RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Thursday, November 15, 2012

बहुभाषिक नहीं होने के खतरे


- गिरीश कारनाड

हमारी शिक्षा व्यवस्था का एकल भाषा आधारित होना बहुत ही भयानक है. जहां स्कूलों में बच्चे अंततः एक ही भाषा ‘अंग्रेजी’ में सीखने को बाध्य हैं. आखिर हमारे स्कूलों में सीखने का माध्यम एक ही भाषा क्यों है? मैंने अंग्रेजी दसवीं के बाद पढ़ी. बहुभाषिकता की योग्यता का तेजी से क्षरण बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. जबकि बच्चों में एक से अधिक भाषाओं के सीखने की क्षमता होती है और जो लोग बॉर्डर पर रहते हैं वे सब बहुत ही सहजता से कई भाषाएं बोल-समझ लेते हैं. बहुभाषिक होते हैं. यह कैसी बहुभाषिक विचित्र स्थिति है कि एक ओर जहां क्षेत्रीय भाषाओं में अनेको सेटेलाइट चैनल हैं तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी सीखने और रोजगार की भाषा बनकर सभी भारतीय भाषाओं को लीलता जा रहा है. यह एक विरोधाभासी सचाई है कि एक ओर तो हमारी मातृभाषाएं ‘हंस और रो’ रही हैं जबकि हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में भेजने की होड़ में लगे हैं ताकि वे मौजूदा रोजगार के बाजार में फिट हो सकें.

औपनिवेशिकरण ने हमारे जीवन और कलाओं पर गहरा प्रभाव डाला है. जाति के प्रति हमारी समझ, संस्कृति, कला और भाषा के जिन विचारों और अवधारणाओं के बीच हम रह रहे थे उसके नये मूल्यांकन को अंग्रेजी ने बहुत हद तक प्रभावित किया है. हम देखते हैं कि जहां नृत्य और संगीत जैसे कुछ कला रूप जटिल औपनिवेशिक संवाद के कारण और तेजी से विकसित होते हैं जबकि स्थापत्य एवं चित्रकला अपना आधार खो देते हैं. रंगमंच पर शेक्सपीयर का प्रभाव व्यापक तौर पर पड़ता है और पचास के दशक तक हमें ऐसी प्रभावशीलता वाला कोई भारतीय नाटक नहीं दिखाई देता. टैगोर जितने महान कवि हैं उतने ही महान नाटककार नहीं हैं. उनके नाटक दोयम दर्जें के हैं. उनके लिखे नाटकों में से कुछ ही नाटक पर काम हुआ है। बीते 50 साल में भारत ने बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर जैसे तमाम नाटककार पैदा किए हैं. वे टैगोर से कहीं बेहतर हैं.

औपनिवेशिक आधुनिकता के कारण ही तकनीक के नये रूपों से हमारा परिचय हुआ जैसे कि पिं्रटिंग और फिल्म. लंबे समय तक गीत, संगीत और नृत्यों के भरमार की वजह से भारतीय फिल्मों की आलोचना की जाती रही है. पर ध्यान देने वाली बात है कि इसी एक विशेषता ने भारतीय फिल्मोद्योग को ‘हॉलीवुड की खुराक’ बनने से बचा लिया. जबकि यूरोपीयन सिनेमा हॉलीवुड से बच नहीं पाया. हां, सही है कि भारतीय सिनेमा ‘टाइटेनिक’ नहीं बना सकता. पर यह भी सच है कि हॉलीवुड भी ‘हम आपके हैं कौन’ का निर्माण नहीं कर सकता.

- अजीम प्रेमजी युनिवर्सिटी, मुम्बई में 8 नवंबर 2012 को दिए गए व्याख्यान का अंश. अनुवाद एवं प्रस्तुति: रंगवार्ता source : http://www.thehindu.com/news/states/karnataka/bemoaning-the-loss-of-bilingualism/article4078293.ece

Monday, September 17, 2012

जिंदगी से जुड़े बगैर अच्छा नाटक नहीं लिखा जा सकता


महेश दत्ताणी भारतीय नाटककारों में अग्रणी स्थान रखते हैं। 'फाइनल सॉल्यूशंस', 'डांस लाइक अ मैन', 'तारा' और 'थर्टी डेज इन सेप्टेंबर' जैसे नाटकों ने न सिर्फ उन्हें दुनिया भर में ख्याति दिलाई, बल्कि भारतीय रंग परिदृश्य पर गहरा असर भी डाला है। अभी कुछ दिनों पहले वह भोपाल नाट्य विद्यालय, मध्यप्रदेश के दीक्षांत समारोह में भाग लेने के लिए भोपाल गए थे। उनसे राजेश चन्द्र की बातचीत:

पिछले 20-25 वर्षों में आपकी नजर में भारतीय रंगमंच ने क्या खोया और क्या पाया है?

भारतीय रंगमंच एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। हर प्रदेश में कई तरह के काम हो रहे हैं। मैं अपने नजरिए की बात करूंगा। इधर एक कोशिश रिवाइवल की मुझे जरूर दिखाई पड़ती है। जो फॉर्म लुप्त हो रहे हैं, उन्हें बचाने की कोशिश हो रही है, पर इतना करना ही काफी नहीं है। हम अपनी लोक नाट्य परंपराओं को आगे नहीं बढ़ा पा रहे। बैले जो पचास साल पहले था, हम उसमें किसी तरह का बदलाव नहीं ला सके। यह उनकी सेहत के लिए अच्छा नहीं है। परंपरा रिवाइव हो रही है, उसमें निरंतरता है, यह बात मुझे बहुत अच्छी लगती है।

पिछले 50 वर्षों के रंगमंच को भारतीयता की खोज का रंगमंच कहा जा रहा है। इस विषय में आप क्या सोचते हैं?

यह सब मुझे बहुत बनावटी नजर आता है। असल में भारतीयता की खोज एक राजनीतिक मुद्दा है। यह सांस्कृतिक मुद्दा नहीं है। भारत, अफगानिस्तान या पाकिस्तान की सांस्कृतिक पहचान क्या अलग-अलग है? मुझे यह विचारधारा काफी पिछड़ी हुई लगती है। आज दुनिया भर में देशों की सीमाएं खत्म हो रही हैं। असल में भारतीयता का नारा देश को हिंदुत्व की लाइन पर आगे बढ़ाने के मकसद से ही लगाया जा रहा है। और लोग हैं कि बिना उसकी असलियत को समझे ही उसकी रौ में बहे चले जा रहे हैं।

नाटक लिखते वक्त क्या आप किसी विशेष दर्शक वर्ग को ध्यान में रखते हैं? या सब स्वाभाविक ढंग से होता चला जाता है।

यह बहुत ही मुश्किल सवाल पूछा आपने। आप अगर यह सोचते हैं कि आप अपने दर्शक को सचमुच जानते-समझते हैं, तो यह आपकी एक बहुत बड़ी गलतफहमी है। यह कहना भी कि मैं तो सिर्फ अपने लिए लिखता हूं, बिलकुल गलत होगा। मेरी व्यक्तिगत इच्छा तो यह है कि मैं अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का ज्यादा से ज्यादा जनता के मुद्दों को उठाने में उपयोग करूं। मुझे भी अच्छा लगता है जब मेरे नाटकों को देखने बड़ी संख्या में दर्शक पहुंचते हैं और उनकी सराहना भी करते हैं।

नाटक लिखना आपके लिए कविता, कहानी या उपन्यास जैसी दूसरी विधाओं में लिखने से किस तरह अलग है?

यह बहुत अलग है। सच बात यह है कि नाटक की अंतिम यात्रा कागज पर नहीं मंच पर है। यह याद रखना पड़ता है कि आपके बाद भी कई लोग आएंगे जो उसमें काफी कुछ जोड़ सकते हैं। इसलिए आप उसे किसी बंदरिया के बच्चे की तरह चिपटाकर नहीं रख सकते। नाटककार नाटक के लिए मां की तरह है, जिसकी सोच यही होती है कि उसका नाटक फले-फूले, विकसित हो, उसका निरंतर विकास होता रहे। नाटक लिखते समय इन चीजों का ध्यान रखा जाना जरूरी होता है।

पारंपरिक नाट्य रूपों के तेजी से बढ़ते इस्तेमाल पर क्या कहना चाहेंगे?

यह सब ग्रांट मिलने की वजह से हो रहा है। लोग अनुदान में मिलने वाले पैसों के कारण किसी परंपरागत नाट्य शैली को पकड़कर काम करना चाहते हैं। इसके मूल में सिर्फ व्यावसायिकता है। यह बात अलग है कि वे ऐसा भ्रम जरूर फैलाए रखते हैं मानो सांस्कृतिक परंपरा को बचाने का महान काम कर रहे हैं।

आज भी अच्छे और गंभीर नाटकों के लिए हमें दुनिया की दूसरी भाषाओं की तरफ जाना पड़ता है। नाटक की ओर हमारी हिंदी के लेखकों का झुकाव क्यों नहीं है?

मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि मैं अंग्रेजी में नाटक लिखता हूं। पर यह मेरी मजबूरी है। दूसरी भाषाओं में लिखने वालों को उतना महत्व नहीं मिलता। सामाजिक क्षेत्र में जो बाधाएं हैं, उन्हें मिलकर ही समाप्त किया जा सकता है। यह समझना होगा कि हमें जड़ों के साथ शाखों और पत्तों की भी उतनी ही जरूरत है। लेखक के लिए जरूरी है कि वह खुद को अपने समाज का साक्षी समझे, उसका भागीदार समझे, उसके संस्कारों से जुड़े। जब तक हम जनता की जिंदगी से, उस जिंदगी की सच्चाइयों से खुद को नहीं जोड़ेंगे, अच्छा नाटक कैसे लिख पाएंगे? गुफाओं में बैठकर कविता तो लिखी जा सकती है, नाटक नहीं।

अभी किस विषय पर काम कर रहे हैं?

इन दिनों दो नाटक लिखे हैं - एक लिंलेट दुबे को दिया है जो नवंबर में शुरू होगा। एक और नाटक है जो मैं खुद निर्देशित करूंगा। एक निर्देशक के तौर पर मुझे उसमें बहुत दिलचस्पी है। मुंबई में जो हालत है, लोग यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे सफल हैं, पर असलियत कुछ और ही होती है। 'द बिग फैट सिटी' नाटक नवंबर में शुरू करूंगा, जिसे फरवरी तक मुंबई में ओपन करने की योजना है। मैं एक फ्रीलांसर हूं। मुझे किसी के साथ बंधने में घुटन होती है। बंधकर आप संगठन की सेवा कर सकते हैं, नाटक की नहीं।

(नवभारत टाइम्स | Sep 8, 2012 से साभार)

Sunday, August 26, 2012

भाजपाई विरोध के चलते भोपाल में ‘तमाशा न हुआ’


23 अगस्त, 2012: भारतीय जनता पार्टी की निगाह में जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है, इसका अंदाजा भोपाल की ताजा घटना से लगाया जा सकता है। वहां भारत भवन में रंगमंडल थिएटर उत्सव के दौरान बीते शनिवार की शाम भानु भारती के निर्देशन में ‘तमाशा न हुआ’ नाटक का मंचन था। रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक ‘मुक्तधारा’ पर आधारित इस नाटक में विभिन्न पात्रों के कुछ संवाद भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक को इतने आपत्तिजनक लगे कि उन्होंने उसे राष्ट्रविरोधी तक घोषित कर डाला और मामला उच्चाधिकारियों तक ले जाने की बात कही।

इसके पहले भाजपा ने ‘नील डाउन ऐंड लिक माइ फीट’ नाटक पर भी आपत्ति जताते हुए उसे ‘पवित्र’ भारत भवन में मंचित होने से रोक दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, इसलिए शायद उसके कार्यकर्ताओं को अपने मन-मुताबिक सांस्कृतिक पहरेदारी करने में सुविधा हो सकती है। लेकिन जिस तरह वे ‘तमाशा न हुआ’ नाटक को राष्ट्रविरोधी बता कर उसके खिलाफ वितंडा खड़ा करने में लगे हैं, वह किसी के गले नहीं उतर रहा। यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बार मंचित हो चुका है और हर बार उसकी सराहना हुई है। इसमें ‘मुक्तधारा’ के पूर्वाभ्यास के बहाने गांधीवाद, मार्क्सवाद, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार, यांत्रिकता, मनुष्य, प्रकृति और विज्ञान के बीच संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना निर्देशक और पात्रों के बीच गंभीर बहस होती है। कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति ऐसी बहस को एक स्वस्थ और जनतांत्रिक समाज की निशानी मानेगा। लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक पहरुओं को केवल एक बात याद रह जाती है कि इसमें एक जगह भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बांध और चिनाब नदी पर बगलिहार पनबिजली परियोजनाओं के कारण बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों के सामने पैदा होने वाले संकट की चर्चा की गई है। सिर्फ इसी वजह से भाजपा ने इस नाटक को यहां के बजाय पाकिस्तान में मंचित करने की सलाह दे डाली।

विचित्र है कि जिन बहसों और बातचीत से एक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मजबूत होती है, वे भाजपा के अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी लगती हैं। सवाल है कि क्या वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहस के लिए कोई जगह नहीं होगी? अब तक आमतौर पर आरएसएस से जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या श्रीराम सेना जैसे कट््टरपंथी धड़े ऐसी असहिष्णुता दर्शाते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों की प्रदर्शनी से लेकर कला माध्यमों में मौजूद प्रगतिशील मूल्य उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा नजर आते हैं और उनका विरोध करने के लिए वे हिंसा का सहारा भी लेते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि खुद भाजपा भी भावनात्मक मसलों को अपनी राजनीति चमकाने के लिहाज से फायदेमंद मानती रही है, इसलिए उन्हें मुद्दा बनाने का वह कोई मौका नहीं चूकती। सत्ता में आने पर अपने एजेंडे पर अमल करना उसके लिए और सुविधाजनक हो जाता है।

गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में संस्कृति की रक्षा के नाम पर सभी सरकारी और स्थानीय निकायों में ‘वंदे मातरम’ का गायन अनिवार्य कर दिया गया है, स्कूल-कॉलेजों में फैशन शो पर पाबंदी लगा दी गई है और करीब एक दर्जन शहरों को पवित्र घोषित करके वहां खाने-पीने की चीजों को लेकर कई तरह के फरमान जारी किए गए हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में खुद को एक ताकतवर पक्ष मानने वाली भाजपा को यह सोचना चाहिए कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना उसका पहला दायित्व है।

जनसत्ता, दिल्ली से साभार

Sunday, August 12, 2012

आईना ढूंढे है अपना चेहरा


संजय कृष्ण
एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं। जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है।
रांची के रंगमंच पर बात करना आसान नहीं। रांची की जो बनावट और बुनावट है, संस्कृतियों का जो घालमेल है, उससे रांची का कोई अपना चेहरा नहीं बनता। आठ दशकों से ऊपर रंगमंच की यात्र में न जाने कितने पड़ाव आए, लेकिन कोई एक चेहरा मुक्कमल नहीं बन पाया है, जबकि आधा दर्जन नाट्य संस्थाएं रह-रह कर सक्रिय रही हैं। आज भी कुछ संस्थाएं सक्रिय हैं, जो रह-रहकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
पांच-सालों के दौरान 2012 का यह साल इस मामले में काफी खुशकिस्मत रहा। अखड़ा ने मार्च में तीन दिनी नाट्योत्सव का आयोजन कराया। अजय मलकानी की संस्था युवा रंगमंच ने भी जून में तीन दिनों तक वैरागी मन हारा का मंचन किया। केंद्रीय पुस्तकालय में रंगवार्ता ने विभारानी की एकल प्रस्तुति का आयोजन कराया, लेकिन अजय मलकानी की प्रस्तुति में दर्शकों का टोटा रहा तो केंद्रीय पुस्तकालय में पहली बार लोगों ने सौ-सौ रुपये सहयोग देकर नाटक देखा। एक्सआइएसएस के हॉल में भी अखड़ा के तीन दिनी उत्सव में दर्शकों की कोई कमी नहीं रही। क्यों? रंगकर्मी बार-बार दर्शकों का रोना रोते हैं।
यह समस्या पूरे हिंदी पट्टी में है। रांची इससे अछूती नहीं है, लेकिन यह सवाल जरूर उठता है कि आखिर एक नाटक को देखने के लिए लोग पैसा देकर जाते हैं, दूसरे में नहीं। मलकानी ने तीन दिनों तक एक ही नाटक का मंचन किया। लेकिन उसका व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं किया। दूसरे, जो विषय था, वह अब अप्रासंगिक है। जो दर्शकों को अपनी ओर खींच नहीं पाया।
रांची में दर्शकों की कमी नहीं हैं, क्योंकि रांची के एक कोने में विभा रानी के प्ले को देखने के लिए पूरा हॉल भर जाता है। एक सार्वकालिक प्रश्न यह है कि हिंदी लेखकों की तरह हिंदी का रंगकर्मी भी अपने ही समाज से दूर है। यह बात बांग्ला, मराठी, मणिपुरी या तमिल रंगमंचों के साथ नहीं हैं।
जिन्होंने एक्सआइएसएस में तीन दिनों तक नाटकों को देखा होगा, उन्हें इस बात का बखूबी एहसास होगा कि रंगमंच विरोध का सबसे ताकतवर हथियार है। पिछले दिनों मजलिस ने मेकॉन में एक नाटक पद्मा नदीर मांझी का मंचन कराया था। कोलकाता से टीम आई थी। आयोजक उदयन बसु ने बताया कि देखने के लिए पास सुविधा दी गई है, लेकिन सबको हिदायत भी दी गई है कि वे अपने साथ किसी और को लेकर न आएं।
उन्होंने चार सौ पास बांटे थे और इतनी ही बैठने की व्यवस्था की गई थी। नाटक संध्या छह बजे शुरू होने वाला था और हॉल सवा छह बजे भर गया। नाटक मछुआरों की जिंदगी को उकेरता है। क्या हिंदी का रंगमंच अपने लोगों की आवाज बन पाया है? क्या वह अपने लोगों को अपने साथ जोड़ पाया है? हिंदी लेखकों-आलोचकों की तरह वायवीय होकर अपना चेहरा नहीं ढूंढ सकता है।

