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Saturday, January 28, 2012

रवींद्रनाथ ठाकुर और कंबार के नाटक


बुधवार को एलटीजी प्रेक्षागृह में बांग्लादेश के थिएटर ग्रुप ‘देश बांग्ला’ की प्रस्तुति ‘चांडालिका’ का मंचन किया गया है। यह रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाटक है, जो उनके कई और नाटकों की तरह कथ्य की आभासी लीक के समांतर उसकी अंतरव्याधियों में आगे बढ़ता है।

चांडाल मां बेटी, माया और प्रकृति, बसावट से दूर कहीं रहती हैं। राह से गुजर रहा बौद्ध भिक्षु आनंद बेटी प्रकृति से जल पिलाने को कहता है। पर वह अछूत कैसे किसी को जल पिलाकर भ्रष्ट करे। लेकिन आनंद से यह सुनकर कि ‘हम दोनों मनुष्य है’ और आत्मा-नकार मृत्यु के समान है’ उसके भीतर एक नया मनुष्य आकार लेता है। अपने वजूद का एक नया संज्ञान, जो उसे इच्छाओं से भर देता है। आनंद के प्रति उसकी प्रेम की इच्छा इसी का परिणाम है, जिसे यह मंत्रा-विद्या जानने वाली अपनी मां माया के जरिए हासिल करने की कोशिश करती है। नाटक में प्रकृति का आह्लाद कोई एक दृश्य मात्रा नहीं है। यह एक पूरा गठन है।

निर्देशक विभास विष्णु चौधरी की प्रस्तुति इस लिहाज से मंथर और थोड़ी बंधी हुई मालूम होती है, बल्कि कई बार ठिठकी हुई भी। जबकि प्रचलित अर्थ मंे इसका कुछ अधिक गीतिमय होना बेहतर होता। लेकिन विभासा विष्णु चौधरी के मुताबिक, वह प्रस्तुति नाटक का शुद्ध, संक्षिप्त और कथ्य पर केंद्रित पाठ है, और यह कि उन्होंने इसमें ‘कथ्यगत जटिलता को देखते हुए कुछ संरचनात्मक फेरबदल भी किए हैं’। उनके अनुसार यह ‘सच है कि संसार की प्रत्येक जीवित वस्तु प्रकृति का अंश है, लेकिन हम मनुष्यों ने खुद को उससे अलग कर लिया है और अपने आप को उच्च जाति का समझकर उस पर इस तरह शासन करते है जैसे वह नीची जाति का हो।’ जाहिर है, जो पाठ के आशयों को अपने ढंग से एक स्पष्टता देने की कोशिश करते हैं।

पहले ही दृश्य में अंधेरे में डूबे मंच पर बहुत सी चमकती हुई सफेद हथेलियां लहराती हुई दिखती हैं। फिर क्रमशः गाढ़ी होती रोशनी में सफेद दस्तानों और काले कास्ट्यूम वाले कई पात्रा स्पष्ट होते हैं। उनकी पीठ पर शरीर के अस्तिपंजर की लकीरंे उकेरी हुई हैं। साथ ही ताल दादरा और ‘काहे तुम छुप गए मोहन प्यारे’ के स्वर जाहिर है, आंतरिक लय के बजाय स्थितियों में योजना ज्यादा दिखाई देती है। हालांकि इस योजना में एक सादगी भी है।
‘चांडालिका’ का निर्देशन उषा गांगुली ने भी किया है। कुछ अरसा पहले देखी उस प्रस्तुति में वेशभूषा में चटक रंगों का इस्तेमाल याद आता है। भारत रंग महोत्सव में इसी सप्ताह उसका होना भी निर्धारित है। स्पष्ट है कि दोनों प्रस्तुतियों मिजाज का काफी फर्क रखती है।

बुधवार को ही अभिमंच में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों की चंद्रशेखर कंबार के कन्नड़ नाटक जो कुमारस्वामी पर अधारित प्रस्तुति ‘तोता बोला’ देखने को मिली। सजल मंडल निर्देशित इस प्रस्तुति में एक गांव का गौड़ा जमींदार अत्याचारों में अव्वल है पर संतान पैदा कर पाने में नाकाम। गांव के ही बसन्ना पर लड़कियाँ मरती हैं। इन बिल्कुल दो टूक नायक-खलनायक के दरम्यान एक गुरिया है, जो बसन्ना का सान्निध्य में कायर से हिम्मती बनता है। अंत तक पहुंचते-पहुंचते खलनायक की बीवी भी नायक की हो चुकी है। प्रस्तुति का ढंग कुछ ऐसा है कि पूरा कथ्य मंच पर एक रैखिक ढंग की कहानी में पेश होता है, जबकि कंबार के नाटकों में प्रत्यक्ष पाठ के समांतर एक अंतर्वस्तु का अहसास बना रहता है। फिर भी अभिनय और चरित्रांकन के लिहाज से यह एक ठीक ठाक प्रस्तुति थी। दानिश इकबाल, मुनमुन सिंह और सहिया विज प्रस्तुति में प्रभावित करते हैं।


- संगम पांडेय


(जनसत्ता, 13 जनवरी 2012 से साभार)

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