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Saturday, January 28, 2012

जैकुब स्जेला की अमूर्त कहानी


भारत रंग महोत्सव में शनिवार को एक लाजवाब पोलिश प्रस्तुति ‘इन द नेम ऑफ स्जेला’ देखने को मिली। जैकुब स्जेला उन्नीसवीं शताब्दी का किसान विद्रोही था, जिसने पड़ोसी देश आस्ट्रिया की मदद से पोलैंड के ताल्लुकेदारों के खिला रक्तरंजित विद्रोह किया था।

प्रस्तुति की निर्देशिका मोनिका स्त्रजेप्का के मुताबिक आज का पोलिश मध्यवर्ग उसी जैकुब स्जेला का वंशज है। लेकिन जैसा कि शीर्षक से भी जाहिर है, प्रस्तुति का उसके किरदार से कोई लेना-देना नहीं हैं। यह उसके नाम के बहाने इंप्रेशनिज्म का एक प्रयोग है। प्रस्तुति में एक अमूर्त सिलसिले में बहुत-सी स्थितियां लगातार घट रही हैं। यह एक बर्फानी जगह का दृश्य है। पूरू गांव पर ‘बर्फ’ फैली हुई है। बिजली या टेलीफान के खंबे लगे हुए हैं। पीछे की ओर टूटे फर्नीचर वगैरह का कबाड़ पड़ा है। दाहिने सिरे पर एक कमरा है जो नीचे की ओर धंसा हुआ है। पात्रा उसमें जाते ही किसी गहरे की ओर फिसलने लगते हैं। मंच के दाहिने हिस्से के फैलाव में पड़ा गाढ़े लाल रंग का परदा है, जो बर्फ की सफेदी में और जयादा सुर्ख लगता है। यह घर से ज्यादा घर के पिछवाड़े जैसी जगह है। बर्फ पर एक सोफा रखा है, और एक मेज।

कोई कहानी नहीं है, लेकिन कहानी के सारे लक्षण हैः रोना-बिसुरना, प्यार-झगड़ा, गुस्सा, कलह, भावुकता, आवेग, वगैरह। प्रस्तुति बहुत सारी यथार्थ और एब्सर्ड स्थितियों को समेटे हुए हैं। इसमें आकस्मिकता भी है और ह्यूमर भी। शूरू के दृश्य में एक औरत आँधी बर्फ में नामालूम-सी पड़ी है। उसी पीठ में बर्फ हटाने वाला पाना धंसा हुआ है। फिर बाद में वह उसी घुंपे पाने के साथ सामान्य रूप से पात्रों में शामिल हो जाती है। इन पात्रों में कुछ घर के लोग हैं, कुछ बाहर के। एक पात्रा धंसे कमरे से निकलात है। किसी हाथापाई में मुंह से खून निकला हुआ है। एक दृश्य में जैकुब पाना लेकर दूसरे पात्रा के सीने में भोंक देता है। उसके सीने पर बेतरह ‘खून’ उभर आया है। वह निष्चेट गिर पड़ा है। लकिन कुछ कुछ दृश्यों के बाद वह कमीज उतार कर अपना खून पोंछ लेता है। और बच रहे निशान के बावजूद स्वस्थ रूप से मंच पर वक्रिय दिखने लगता है। पीछे की ओर स्थितियों के शीर्षक लिखे हुए दिख रहे हैं। मसलन- ‘क्रिसमस ईवनिंग’ या ‘आत्महत्या की रात या यह स्पष्टीकरण कि ‘यह दृश्य कुछ लंबा हो रहा है, लेकिन कुलीनों के पास कुछ ही तर्क है, इसलिए वे उन्हें ही दोहरा रहे हैं।’ जैकुब खुद एक चाकू बेचने वाला है। वह बाकायदे इसका प्रदर्शन करता है। मीट का एक विशाल टुकड़ा उसने मेज पर रख लिया है। और दो चाकुओं से वह इसे काट-काट कर बर्फ पर फेंक रहा है। एक मौके पर एक पात्रा बेहद तेजी से कुछ बोल रहा है। वहीं मौजूद लड़की गुस्से में दृश्य के पीछे की ओर जाकर एक मोटा डंडा उठा लाई है, और गुस्से में पूरे प्रेक्षागृह में घूम-घूमकर किसी को ढूंढ रही है। वह इतने गुस्से में है कि पास बैठे दर्शक थोड़ा सतर्क हो उठते हैं। लड़क के पीछे-पीछे पुरुष पात्रा भी चला आया है। वह दर्शकों से उनका पैसा मांग रहा है। कुछ दर्शक उसे कुछ नोट देते हैं। फिर वह वहां बैठे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छायाकर त्यागराजन से उनका कैमरा मांगता है।

वे कैमरा नहीं देते तो कैमरे का स्टैंड लेकर वह मंच पर चला जाता है। इसके थोड़ी देर बाद गुस्से वाली लड़की आंसुओं से लबालब भरी आंखों के साथ कोई कहानी बता रही है। प्रस्तुति में संवाद लगातार बोले जा रहे हैं, लेकिन अक्सर वे इतने अटपटे और सरपट है कि उनके अर्थ पकड़ पाना मुश्किल है, हालांकि उनमें साकेतिकता का एक ढांचा अवश्य है। मसलन ‘स्मार्ट किसान भी आखिरकार किसान ही होता है’, कि ‘वे मुझे जंगल में ले गए और मेरे शरीर को जला दिया, पर मुझसे पहले वे खिड़कियां और दरवाजे ले गए’।

पूरी प्रस्तुति किसी जटिल पेंटिंग की तरह है, जिसमें बहुत कुछ सर्रियल एक क्रम में घटित हो रहा है। थिएटर जैसी सामूहिक कला में यह ढांचा निश्चित ही एक दुष्कर चीज है। इस लिहाज से यह प्रस्तुति अपने प्रभावों में विलक्षण है। चरित्रांकन से लेकर अपने स्थापत्य तक में यह इतनी शिद्दत लिए है कि तमाम ऊबड़-खाबड़पन के बावजूद दर्शक बैठा रहता है।

- संगम पांडेय

जनसत्ता, 25 जनवरी 2012

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