Friday, July 27, 2012

चायकोवस्की आज भी क्लीन में रहते हैं


प्योतर चायकोवस्की रूस के ऐसे महान् संगीतकार हैं, जिनका नाम पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है। जैसे दुनिया भर के लोग रूसी कवि अलेक्सान्दर पूश्किन और रूसी लेखकों लेव तलस्तोय और फ़्योदर दस्तायेवस्की को जानते हैं, वैसे ही चायकोवस्की को भी जानते हैं। लेव तलस्तोय और प्योतर चायकोवस्की भी एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। वे मित्र थे और अक्सर कला सम्बन्धी चर्चाएँ और बहसें किया करते थे। लेव तलस्तोय अक्सर चायकोवस्की की संगीत रचनाओं को अपने घर पर पियानो पर बजाया करते थे। तलस्तोय और चायकोवस्की के एक और मित्र थे —अन्तोन चेख़व। चेख़व और चायकोवस्की के बीच लम्बे समय तक पत्र-व्यवहार भी हुआ। अन्तोन चेख़व ने अपना एक कहानी-संग्रह भी उन्हें समर्पित किया था। कभी चेख़व ने चायकोवस्की के बारे में कहा था — मैं उनका इतना ज़्यादा सम्मान करता हूँ कि मैं उनके घर के दरवाज़े पर दिन और रात खड़ा रह सकता हूँ ताकि प्योतर चायकोवस्की की एक झलक पा सकूँ। अगर पूरी रूसी संस्कृति की बात की जाए तो मैं उन्हें लेव तलस्तोय के बाद दूसरे नम्बर पर रूसी कला और संस्कृति का प्रतिनिधि मानता हूँ।

19 वीं शताब्दी में चायकोवस्की के जीवनकाल में ही रूस के अन्य कलाकार, नाटककार, लेखक, अभिनेता, संगीतकार और कवि आदि भी प्योतर चायकोवस्की का बड़ा सम्मान करते थे। इसका कारण शायद यह है कि उनका संगीत श्रोता के मन की गहराइयों में पूरी तरह से प्रवेश कर जाता है और उनकी संगीत-रचना का श्रोता अपने आसपास की दुनिया को भूलकर उसी संगीत में डूब जाता है। व्यक्ति का अपना दुख, अपना सुख, अपनी पीड़ा, अपनी ख़ुशी सब चायकोवस्की के संगीत के साथ एक-मेक हो जाती हैं।

प्योतर चायकोवस्की का जन्म मई 1840 में हुआ था। उनके पिता एक खदान में इंजीनियर थे। जब चायकोवस्की सिर्फ़ पाँच वर्ष के ही थे तो उनकी माँ ने उन्हें पियानो बजाना सिखाना शुरू कर दिया और फिर पियानो ही उनका जीवन हो गया। लेकिन उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे, इसलिए स्कूली शिक्षा समाप्त करने के बाद उन्हें कानून की पढ़ाई करनी पड़ी। सेंट पीटर्सबर्ग में वे वकालत पढ़ने के साथ-साथ संगीत में भी डूबे रहे। कानून की शिक्षा पाने के बाद वे रूस के न्याय और कानून मंत्रालय में काम करने लगे।

परन्तु 22 वर्ष की उम्र में उन्होंने कानून-मंत्रालय की अपनी नौकरी छोड़ दी और सेंट पीटर्सबर्ग के संगीत महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया। बस, उनके जीवन में आए इसी मोड़ ने उन्हें संगीतकार बना दिया। उन्होंने नया से नया संगीत रचना शुरू कर दिया। उनकी धुनें लोकप्रिय होने लगीं और लोग उन्हें पहचानने लगे। बस, इसी तरह धीरे-धीरे वे प्रसिद्ध होते चले गए।

प्योतर चायकोवस्की ने दस ओपेरा नाटिकाओं को संगीतबद्ध किया है। उन्होंने तीन बैले-नाटिकाओं का संगीत रचा है। सात सिम्फ़नियाँ रची हैं। उनकी और भी सैंकड़ों संगीत-रचनाएँ हैं। चायकोवस्की के संगीत पर आधारित नाटिकाएँ न केवल रूस और यूरोप में, बल्कि अमरीका, जापान और चीन जैसे देशों में भी बड़ी लोकप्रिय हैं। उन्हें संगीतकारों का संगीतकार कहा जाता है।

प्योतर चायकोवस्की ज़्यादातर सेंट पीटर्सबर्ग या मास्को में रहते थे या फिर वे विदेशों के दौरे करते रहते थे। लेकिन मास्को से सौ किलोमीटर दूर क्लीन नगर में उनका अपना घर था, जहाँ पर वे एकान्त में संगीत-रचना किया करते थे। इसी क्लीन नगर में आज चायकोवस्की संग्रहालय बना हुआ है। उस घर में जहाँ वे रहा करते थे, आज भी सब कुछ वैसा का वैसा है, जैसा उनके जीवनकाल में था। सारी दुनिया के संगीतप्रेमी चायकोवस्की से मिलने और उनका घर देखने के लिए आज भी क्लीन पहुँचते हैं।

इस घर में आज चायकोवस्की नहीं रहते, लेकिन जैसे उनकी आत्मा इस घर में बसी हुई है। हर पाँच साल में एक बार मास्को में प्योतर चायकोवस्की संगीत-प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है, जिसमें दुनिया भर के युवा और किशोर संगीतकार भाग लेते हैं।

सन् 2015 में प्योतर चायकोवस्की की 175 वीं जयन्ती मनाई जाएगी। दुनिया भर के संगीत-प्रेमी यह चाहते हैं कि सन् 2015 के साल को 'प्योतर चायकोवस्की वर्ष' घोषित कर दिया जाए।

http://hindi.ruvr.ru/2012_07_22/82490792/ से साभार

Thursday, July 26, 2012

जहां रंगमंच पानी में बहता है


जर्मनी के हर्जोगटम लाऊएनबर्ग जिले, जिसे डची ऑफ लाऊएनबर्ग के नाम से भी जाना जाता है, में ग्रीष्म ऋतु हर साल अपने साथ उत्सवों का माहौल लेकर आती है। इन उत्सवों का संस्कृति तथा प्रकृति से गहरा संबंध है। ‘कुलतरसोमर एम कनाल’ नामक एक उत्सव वर्ष 2006 से यहां हर वर्ष आयोजित किया जा रहा है।

इस उत्सव का खास आकर्षण एक रोविंग थिएटर (पानी में बहता रंगमंच) है जिसमें दर्शकों को स्कालसी नहर में एक दृश्य से दूसरे दृश्य तक नाव को खेते हुए जाना पड़ता है। यह स्थान ऐतिहासिक कस्बे रात्जबर्ग के दक्षिण-पूर्व में स्थित है। फैस्टीवल के डायरैक्टर फ्रैंक डयूवैल के अनुसार, ‘‘यह उत्सव केवल लाऊएनबर्ग में ही आयोजित हो सकता है क्योंकि यहां प्रकृति तथा भूदृश्य उत्सव की विषय वस्तु को तय करते हैं। झीलें, जंगल तथा स्थान हर चीज अपनी कहानी कहती है जबकि संगीत, रंगमंच तथा चित्र उन्हें जरा विस्तार से समझाते हैं।’’

1300 वर्ग किलोमीटर में फैले हर्जोगटम लाऊएनबर्ग जिले का नाम मध्यकाल के डची (सामंती इलाका) ऑफ साक्स-लाऊएनबर्ग पर पड़ा है। 1864 में दूसरे स्क्लेसविग युद्ध के पश्चात इस पर फारस का कब्जा हो गया और 1876 में इसे जर्मनी के उत्तरी राज्य स्क्लेसविच-होल्सटाइन में शामिल कर लिया गया। हैम्बर्ग शहर के करीब स्थित डची ऑफ लाऊएनबर्ग की 48 झीलें तथा साकसेनवाल्ड का विशाल जंगली क्षेत्र प्रकृति की सुंदरता को निहारने के इच्छुक पर्यटकों में बेहद लोकप्रिय है।

हालांकि ग्रीष्म ऋतु में यहां की रईस संस्कृति की झलक पेश करते विभिन्न स्थानों को भी देखा जा सकता है। इनमें वोटरसन का किला भी शामिल है। लाऊएनबर्ग जिले की राजधानी रात्जबर्ग की स्थापना 1143 में हुई थी। जल्द ही यह कस्बा हैनरी द लायन के शासन का हिस्सा बन गया जिन्होंने 1165 में यहां रोमनेस्क्यू गिरजाघर का निर्माण करवाया। यह ऐतिहासिक गिरजाघर पुराने कस्बे के उत्तरी हिस्से में स्थित है। इसी गिरजाघर के प्रांगण में ए.पॉल वैबर म्यूजियम भी स्थित है। इस म्यूजियम में 300 लिथोग्राफ्स (पाषाण से उकेरे चित्र या लेख), ड्राइंग्स तथा ऑयल पेंटिंग्स प्रदर्शित हैं।

