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Tuesday, January 10, 2012

भारंगम 2012 सांस्कृतिक व्यभिचार का नायाब उदाहरण है


रानावि द्वारा आयोजित 14वें भारतीय रंग महोत्सव पर फेसबुक पर कुछ टिप्पणियां

Vibha Rani : एक ओर रानावि की ओर टकटकी लगाए देख रहे हर गांव, शहर के रंगकर्मी और एक ओर इस तरह के प्रयोगधर्मी खर्च और ताम-झाम. यह छात्रों को भारतीय थिएटर की जड से जुडने की कोशिह्स नहीं है, बल्कि एक ऐसा वितान दिखाने की जिद है, जो हमसे बाबस्ता नहीं रखती.

Rajesh Chandra : मैं इस तथ्य से सन्नाटे में हूँ कि इस बार भी भारत रंग महोत्सव (???) में तीन ऐसी प्रस्तुतियों को जगह मिली है जिनका अभी तक एक बार भी मंचन नहीं हुआ है. यह तथ्य इस बात की तस्दीक करने के लिये काफी है कि यहाँ क्या चल रहा है. देश भर के जेनुइन रंगकर्मियों के काम को हतोत्साहित कर सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़े निर्देशकों के आधे-अधूरे अधबने नाटकों को शामिल करना एक तरह से सांस्कृतिक व्यभिचार का नायाब उदाहरण है. यह किस मायने में राष्ट्रीय रंगमंच का प्रतिनिधित्व कर सकता है? महोत्सव के आयोजन में भी विगत वर्षों से जिस किस्म की अव्यवस्था का बोलबाला सामने आ रहा है वह स्तब्ध कर देने वाला है. प्रत्येक प्रस्तुति के लिये सत्तर फीसदी पास संस्थान ने उस हितसाधक मंडली के लोगों, चाटुकारों के बीच बाँट दिया है जिनका वास्तव में नाटकों से कोई आत्मिक सरोकार नहीं है. मेरे जैसे नाचीज़ रंग समीक्षक को कई बार चक्कर लगाने पर भी प्रस्तुति देख पाने का अवसर इसलिए नहीं मिल पा रहा क्योंकि मैं दो सौ रुपये का टिकट लेने में समर्थ नहीं. किससे बात की जाये यह भी मालूम नहीं क्योंकि सारे काम एजेंसियों के मार्फ़त कराये जा रहे हैं. इन एजेंसियों के एमबीए बरदार रंगकर्मियों को दो कौड़ी का भी नहीं समझते हैं.

Jai Kaushal : BHARANGAM ki upalabdhyan kabile gaur hain, par kya NSD sahit rangmanch poore desh se apne ko jod paya! Sab kuch keval delhi aur metro city me ho to usase kitna laabh hoga.. rangmanch gaanv aur kasbom se ojhal ho gaya hai, ab to lok natya paramparayen bhi lagbhag mrit ho chalin,
NSD ke alava IPTA, Jan Natya Manch, Bahroop jaise natya manch bhi shayad gaanv giranv me nahi jate..Aise mancho ko Sarkar bhi badhava nahi deti, taki kalakaar rozi ke liye Delhi mumbai na bhagen..
Ek samay hamare yaha Bhartendu jaise log Samajik badlav aur janta ko sahi disha dene ke liye rangmanch ka upayog karte the. Ab shayad vaisi paristhitiyan bhi nahi rahi ki log thoda ruk-thaharkar kisi ko sun-dekh len..apadhapi bhi badh gai hai..
Fir bhi Mujhe lagta hai ki Rangmanch ab TV aur Cinema me hi bacha hai aur bana rahega..agar use rangmanch mane to.. Samaj me seedhe taur par rangmanch ka judav ateet ki baat ho gai gai..

Krishna Gopal : Samaroh nischit towr par acha hai .likin ab iska vikendri karn karne ka samay hai. Sirf dilhi men hote rahne se koi laabh nahi hone vala .sirf event ban kar rah jayega..

Sanjay Sinha : सवाल इसका नहीं है कि भारंगम में ११०० नाटकों ने हिन्दुस्तानी रंगमंच को क्या दिया है, बल्कि सवाल यह पूछना चाहिए कि नाट्य विद्यालय इस आयोजन को किस कसौटी पर आंकता है. यह समीक्षा का विषय है कि भारंगम में प्रदर्शित होने वाले नाटक वापस अपने क्षेत्र में अपने स्थानीय रंगमंच को कितना प्रभावित करते हैं. क्या वे रंगनिर्देशक स्थानीय युवाओं को एक ऊर्जा दे पाने में सक्षम हो पाए हैं कि अगली प्रस्तुति उनके नाटक से उत्कृष्ट और उसके आसपास हो? दिल्ली में आयोजन अच्छी बात हैं, और होना भी चाहिए. आखिर यह देश कि राजधानी है परन्तु जिसप्रकार दिल्ली कि करवट पूरे देश को हिलाने के लिए प्रेरित करती है, उसी प्रकार भारंगम के आयोजन को हिन्दुस्तानी रंगमंच के सन्दर्भ में देखना और सोचना चाहिए. पर इसकी ज़िम्मेदारी सिर्फ नाट्य विद्यालय कि नहीं है बल्कि उन सारे निर्देशकों, रंगकर्मी दोस्तों और संस्थानों की भी है जो भाग ले रहे हैं. इनकी ज़िम्मेदारी नाट्य विद्यालय से कहीं ज्यादा है.


Punj Prakash : जनता को अपनी कला खुद गढनी होगी ... गढते आयें हैं.... सत्ता का कोई भी प्रतिनधि या संस्थान अपना ही उल्लू सीधा करेगा .... उनसे उम्मीद पालने से अच्छा है नाउम्मीद हो जाना.

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