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Saturday, January 28, 2012

नाट्य प्रस्तुतियों में कौंध और गूंज


गुरुवार को अभिमंच में त्रिपुरारी शर्मा निर्देशित प्रस्तुति ‘बीच शहर’ का मंचन किया गया। निर्देशिका के मुताबिक यह प्रस्तुति अधूरे वाक्यों, छवियों, कौंध, कविता, चीखों और चुप्पियों से बनी हैं कुछ अर्थों में यह एक नाटक नहीं हैं, इसमें स्मृति, अहसास, आवेग, अवधारणा और घटनाओं के अंशों को एक जगह इकट्ठा किया गया है और प्रस्तुति में वास्तविक और अवास्तविक, स्वप्न और अस्तित्व, सजीव और निर्जीव की कार्रवाइयां समय के एक ही स्पेस और परिदृश्य का हिस्सा है और किसी निश्चित फ्रेम के लिए बाधा खड़ी करती हैं। मंच पर बहुत से ब्लॉक्स हैं। दर्शकों के बीच से गुजरने वाला एक प्लेटफॉर्म हैं, जहां से रह-रह कर पात्रा प्रकट हाते हैं। बहुत सारे पात्रा हैं पर उनके आपसी संवादों के सूत्रा जोड़ना दर्शकों के लिए आसान नहीं है। मंच के दोनों छोरों पर दो परदे लगे हैं जिन पर उभरी वीडियो छवि में लिखा है, 1984, फिर कुछ कटे हुए बाल गिरते हैं। इसके कुछ देर बाद एक तारीख उभरती है, 6.6.2002, आशय की इसी सूत्रा के सहारे दर्शक को कड़ियां जोड़नी हैं। यह गुजरात दंगों के दौरान एक आम आदमी की कहानी है, जिसने मुसीबत में पड़े लोगों की हिफाजत की। मंच पर बहुत सारा सूक्ष्म और स्थूल एक साथ मौजूद हैं। कुछ पात्रा मंच पर बातचीत में लगे हैं,। उसका इस तरह वहां होना एक औचक उपस्थिति है। प्रस्तुति में मंच सज्जा में एक नियोजन और डिजाइन दिखता है लेकिन स्थितियों के किसी व्यावहारिक समीकरण में नहीं होने से मंच पर बहुत कुछ फालतू भरा हुआ दिखता है। निरंतर संवाद बोले जा रहे हैं, पर यह सारा कुछ संप्रेषित भी हो रहा हो ऐसा नहीं है।

शुक्रवार को ही प्रदर्शित एक अन्य प्रस्तुति ‘मेईध्वनि’ में तरह-तरह की देहगतियों का प्रदर्शन किया गया है। शरीर के ज्यामितीय लय। तीन गागर लिए स्त्रिायां गागर एक सहयोगी हैं। वे कभी उसके ऊपर होती हैं कभी उनके पैर गागर में। लेकिन उनकी गतियों में एक सभ्यता है जिससे एक लय बनती हैं। मेईध्वनि का अर्थ है शरीर की गूंज। इसके निर्देशक जयचंद्रन पालझी हैं। निर्देशकीय के मुताबिक ब्रह्मांड और मानव शरीर के वास्तुशिल्पीय और ज्यामितीय अमूर्त प्रत्ययों से सूत्रा लेकर यह प्रस्तुति प्रयास करती हैं अशांत परिस्थितियों में बंदियों द्वारा अनुभव किए गए बाध्यकारी एकाककीपन को समझने की। भारतीय चिंतन में उपस्थित ब्रह्मांडीय घटकों- शरीर और द्रव-की अवस्थाओं के इतिहास में खोज करते हुए यह नाटक उनकी मूर्ति सदृश आकृतियों, स्मृतियों और मनोभावों में निहित गुणों की एक यात्रा है। इसके मुताबिक प्रस्तुति में दिखाए गए धातु कलशों क आकृति एक संयमित मगर फिर भी अयोध्य स्त्रिायोचित अनंतता की ओर इशारा करती है। ऐसे गूढ़ भावों से भरी इस प्रस्तुति को बंगलूरू की अट्टाकलरी रेपर्टरी ने तैयार किया है।

- संगम पांडेय

(जनसत्ता, 16 जनवरी 2012 से साभार)

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