म्यूजियम में प्रदर्शित ऑयल पेंटिंग्स के कलाकारों में से अधिकतर को रात्जबर्ग के निकट स्थित एक छोटे से गांव स्करेत्सटेकेन में रहते थे। जुलाई महीने के अंत में यहां आयोजित होने वाला रासेसबर्ग बाइलाग मिडेवियल नामक रंगारंग उत्सव पर्यटकों का खूब मनोरंजन करता है जहां वाइकिंग, रोमन, नोर्मन तथा अन्य लड़ाकू वेशभूषाओं में सजे कलाकार लड़ाइयों के नकली दृश्य पेश करते हैं। यहीं एक कस्बे मोएलन में टिल यूलैनस्पीगल नामक एक मसखरा बहुत लोकप्रिय है। कुछ का मानना है कि यह महज एक काल्पनिक व्यक्तित्व है परंतु आज भी यहां के कई लोग मानते हैं कि यह नटखट तथा शरारती व्यक्ति वास्तव में हुआ करता था।

मान्यता के अनुसार सन् 1350 में मोएलन में उसकी मौत प्लेग के कारण हुई थी। वह लोगों का मजाक उड़ाने का कोई मौका हाथ से जाने नहीं देता था जिसमें वह उनकी बुराइयों, लालच तथा मूर्खता को उजागर करता था। मोएलन में वह हर कहीं दिखता है जहां टिल यूलैनस्पीगल म्यूजियम भी स्थित है। यहां एक स्थान पर उसकी प्रतिमा भी स्थापित है। मान्यता है कि इसे एक साथ दोनों तरफ से रगडऩे पर भाग्योदय होता है। इस कस्बे में प्रत्येक तीन साल पर यूलैनस्पीगल उत्सव का आयोजन भी होता है। यह उत्सव इस साल भी आयोजित हो रहा है जो 9 से 18 अगस्त तक चलेगा।

पंजाब केसरी से साभार

Tuesday, July 17, 2012

जीवन के सत्यार्थ को पेश करता ‘अगस्त: ओसेज काउंटी’


जिंदगी के उतार चढ़ाव और क्षीण भावनाओं से भरी विकट परिस्थितियों के रास्ते से होकर गुजरता है अगस्त: ओसेज काउंटी। ट्रेसी लैट्स द्वारा रचित इस अंग्रेजी नाटक का मंचन गोवा में फिल्माया गया, जिसकी पटकथा में पाश्चत्य संस्कृति को बखूबी बयान किया है लेकिन इसका भारतीय सभ्यता के मूल चित्रण के बाद यह अपनी वास्तिवकता नहीं खोता और निरंतर जीवन के हर रंगीन और काले पलों की झलक उकेरता हुआ नजर आता है। द ट्रिब्यून ट्रस्ट के सौजन्य से यहां सेक्टर 18 के टैगोर थियेटर में लिलेट दूबे द्वारा निर्देशित किए गए इस नाटक में तमाम दिग्गज थियेटर कलाकारों ने हर चरित्र को बखूबी निभाया। 135 मिनट चले अगस्त: ओसेज काउंटी में एक वेस्टन परिवार के दुख को पात्रों ने यूं बयां किया है कि परिवार के सदस्य विकट परिस्थितियों के बावजूद खुशी की तलाश करते हैं, जिसे पात्रों ने बखूबी निभाया। थियेटर कलाकार किटू गिडवानी, नीता वशिष्टï, अमर तलवार, संध्या मृदुल, सुमित्रा पिल्लई, नंदीता दूबे और स्वयं लिलेट दूबे ने एक परिवार पर मुखिया के बिछडऩे के बाद टूटे दर्द और मार्मिकता को बयां किया है। वेस्टन परिवार सभ्यता और भावुकता के मिश्रण को सत्यार्थ करता है। लियोन परिवार का मुखिया है। वह पांच दिन से गायब है। उसके इंताजर में सारा परिवार दुखी भी है और बेहद भावुक भी है। लेकिन उसकी मौत की खबर सबको भीतर तक तोड़ देती है। कहानी शमशानघाट से मुड़ती है, जहां से लियोन के परिवार को रिश्तेदार ढांढस बंधाते हैं, साथ ही परिवार को कटीली आंखों से भी देखते हैं। क्योंकि तमाम बुराइयां इस परिवार का पीछा नहीं छोड़े हुए थी। लियोन पत्नी वोलेट अपने शौख अंदाज में पति की मौत को भूलाने का प्रयास करती है। नाटक में उसकी तीन बेटियों के चरित्र भी बेहद प्रेरक हैं जो परिवार के मुखिया के बिछडऩे के बाद हर परिस्थिति का सामना खुशी खुशी करते हुए करती हैं। वे मां से आहत भी हैं। (दैनिक ट्रिब्यून 15 जुलाई से साभार)

Wednesday, July 11, 2012

हर क्षेत्र में, हर भाषा में नाट्य प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी ही चाहिए - कारंत


रंगकर्मी ब॰ व॰ कारंत अब हमारे बीच नहीं हैं। लेकिन न सिर्फ़ हिंदी और कन्नड़ बल्कि भारतीय रंगमंच में उनका जो अवदान है वह न सिर्फ़ अविस्मरणीय है, मील का पत्थर भी है। संगीत भी वह साधते थे और कहते थे कि नाटक पॉपुलर होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है गर्मी पैदा करना। वह जब आखि़री बार लखनऊ आए थे तो एक नाट्य प्रतियोगिता में शिरकत के लिए। उनकी सादगी और सक्रियता देखते बनती थी। तभी राष्ट्रीय सहारा के लिए ब॰ व॰ कारंत से दयानंद पांडेय ने एक ख़ास बातचीत की थी। पेश है वह बातचीत:


प्रसिद्ध निर्देशक और रंगकर्मी ब॰ व॰ कारंत का कहना है कि मैं हीरो वाले नाटकों को बहुत कम पसंद करता हूं। मैं करता नहीं। अब कि जैसे भारतेंदु का अंधेर नगरी चौपट राजा नाटक मैंने किया। इसमें कोई हीरो नहीं। इसमें सरकारी तंत्र पर जो व्यंग्य किया गया है, इस नाते यह हमेशा प्रासंगिक रहता है। ‘कल्लू बनिए को पकड़ लाओ जी’ जैसे संवादों के मार्फत अंधेर नगरी सिर्फ़ हास्य नाटक नहीं, व्यंग्य हो जाता है। और आज के हालात पर, त्रासदी पर इससे सटीक व्यंग्य मुझे नहीं दिखता।

कारंत कहते हैं कि इसी तरह कालिदास की शकुतला मेरे लिए आज भी प्रासंगिक है। क्यों कि दुष्यंत आज भी शकुंतला को धोखा देता मिलता है। डेढ़ सौ साल पहले का यह नाटक है। पर शकुंतला पुरूष के लिए आज भी जंगली चीज़ है। शुरू में जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मैंने इन नाटकों को उठाया तो इन नाटकों के बारे में बहुत सारी शंकाएं उठाई गईं। अब पाता हूं कि मेरी बहुत सारी पुरानी धारणाएं निरंतर टूटती जाती हैं। खैर इस पर बात ज़रा आगे। पहले हम लोग कहते थे कि नाटक करना पैदाइशी है। पर अब मानते हैं कि सीखना चाहिए। और फिर भी इस सबके बावजूद भरतमुनि से आगे हम नहीं बढ़ पाए हैं। खुशी है इस बात की। तो माडर्न नाटक क्या है? मेरे लिए अंतर नहीं पड़ता कि आज का नाटक तुगलक है कि कल का शकुंतला ! बस प्रासंगिकता रहनी चाहिए। तो नाटक में ट्रेनिंग ज़रूरी है कई बार तात्कालिक चीज़ों पर भी नाटक ठीक लगते हैं। जैसे मंडल आंदोलन चला तो उस पर भी नाटक हुए। गिरीश कर्नाड ने भी नाटक लिखा कन्नड़ में तलदंडा। फिर घासी राम कोतवाल, हयवदन बिलकुल भिन्न नाटक हैं। दरअसल, रंगमंच में समकालीनता की तलाश हो रही है। यह आज का ट्रेंड है। पर दिक्क़तें भी कई हैं। रंगमंच से संबंधित पत्रिकाएं पहले चलती थीं। और म्यूज़िकल कंसेप्ट की भी। नटरंग, नाट्य शोध आज भी है।

