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Wednesday, February 1, 2012

खरी-खरी कहने वाला रंगमंच युवाओं की पसंद


ग्लैमर व कमर्शियल फिल्मों की लोकप्रियता के बीच दर्शकों का रंगमंच में बढ़ता रूझान इस बात का प्रमाण है कि आधुनिक परिवेश में भी युवाओं में सामाजिक सरोकार से जुड़े पहलू व गंभीर विषयों को समझने की ललक में किसी भी तरह से कमी नहीं आई है। आज के युवाओं को सिर्फ मार-धाड़ व भड़कीले आइटम सांग वाली फिल्में नहीं, बल्कि सामाजिक मुद्दों से रू-ब-रू कराता रंगमंच भी बेहद आकर्षित करता है। दर्शकों के बदलते मिजाज व हर नाट्य उत्सव के दौरान टिकटों के लिए उमड़ती भीड़ को देखते हुए विभिन्न नाटक अकादमी के आयोजकों ने अपने विचारों से दैनिक जागरण संवाददाता को अवगत कराया।

नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा की आयोजन समिति के सदस्य एके बरुआ ने बताया कि दिल्ली में रंगमंच का व्यवसायीकरण नहीं हुआ है, लेकिन पिछले कुछ सालों में तकनीकी तौर पर रंगमंच में बदलाव के कारण दर्शकों की रुचि में इजाफा हुआ है। परंपरागत दर्शक आज भी कायम हैं, जिनमें थिएटर को देखने की चाह और दीवानगी है। आधुनिक युवा भी इस ओर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में सफल हो रहे हैं।

वहीं उर्दू अकादमी के सचिव अनीश आजमी का कहना है कि रंगमंच के दर्शक अपने आप में अलग हैं। साहित्य की समझ व अच्छी सूझबूझ वाले दर्शक ही थिएटर के नाटकों का आनंद ले पाते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि दिल्ली के फैशनपरस्त युवाओं में भी इसकी समझ पैदा हो गई है। यही वजह है कि लगातार रंगमंच के दर्शकों में इजाफा हो रहा है। उन्होंने बताया कि कुछ साल पहले जहां नाटकों को देखने के लिए दोस्तों व अतिथियों को बार-बार निवेदन पत्र भेजना होता था, उसके बाद भी थिएटर के बीस फीसदी सीट खाली होते थे। आज एक नाटक के कई आयोजन होते हैं और उसके बाद भी दर्शकों द्वारा इसे फिर आयोजित करने के निवेदन आ जाते हैं। यह रंगमंच की बढ़ती लोकप्रियता का ही प्रमाण है।

साहित्यकार एवं हिंदी, मैथली-भोजपुरी अकादमी के सचिव रविन्द्र श्रीवास्तव (परिचय दास) ने बताया कि रंगमंच के नाटकों की प्रस्तुति के बाद दर्शक अपने आप से सवाल करते हुए नजर आते हैं, क्योंकि उनमें वही चीजें दिखाई जाती हैं जो यथार्थ से जुड़ी होती हैं। फिल्मों को देखकर खुद को आधुनिक महसूस करने वाले दर्शक आज थिएटर को देखकर भी उतने ही उत्साहित नजर आते हैं। यह फर्क वाकई में रंगमंच की सफलता को दर्शाता है। लेकिन उन्होंने इस बात का अफसोस भी जताया कि बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र व कर्नाटक के रंगमंच की तुलना में अभी भी हिंदी रंगमंच काफी पिछड़ा हुआ है, जिसे और बेहतर बनाने की जरूरत है।

वहीं पंजाबी अकादमी के सचिव रावेल सिंह ने बताया कि फिल्मों में गंभीरता की कमी है। संगीत की भरमार के साथ दर्शक सिर्फ कल्पना की दुनिया में विचरण करते हैं, जिसका यथार्थ से दूर तक सरोकार नहीं होता। आज दर्शक यथार्थवादी आयोजनों को तवज्जो दे रहे हैं, जिससे उनका रंगमंच की तरफ रूझान तेज हो गया है।

- शिप्रा सुमन, नई दिल्ली

(दैनिक जागरण से साभार)

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