संगठनात्मक ढांचा तैयार किया जा सकता है।

मोहल्ला लाइव के मोडरेटर अविनाश ने कहा कि 90 के दशक में अपने यहां जो पत्रकार नायक बने राडिया प्रकरण के बाद यकबयक ढहते दिखे। बरखा दत, राजदीप सरदेसाई और वीर संघवी आदि का हश्र हमारे सामने है। दो-तीन पत्रिकाएं मौजूदा पत्रकारिता का विकल्प नहीं हो सकतीं। आज की पत्रकारिता का पूरा जोर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना भर है इसलिये ऐसे बदले हालात में सरोकार की सबसे सशक्त रौशनी न्यू मीडिया में ही दिखलायी पड़ती है। इजराइल गाजा पर हमले कर रहा है। पूरे अरब में इस न्यू मीडिया पर सेंसर है और यही न्यू मीडिया पूरे विश्व को उसकी जमीनी हकीकत बता रहा है कि वहां दरअसल हो क्या रहा है? अविनाश ने कहा कि न्यू मीडिया में ही पत्रकारिता के विकल्प की खोज एवं उसके संभावना की तलाश की जानी चाहिये।

अविनाश के बाद पंकज बिष्ट ने न्यू मीडिया को लेकर अपनी कुछ शंकायें रखी। कहा यह किसी भी क्षण नियंत्रित किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहंुच व्यापक आबादी तक संभव नहीं है क्यांेकि भारत में अभी भी ढेरों ऐसे गांव हैं जहां बिजली की पहंुच नहीं है। अंततः एक अराजक मंच भी हैं जिसका इस्तेमाल सूचना के लिए ज्यादा होता रहा है एनालिसिस के विभिन्न पक्ष इसमें कैसे डील होंगे? श्री बिष्ट ने कहा कि न्यू मीडिया पत्रकारिता का विकल्प नहीं हो सकती हमें अंततः वर्तमान मीडिया में रहकर ही उसका विकल्प भी खड़ा करना होगा। इसपर अविनाश ने पुनः हस्तक्षेप किया। कहा 2000 तक अपने यहां मोबाइल स्टेटट्स सिंबल हुआ करता था आज रिक्शे वाले के पास भी मोबाइल है इसी तरह इंटरनेट का इस्तेमाल करना भी लोग सीख जाएंगे। न्यू मीडिया विकल्प की पत्रकारिता का अंतिम रास्ता है।

पुरूषोतम के सवाल का जबाव देते हुए आनंद स्वरूप वर्मा ने कहा कि पत्रकार यूनियनों इसलिए खत्म होती गईं क्यांेकि उसके दिग्गज लीडर मुख्यमंत्रियों से सौदेबाजी करने लगे। ये यूनियनें दलालों के हाथ चली गई। बड़ी-बड़ी राष्ट्रीय यूनियनें भी महज केवल एजेंसी बनकर रह गई।

कथाकार अवधेश प्रीत ने 80-90 के दशक में वामपंथ की पहल पर निकलने वाली पत्र-पत्रिकाओं के बंद होने के कारणों का संदर्भ उठाया। आनंदस्वरूप् वर्मा ने कहा कि आज करोड़पति सांसदों की संख्या बढ़ी है। पूरे स्टेट पर पूंजी का कब्जा हो गया है फलस्वरूप वामपंथी आंदोलन भी हाशिये पर गए हैं। खेतीहर मजदूर, सी.पी.आई. सी.पी.एम. के सपोर्ट से निकलने वाले अखबार पृष्ठभूमि में चले गए हैं। फिर विदेशी निवेश, आर्थिक नीतियां और वैश्वीकरण के कारण भी यह संकट पैदा हुआ है।

गोष्ठी की शुरुआत कमलेश ने की और विषय प्रवेश रोहित जोशी ने। महेंद्र सुमन, अभिरंजन कुमार, अनंत और ए. के. सिन्हा ने भी अपने हस्तक्षेप से गोष्ठी को जीवंत बनाया।

सम्पर्क : हिंदी प्रकाशन, उपभवन, बिहार विधान परिषद पटना 800015 मोबाइल 9934002632

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