कारंत कहते हैं कि मैं माडर्न थिएटर नहीं मानता। समकालीनता को मानता हूं। जैसे महेश दत्तानी लिखते अंगरेज़ी में हैं पर समस्या हिंदुस्तानी लेते हैं। जाति-पांति का सवाल है। ये सारे सवाल अब नाटक में देखे जा सकते हैं। हां, तकनीक वेस्टर्न ले सकते हैं, कैसेट जैसी तकनीक लेना भी ग़लत नहीं है। किसी चीज़ को वेस्टर्न कह कर नहीं फेंक सकते। वस्तुतः रंगमंच का स्वरूप वेस्टर्न से काफी प्रभावित है। ब्रेख्त की बात करते हैं तो संसार के रंगमंच की भी बात करते हैं। रंगमंच में कमियां भी बहुत हैं हमारे। क्यों कि हिंदुस्तान में बहुत सी भाषाएं हैं। तो भाषागत विविधता होते हुए भी प्रशिक्षण के लिए एक ही स्कूल है नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा। यह ठीक नहीं है। हर क्षेत्र में, हर भाषा में नाटक की ट्रेनिंग की व्यवस्था होनी ही चाहिए। पर दिक्क़त यह है कि आंध्र का कोई लड़का एन.एस.डी. में नाटक सीखने आता है तो अपनी भाषा से कट जाता है। जबरदस्ती हिंदी सीखनी पड़ती है। तो उसका सारा ध्यान नाटक से हट कर हिंदी पर आ जाता है। होना यह चाहिए कि देश के हर विश्वविद्यालय में नाटक पढ़ाने की व्यवस्था वहां की भाषा में ही होनी चाहिए। देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय हैं पर अभी सिर्फ़ चालीस विश्वविद्यालयों में ही नाटक पढ़ाया जाता है। थिएटर में विश्वविद्यालयों का योगदान बहुत कम है। हालांकि थिएटर के लिए दो विश्वविद्यालय इन दिनों बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। एक त्रिचूर में और एक चंडीगढ़ में। एन.एस.डी. ने भी ब्रांचेज़ खोलने की कोशिश की। बेंगलूर में खोला। पर सरकार नाटक को महत्व नहीं देती। स्थिति यह है कि हमारे केंद्रीय बजट में संस्कृति पर सरकार सिर्फ़ 0.03 प्रतिशत ही खर्च करती है। तब जब कि दूसरे देशों में ठीक इसका उलटा है। लंदन में भाषा एक है। पर थिएटर सिखाने के लिए 16 संस्थाएं हैं।

कोई भाषा, कोई एक्टिंग, कोई संगीत ऐसे ही और कई चीज़ें वहां सिखाई जाती हैं। पर आप के लखनऊ में? भारतेंदु नाट्य अकादमी होते हुए भी हिंदी पर कितना काम हो रहा है। मैं नहीं समझता। बात एन.एस.डी के पुराने हो जाने की चली तो कारंत बोले, हम नहीं कह सकते कि एन.एस.डी. बुढ़ऊ हो गई संस्था है। नए-नए लोग आ रहे हैं। आज कल वर्कशाप ओरिएंटेड नाटक भी बहुत हो रहे हैं। अब वेस्टर्न में भी ऐसी ही रेपेट्री चलने लगी हैं। यह एक नया ट्रेंड है। एन.एस.डी. दिल्ली, भोपाल, रंगमंडल और बेंगलूर रंगमंडल अच्छा काम कर रहे हैं। आज भले गली-गली में नाटक न खेला जा रहा हो। पर चर्चा हो रही है।

थिएटर और मीडिया से कम्पेयर की जब बात चली तो कारंत का कहना था कि टी.वी. से ख़तरा है। थिएटर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। कोई भी समझदार आदमी थिएटर पर ध्यान नहीं दे रहा है। सेमिनार हो रहा है पर गर्मागर्मी नहीं। ठंडा हो गया है माहौल। टी.वी. का जाल इतना घना है कि असर पड़ गया है। इसी लिए नाटक कम हो गए। बड़े शहरों में नाटक नहीं हो रहा है। पर गांवों में हो रहा है। रंगमंच संबंधी लाइब्रेरी नहीं के बराबर हैं। एक एन.एस.डी. के पास है, दूसरा मेरे पास है। मेरे पास पांच हज़ार किताबें हैं थिएटर से संबंधित। तो यह मेरा व्यक्तिगत पागलपन है। पर कितने लोग नाटक पढ़ते हैं? मैं पटना गया था। तो कहा कि आप लाइब्रेरी खोलें तो पचास किताबें मैं दूंगा। पर किसी ने खोला नहीं। मैं सोचता हूं कि हर संस्था के पास अपनी होम मैगज़ीन होनी चाहिए। नाटकों पर चर्चा होनी चाहिए। पर ऐसा कुछ नहीं है। यह पूछने पर कि इस दिक्क़त को कौन दूर करेगा? तो कारंत बोले, शायद समाज ही। वह कहने लगे इतना सब होने के बाद भी रूस में आज भी नाटक ज़रूर पढ़ाया जाता है। संगोठियां ज़रूर होनी चाहिए। भले ही झगड़ा क्यों न हो। पर आज तक लोग जैसे गूंगे हो गए हैं। अब जरा ठंड बढ़ गई है बहस में।

बात फिर नाटकों की ओर वापस आई है। कारंत कहते हैं कि जब जयशंकर प्रसाद कहते थे कि रंगमंच के लिए नाटक नहीं, नाटक के लिए रंगमंच है। तो लोग यह बात मानते नहीं थे। लेकिन प्रसाद के स्कंदगुप्त के दर्जनों शो मैंने किए। दरअसल दुनिया में कहीं भी साहित्यिक और मंचीय नाटक का विभेद नहीं है। पर हिंदी में चला। खूब चला। यह ठीक नहीं है। नाटक, नाटक है।

वह कहते हैं कि मैं थिएटर के लिए हमेशा आशावादी रहूंगा। मैं भले ही रंगमंच से निवृत हो जाऊं, पर रंगमंच निवृत नहीं होगा। बात निर्देशक के निरंकुश होने की चली तो कारंत बोले मैं निर्देशक को दोषी नहीं पाता। यह कहने पर कि आप को नहीं लगता कि निर्देशक की मनमानी और उसके बूटों तले लेखक कितना कुचला गया, ख़ास कर हिंदी लेखक तो नतीजतन अच्छे नाटकों की निरंतर कमी होती गई। और अब अकाल पड़ गया है? कारंत बोले आप के प्रश्नों के पीछे बहुत पूर्वाग्रह है, इनका जवाब नहीं दे सकता। पर यह ज़रूर है कि निर्देशक को मैं दोषी नहीं पाता। अब किसी एक ख़ास समूह के लिए आप बात कह रहे हों तो बात और है। यह ज़रूर है कि आज रंगमंच में थोड़ी सी मंदी आ गई है। तो भी किसी न किसी रूप में नाटक करने की जो चेतना है। वह जागृत है। अभी आप पांडवानी और तीजनबाई की बात कर रहे थे तो क्या पांडवानी नाटक से बाहर है?

अल्काज़ी और शंभू मित्रा के बाद आप की पीढ़ी ने थिएटर की वह परंपरा नहीं खड़ी की? पूछने पर कारंत ने प्रति प्रश्न किया, आप ने यह नहीं पूछा कि हिंदी प्रदेशों से जो लोग एन.एस.डी. से ट्रेनिंग ले कर निकले वह लोग कहां गए? और फिर ड्रामा स्कूल अल्काज़ी से बहुत आगे जा चुका है। अल्काज़ी ने 16-17 वर्ष काम किया। पर अब वापस भी आ जाएं तो वह कुछ नहीं कर सकते। तो आप का यह सवाल मुझे ठीक नहीं लगता। और जो आप बार-बार अल्काज़ी-अल्काज़ी की रट लगाए हुए हैं। तो इधर एन.एस.डी. के लिए उन्होंने तीन नाटक किए। पर कन्नड़ नाटक अल्काज़ी अच्छा नहीं कर पाए, अल्काज़ी पकड़ नहीं पाए। मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ का एक संवाद है कि समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता। तो समय अल्काज़ी के हाथ से निकल गया है। बात एन.एस.डी. में कारंत के कार्यकाल में आत्महत्याओं की चली, तो वह बोले, इससे रंगमंच का क्या? यह कहने पर कि यह सवाल आज भी वहां गूंजता है। कारंत का कहना था, वहां भी आदमी रहते हैं, मठ थोड़े ही है। आज तक किसी ने नहीं कहा कि एन.एस.डी. की ज़रूरत नहीं है।

आप को एक समय में थिएटर में लोक संगीत के प्रयोग के नाते हम लोग जानते थे। पर अब थिएटर से लोक संगीत का प्रयोग लगभग बिसरता जा रहा है। आप को क्या लगता है? कारंत बोले ख़त्म होना स्वाभाविक है। क्यों कि पहले वेस्टर्न से प्रभावित था हमारा थिएटर, तो वह बदलाव ज़रूरी था। अपनी पहचान के लिए थिएटर ने लोक नाटकों से प्रेरणा ली। और इसमें कुछ ग़लत भी नहीं था। इस मामले में हमारे गुरू हैं हबीब तनवीर। उन्होंने बहुत पहले आगरा बाज़ार जैसे नाटक किए। लोक संगीत पर आधारित। पर अब यह बात ख़त्म हो रही है तो अच्छी बात है। क्यों कि अब और भी आगे की चीज़ें आने लगी हैं। और अब स्थिति अच्छी है। एक निर्देशिका अपने अभिनेता के बारे में विश्लेषण करती है। पर सोचिए एक समय वह भी था कि हिंदी के अवार्ड के लिए कोई अभिनेता नहीं मिलता था। बात फिर मुड़ी है और कारंत कह रहे हैं कि अब हिंदी रंगमंच पर बात भी हो रही है और जो कोई कहता है कि मैं संघर्ष कर रहा हूं तो यह सहज गुण है उसका। फ़िल्म में तो जो कोई संघर्ष कर रहा है वह अपने अकेले के लिए कर रहा है। पर रंगमंच में एक कोई अकेला संघर्ष नहीं करता।

थिएटर को आखिर संभव फिर से कैसे बनाया जाए? सवाल पर कारंत का कहना था कि अभी मुंबई में गांधी वर्सेज गांधी नाटक चल रहा है। पॉपुलर है। लेकिन हमारी राय में नाटक पॉपुलर होना बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात है गर्मी पैदा करना। मैंने कर्नाटक में देखा अगर नाटक में सफल होना है तो पहले दर्शक चाहिए। तो दर्शकों को ध्यान में रख कर मैंने अभिनेता तैयार किए। पर दस साल बाद प्रसन्ना ने कहा कि दर्शकों के लिए नाटक देना चाहिए। यह आइडियालॉजी रखा। पर आज भी आइडियालॉजी को उतना महत्व मैं नहीं देता जितनी कि रंगमंच की गतिविधियों को। अब आप ही बताइए कि उत्तर प्रदेश में कई चीज़ें अस्थिर हैं। राजनीति में भी साहित्य में भी और कला में भी अस्थिरता होगी? आप बता सकते हैं कि उत्तर प्रदेश में किस क्षेत्र में अच्छा काम हो रहा है? तो सिर्फ़ एक थिएटर से ही एक अच्छी उम्मीद आप क्यों लगा बैठते हैं? मैं दिल्ली से निकल कर अपने गांव नहीं गया। एन.एस.डी. से बाहर मुझे सबसे पहला मौक़ा लखनऊ में ही मिला। हयवदन किया 1972 कि 73 में। सारे लखनऊ के लोगों को ले कर। मैं मानता हूं कि टी.वी. का भी यह शुरू-शुरू का असर है। जैसे हिंदी फ़िल्मों ने पारसी थिएटर को ख़त्म किया। राधेश्याम कथा वाचक का ज़ोर था तब। आगा हश्र कश्मीरी के नाटक चलते थे। पर हिंदी सिनेमा उनको खा गया। पारसी नाटक ख़त्म सा हो गया। पर नाटक नहीं। क्यों? क्यों कि पारसी थिएटर जो दिखाता था वही चीज़ फ़िल्म ज़्यादा अच्छी तरह से दिखाने लगी। तो पारसी थिएटर लोग क्यों देखते? ऐसे में हमने जयशंकर प्रसाद के नाटक करने शुरू किए। और आज भी हम पाते हैं कि प्रसाद के नाटक काफी महत्वपूर्ण हैं। खैर नाटकों में प्रगति तो हुई। पर तामझाम भी चला। पर तामझाम ज़्यादा दिन नहीं चलेगा। यह बहुत पहले मोहन राकेश ने कहा था। दरअसल थिएटर में ह्यूमन वैल्यू ज़्यादा इम्पार्टेंट है। कोई न्यूज़ कहानी कैसे बनती है? एक राजा था, मर गया, यह न्यूज़ है। पर एक राजा मर गया, फिर उसके दुःख से रानी भी मर गई तो यह कहानी बन गई। पर अब हर कोई चाहता है कि नाटक को सशक्त बनाया जाए। तो नाटक का आलेख ही नहीं, मंच सज्जा, वेशभूषा, विज्ञापन, ब्रोसर में भी बहुत परिवर्तन करना पड़ेगा। अभी जो मंदी आ गई है थिएटर में उससे घबड़ाने की ज़रूरत नहीं है, वह स्वाभाविक है। पारसी थिएटर को जब फ़िल्मों ने खाया था, तो अंधकार सा छा गया था। साहित्यिक और मंचीय नाटक के विभेद ने भी मुश्किल में डाला था। मेरा कहना है कि अगर नाटक है तो साहित्यिक गुण होना चाहिए और साहित्यिक है तो नाटकीय गुण भी होना चाहिए।

कारंत कहते हैं कि एक समय खुद भी मैं भारतीय रंगमंच और हिंदी नाटक पर थीसिस लिखने वाला था। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मेरे गाइड थे डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा। पर मैंने थीसिस जमा नहीं की। पर तब मैंने भी कहा था कि प्रसाद का नाटक मंचीय नहीं है। पर एन.एस.डी. में जाने के बाद मुझे यह अपनी ही बात ग़लत लगी। और मैंने वहां प्रसाद के पांच-छह नाटक किए। तो प्रसाद के नाटकों को मंचीय न कहना मेरी ग़लती नहीं थी। दरअसल यह एक भ्रम था। और उसका कारण यह था कि प्रसाद के नाटक करने के लिए श्रम चाहिए, आसक्ति चाहिए। और यही लोगों में नहीं होता। इसी से लोग बचते हैं। तो कह देते हैं कि प्रसाद के नाटक मंचीय नहीं हैं। मैं अपनी बात कहूं तो इस समय मैं प्रसाद और भारतेंदु से बहुत प्रभावित हूं। प्रसाद और भारतेंदु मेरे लिए मूल धन हैं। और सबसे ज़्यादा इन्हीं के नाटक मैंने किए भी। क्यों कि इनका नाटक बड़ी डिमांड करता था, ट्रेनिंग की।

आप जो कहते हैं कि रंगमंच सुधारने की बात तो अगर मैं कहूं कि सब जगह रंगमंच सुधार दूंगा तो यह बहुत बड़ा अहंकार होगा ना ! दरअसल हिंदी रंगमंच को सुधारने के लिए दर्शक चाहिए। और दर्शक बनाने के लिए मैं सबसे पहले योग्य नाटक खोजूंगा। अभिनेता नहीं खोजूंगा। जो हैं उन्हीं से काम कराऊंगा। जैसे सबसे पहले मैंने लखनऊ में हयवदन किया तो पद्मिनी की भूमिका के लिए मैंने शोभना को चुना था। आज वह दूरदर्शन दिल्ली में समाचार वाचिका है। पर तब वह पढ़ रही थी बी. ए. में। अनिल रस्तोगी को लिया, कपिल बनाया था। विजय वास्तव को देवदत्त बनाया था। यह सभी नए थे। हल्लो भइया को लिया। नाटक में हल्लो-हल्लो आता है। तभी से उसका नाम हल्लो भइया पड़ गया। हयवदन नाटक कठिन था, शरीर किसी का, मस्तक किसी का इस बात को नए कलाकारों के मार्फ़त कहना आसान नहीं था। लेकिन मैंने किया। नए लोगों को ले कर किया। क्या आज भी अगर लखनऊ का रंगमंच सुधारने के लिए आप को बुलाया जाए तो क्या आप आना चाहेंगे? कारंत बोले, सरकार के कहने से नहीं। रंगमंच वाले बुलाएं तो आ जाऊंगा।

कारंत अपने रंगकर्म यात्रा के बाबत बताते हैं कि मैं हिंदी प्रचारक था। और ठीक से हिंदी सीखने के लिए बनारस आया था। संगीत भी वहीं सीखा। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी में अपना नाम लिखाया। तब आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी वहां मेरे अध्यापक थे। नामवर भी थे। और जब नाटक पर थीसिस लिखने की बात आई तो मुझे लगा कि नाटक को भी समझ लेना चाहिए। तो नाटक को समझने के लिए मैं नेशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामा दिल्ली गया। मैं तब 32 वर्ष का था। और प्रोफेसर बनना चाहता था। और भारतीय रंगमंच पर अपने शोध को पुख्ता बनाने के लिए नाटक की ट्रेनिंग लेनी शुरू कर दी। पर देखिए विधि ने कहां से कहां पहुंचा दिया। तीन साल एन.एस.डी. में पढ़ाई करने के बाद भी कर्नाटक वापस नहीं गया। दिल्ली में ही रहा। एक स्कूल में काम करने लगा। वहां भी नाटक ही सिखाता था। फिर तब का दिन है और आज का दिन कि मैंने फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। और नाटक ने मुझे छोड़ा नहीं। आज मैं जब भी सोचता हूं थिएटर ही सोचता हूं, कुछ और नहीं। मैं संगीत भी जानता हूं। बाक़ायदा। पर कभी संगीत की बैठक करूं। यह कभी मन में नहीं आया। हालांकि थिएटर करता हूं तो कई बार मुझे लगता है कि मैं रिपीट कर रहा हूं। पर संगीत में मैं अपने को रिपीट करता नहीं पाता। बावजूद इसके मैं संगीत छोड़ सकता हूं। लेकिन थिएटर नहीं। अब यह बात भी ज़रूर है कि थिएटर बिना संगीत के नहीं होता ना ! जब कि संगीत बिना थिएटर के भी हो सकता है। तो मैं थिएटर ही हरदम करते रहना चाहता हूं। क्यों कि इसमें संगीत भी है और थिएटर भी। शायद इसी लिए इन दिनों मैं लाइट एंड साउंड प्रोग्राम भी करने लगा हूं। जिसमें थिएटर और संगीत दोनों की ही अनिवार्यता होती है।

(बातचीत राष्ट्रीय सहारा से साभार. 1998 में लिया गया इन्टरव्यू)

Wednesday, July 4, 2012

एक थाली में खाते हैं राम और अली


रमेश शुक्ला 'सफर', अमृतसर दिन : सोमवार समय : दोपहर के दो बजे स्थान : अमृतसर का विरसा विहार
दोपहर के खाने के लिए जैसे ही अंतरराष्ट्रीय थियेटर वर्कशाप में आधे घंटे का अवकाश होता है, वर्कशाप में हिस्सा लेने वाले आर्टिस्ट एक साथ खाना लेने के लिए लाइन में खड़े हो जाते हैं। लाइन में कोई हिंदू है, कोई सिख है तो कोई मुसलमान या फिर ईसाई। कोई जाति-पाति का भेद नहीं, सभी एक साथ लाइन में खाना लेते हैं और एक साथ खाने के लिए बैठ जाते हैं। खाने का स्वाद तब और बढ़ जाता है जब किसी थाली में एक साथ भारत काराम तो पाकिस्तान के अली निवाला तोड़ते हैं। कहीं बिहार के सचिन और पंजाब के हैरी संधू तो कहीं स्वलेंजी और सुखजीत सिंह एक ही थाली में पेट पूजा में जुटे हैं। 'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' किसी शायर की लिखी यह चंद लाइनें इन्हीं के लिए शायद लिखी गई होंगी। दैनिक जागरण से बातचीत में पाकिस्तान के मोहम्मद कैसर अली कहते हैं कि वह पिछले करीब एक महीने से वर्कशाप में हैं। ऐसा लगता ही नहीं है कि वह अपने देश में नही है। यहां सभी लोगों से लगाव हो गया है। सुनील, गुरजीत सिंह, रामकुमार, जतिंदरपाल, अशोक, अभिषेक, दिनेश आदि कई लोग हैं जिनके साथ इतने कम समय में घुलमिल गया। पता ही नहीं चलता कि अमृतसर में हूं या लाहौर में। रंगमंच से सीखा है कि मजहब से बड़ी इंसानियत है। आज अगर अलग-अलग मजहब के होते हुए भी एक थाली में खाना खा रहे हैं तो यह इंसानियत की जीत है। खुशी है कि रंगमंच हमेशा दो दिलों को जोड़ने की बात करता है। मजहब की बड़ी-बड़ी बाते करने से पहले एक अच्छा इंसान बनना होगा। कैसर कहता है कि सीमाओं की कंटीली तारें अवाम का दर्द नहीं समझती। बेजान तारें दोनों देशों को अलग करती हैं। दोनों देशों के युवा नफरत से ऊब चुके हैं, वे प्यार और सुकून चाहते हैं। गोलियां कहीं भी चले, राकेट, मिसाइल किसी भी देश में गिरे नुक्सान तो अवाम को ही उठाना पड़ेगा। वर्कशाप में हिस्सा लेने सचिन, गुरजीत सिंह, बलजिंदर, अमनदीप, गुरप्रीत कहते हैं कि रंगमंच ऐसा मंच है जहां भेदभाव, ऊंच-नीच नहीं होता। कलाकार की न कोई जाति होती है और न ही वह किसी एक संप्रदाय से बंधा ही रह सकता है। वर्कशाप पांच जुलाई को खत्म होगी। (दैनिक जागरण से साभार)

Saturday, June 30, 2012

पेइचिंग ओपेरा के विकास की विरासत व सृजन


पेइचिंग ओपेरा का 200 साल पुराना इतिहास है। उसे पूर्व का ओपेरा नाम से भी जाना जाता है। उसका उद्गम शायद कुछ प्राचीन स्थानीय ओपेरा से हुआ है। वर्ष 1790 में हुए पान नाम का एक स्थानीय ओपेरा पेइचिंग में प्रचलित होने लगा, क्योंकि पेइचिंग में विभिन्न प्रकार के स्थानीय ओपेरा काफी लोकप्रिय थे, जिस से इसे तीव्र प्रगति करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। 2 सौ साल से पेइचिंग ओपेरा का तेज विकास हो रहा है। पिछली शताब्दी इस के विकास का सबसे अच्छा दौर रहा है, और यह चीन की सार कला बन गया है। आजकल तेज विकास के दौर में अन्य परंपरागत कलाओं की तरह पेइचिंग ओपेरा के विकास के सामने चुनौतियां मौजूद हैं। इसलिए इस कला के विकास में और ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हाल ही में आयोजित हुए वर्ष 2011 चीनी नाटक कला की विरासत व विकास के मंच पर चीनी जन राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन के उपाध्यक्ष, चीनी साहित्यिक और कलात्मक एसोसिएशन के अध्यक्ष सुन च्या चेंग ने चीन के परंपरागत ओपेरा के विकास के सामने मौजूद कठिनाइयों की चर्चा करते हुए कहा कि वर्तमान में चीन के नाटक के विकास के सामने एक बड़ी चुनाती मौजूद है। सुधार व खुलेपन की नीति लागू होने के बाद आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण, अधिक सूचना समेत रंगबिरंगी बाहरी संस्कृति के चीन में प्रवेश होने की वजह से परंपरागत संस्कृति की बड़ा धक्का पहुंचा है। हमें परंपरागत नाटक कला की विरासत व विकास को आगे बढाने की जिम्मेदारी उठानी चाहिए, जिससे चीन की राष्ट्रीय संस्कृति व जातीय भावना का प्रचार-प्रसार किया जा सके।
पेइचिंग ओपेरा चीनी राष्ट्र का सांस्कृतिक खजाना है। चीन के गीत-संगीत, साहित्य, इतिहास व परंपरागत सौंदर्यशास्त्र का पेइचिंग ओपेरा पर प्रभाव पड़ास है। वर्तमान में लोकप्रिय संस्कृति की व्यापकता की स्थिति में हम कैसे पेइचिंग ओपेरा का विरासत व विकास करेंगे और इस परंपरागत कला का शानदार पुन: उत्पन्न करेंगे?यह सवाल मुख्य है। चीन के मशहूर ओपेरा कलाकार व पेइचिंग ओपेरा कलाकार मेई लान फांग ने पहले यह कहा था कि सुधार महत्वपूर्ण है, क्योंकि सुधार से प्रगति होगी। अन्य कलाओं के मुकाबले 2 सौ साल पुराना पेइचिंग ओपेरा का इतिहास इतना लम्बा नहीं है, लेकिन पेइचिंग ओपेरा सांस्कृतिक अवशेष नहीं है और इसे संग्रहालय में रखने की ज़रूरत नहीं है। कलाकारों द्वारा कार्यक्रम पेश करवा करके इस का प्रचार-प्रसार किया जाना चाहिए। अगर पेइचिंग ओपेरा के विकास में युवा शक्ति शामिल नहीं हुई, तो यह प्राचीन कला आज के लिए सार्थक नहीं हो सकती है। चीन के नाटक कॉलेज के पेइचिंग ओपेरा विभाग के अध्यक्ष च्यांग याओ ने कहा कि कुछ युवा लोगों को परंपरागत ओपेरा की जानकारी देने के लिए कुछ माध्यम उपलब्ध हैं। देश की सरकार व कुछ विभागों को युवा लोगों व छात्रों को इस जानकारी देने के लिए मंच प्रदान करने की जरूरत है। इस के लिए विभिन्न जगतों के कर्मचारी व कुछ कारगर माध्यम चाहिए। पेइचिंग ओपेरा की कक्षा का लक्ष्य प्रशंसकों की संख्या बढाने की बजाए उन्हें पेइचिंग ओपेरा व अन्य स्थानीय ओपेरा की ज्यादा जानकारी देना है। हमारे चीनी नाटक कॉलेज ने कई बार दफ्तर में काम करने वाले कर्मचारियों व विश्वविद्यालय के छात्रों के साथ संपर्क किया। हमने पेइचिंग ओपेरा विश्वविद्यालय में प्रवेश नामक सिलसिलेवार कार्यवाहियां की थीं। हमने पेइचिंग ओपेरा की जानकारी दी, कलाकारों का कार्यक्रम दिखाने की स्थिति का परिचय दिया। छात्रों को यह कार्यवाही बहुत पसंद आई । उन्होंने कहा कि अगर इस प्रकार की कार्यवाही नहीं हुई, तो वे थिएटर में प्रस्तुति नहीं देखेंगे। लेकिन पेइचिंग ओपेरा की जानकारी पाने के बाद उन्होंने कहा कि अगर मौका मिला, तो जरूर कम से कम एक बार वे थिएटर में इस की प्रस्तुति देखेंगे। च्यांग याओ ने कहा कि युवा लोगों को परंपरागत संस्कृति पसन्द है, लेकिन हमें उचित तरीके से और ज्यादा जानकारी देने की जरूरत है, ताकि और ज्यादा युवा लोग चीन के परंपरागत ओपेरा पर ध्यान दे सकें। आजकल पेइचिंग ओपेरा व अन्य स्थानीय ओपेरा की प्रस्तुतियों में फैशनेबल तत्व शामिल किए जा रहे हैं। पटकथा, संगीत, गायन, कपड़े, मंच डिजाइन आदि पहलुओं में भी कुछ सुधार किया गया है। कुछ प्रस्तुतियों में पश्चिमी ओपेरा की रचनात्मक तकनीक शामिल की गई है और कुछ अन्य में गायन व संगीत में बड़ा बदलाव देखने में आया है। कुछ चीनी परंपरागत ओपेरा की प्रस्तुतियां विश्व के विभिन्न देशों में दिखाई गई हैं, विदेशी दर्शकों को यह बहुत पसंद आई हैं। फैशनेबल तत्व परंपरागत ओपेरा में शामिल किए जाने के बाद युवा दर्शकों की संख्या बढ रही है। ज्यादा युवा लोग सिनेमा में फिल्म देखने की तरह थिएटर में ओपेरा देखने आना पसंद करने लगे हैं। लेकिन परंपरागत ओपेरा में सुधार करने के दौरान परंपरागत तत्वों को बनाए रखने की आवश्यकता है। अनेक मशहूर कलाकार व विशेषज्ञ इस पर सहमत हैं। पेइचिंग ओपेरा में आधुनिक तत्व शामिल किए जाने के सवाल पर चीन के मशहूर पेइचिंग ओपेरा कलाकार ये शाओ लान ने कहा कि पेइचिंग ओपेरा में अन्य कुछ कला तत्व शामिल हो सकते हैं, लेकिन ये तत्व पेइचिंग ओपेरा के बारे में होने चाहिए और पेइचिंग ओपेरा को तरीके से पेश किया जाना चाहिए। क्योंकि पेइचिंग ओपेरा रचने के कुछ विशेष नियम हैं, अगर इन नियमों को बदला जाता है, तो यह पेइचिंग ओपेरा नहीं रहेगा। इसलिए अन्य कलाओं की विशेषताओं को शामिल करने के दौरान पेइचिंग ओपेरा के नियमों का पालन किया जाना चाहिए । अगर पेइचिंग ओपेरा में आधुनिक तत्व नहीं होंगे, तो युवा लोग इस पर ध्यान नहीं देंगे। अगर परंपरा की रक्षा नहीं की जाएगी, तो विकास के दौरान पेइचिंग ओपेरा की विशेषता व मनमोहक शक्ति दिन प्रति दिन कम होगी। इसलिए पेइचिंग ओपेरा की विरासत व विकास के दौरान कठिनाईयां मौजूद हैं। लेकिन केवल निरंतर सुधार करने के बाद ही इस प्राचीन ओपेरा का सृजन व विकास हो संभव है। पेइचिंग ओपेरा के विकास के सामने मौजूद सवाल अधिकांश परंपरागत कला के विकास के सामने भी हैं। इसलिए परंपरा को आगे बढ़ाने के साथ-साथ समय के विकास की जरूरतों का पूरा होना भी महत्वपूर्ण है, इस तरह पेइचिंग ओपेरा की जीवन शक्ति व मनमोहक शक्ति बनी रह सकेगी। (http://hindi.cri.cn/681/2012/06/28/1s126824.htm से साभार)

Tuesday, June 12, 2012

हर शनिवार, 19 साल से चल रहा है नाटक


शहर गोरखपुर के रेलवे स्टेशन से बमुश्किल डेढ़ किमी दूर, गर्मियों की सुबह में किशोरवय के कुछ शौकिया रंगकर्मी बरगद के दो विशाल वृक्षों को जोड़कर बनाए गए मिट्टी के अस्थायी मंच पर झाड़ू लगा रहे हैं. पेड़ों के तनों से बांधकर परदा लगाया जा रहा है और मंच से नीचे खिचड़ी दाढ़ी और बालों वाला एक शख्स छोटी-सी मेज पर एक महिला की तस्वीर सजाते हुए अचानक अपनी नम आंखें साफ करने लगता है. पीछे से कोई लड़का पूछता है, ''दादा! ये तो रिकॉर्ड होगा. इतना लंबा टाइम तक कोई और नाटक थोड़े किया होगा?'' दादा घूमकर उसे देखते हैं, ''डायलॉग याद करो. ऐ चक्कर में मत पड़ो कि रिकॉर्ड बना है.'' दादा यानी 55 बरस के के.सी. सेन के लिए यह रिकॉर्ड भले ही रोमांच भर देने वाली बात न हो, लेकिन जरा सोचिए कि अगर कुछ रंगकर्मी पिछले 19 सालों से हर शनिवार सुबह बिना क्रमभंग के नाटक कर रहे हों तो क्या यह बड़ी बात नहीं है? कड़ाके की धूप, ठंड या बारिश कुछ भी हो, ये सिलसिला पिछले 1,000 हफ्तों से अनवरत जारी हो और वह भी इसलिए कि इस शहर को एक ऑडिटोरियम मिल जाए, जहां नाटक करने वाले अपनी प्रस्तुतियां कर सकें. क्या यह सचमुच 'कुछ खास' नहीं है? हालांकि सेन से पूछिए तो वे अनसुना कर देंगे. उनके लिए ये सिलसिला अब एक लड़ाई में बदल चुका है. इसे जारी रखने के लिए रेलकर्मी सेन ने प्रमोशन से इनकार कर दिया क्योंकि तब उन्हें शहर से बाहर जाना पड़ता. 19 साल पहले जब विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर उन्होंने इस आंदोलन का संकल्प लिया, तब उनकी पत्नी माला अपने दो नन्हे बच्चों के साथ हौसला अफजाई के लिए हर शनिवार यहां आती थीं. अब बड़ा बेटा कल्याण सेन नाटकों में अभिनय और निर्देशन कर देशभर के नाट्य महोत्सवों में पुरस्कार जीत रहा है मगर कैंसर से लड़ते हुए माला गत वर्ष चल बसीं. 1986 में प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री (अब दिवंगत) वीरबहादुर सिंह ने गोरखपुर में 5.4 करोड़ रु. की लागत से एक अत्याधुनिक प्रेक्षागृह व आर्ट गैलरी के निर्माण की घोषणा की थी. काम शुरू भी हुआ, लेकिन उनकी अचानक मृत्यु के बाद वह ठप हो गया. अधूरे प्रेक्षागृह में जंगल उगने लगा. सेन और उनके साथियों ने 1993 में विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर रंगाश्रम के जरिए प्रेक्षागृह के निर्माण होने तक हर शनिवार एक नाट्य प्रस्तुति करने का अनोखा संकल्प लिया था और शनिवार 19 मई को मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'सवा सेर गेहूं' की प्रस्तुति इस रंगयात्रा की 1,000वीं कड़ी थी. इसमें बतौर मुख्य अतिथि मौजूद सांसद योगी आदित्यनाथ कहते हैं, ''मैंने ऐसे आंदोलन बहुत कम देखे हैं, जिसमें कुछ लोग शहर की जरूरतों के लिए खुद तपस्या कर रहे हों.'' योगी अब जमीन के स्वामियों और शासन से संवाद की नई कोशिश कर रहे हैं ताकि कानूनी गतिरोध दूर हो सके. मगर गोरखपुर विवि के ललित कला विभाग के एसोसिएट प्रो. डॉ. भारत भूषण सवाल करते हैं, ''क्या सारी जिम्मेदारी रंगाश्रम की ही है? उस शहर की जिम्मेदारी कुछ नहीं, जिसके लिए वे यह तपस्या कर रहे हैं?'' सेन और उनके सहयोगी विजय सिंह, पानमती शर्मा और सतीश वर्मा अगली प्रस्तुति की पटकथा पर बहस कर रहे हैं. कल्याण को पीलिया है, मगर 1,000वीं प्रस्तुति के लिए वह भी आया. विजय कहते हैं, ''दादा तो कबीर की तरह घर फूंककर अलख जगा रहे हैं.'' पर सवाल फिर भी वही है कि जिन लोगों के लिए अलख जगाई जा रही है, वे कहां हैं? (आज तक डॉट कॉम से साभार)

Sunday, June 3, 2012

नन्हें हाथों में दुनिया थमाने से पहले


अशोकनगर में इप्टा का आठवां बाल एवं किशोर रंग शिविर अशोकनगर: पिछले कुछ दिनों में देश भर में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की विभिन्न इकाइयों ने 25 से अधिक बाल रंग शिविर का आयोजन किया। 20 दिन से लेकर एक महीने तक के इन शिविरों में ऐसा बहुत कुछ है कि इन्हें अपने आप में अनूठा, प्रयोगधर्मी, जरूरी और कला भविष्य के प्रति आश्वस्ति के रूप में देखा जा सकता है। कला और खासकर बच्चों के कलाकर्म को देखने का इधर जो नजरिया विकसित हुआ है, उसमें कुछ रियायतें और भावुकता भी शामिल होती है। इसलिए वे सच्चाइयां सामने नहीं आ पातीं, जो रंगशिविरों की अच्छाइयों और बुराइयों को नुमायां कर सकें। ज्यादातर मौकों पर बच्चों के थियेटर को आलोचना के बजाय आशीर्वाद की दृष्टि से देखा जा सकता है, क्या यह आने वाले दिनों के लिए खतरनाक हो सकता है? बहरहाल, अशोकनगर (मध्यप्रदेश) के आठवें बाल एवं रंग शिविर में 12 दिन गुजारने के साथ वे कारण साफ होते हैं, जो आने वाले दिनों के कस्बाई कला कर्म की रूपरेखा तय करने वाले हैं। कस्बों से कलाकारों का पलायन, संसाधनों की कमी, प्रतिबद्धता की छीजन और सार्वजनिक कला के द्वंद्व से जूझते हुए इप्टा की अशोकनगर ईकाई ने पहला रंग शिविर 1998 में लगाया था। बीच में कुछ व्यवधान के बाद बीते तीन साल से यह फिर लगातार जारी है। एक मई 2012 को महानतम अभिनेता बलराज साहनी का शताब्दी वर्ष शुरू हुआ यह रंग शिविर उन्हीं के कला कर्म को समर्पित था। 25 दिनों के इस शिविर के उद्घाटन और समापन समारोह में बाल कलाकारों ने कुल तीन नाटकों, 2 नृत्य और पांच जनगीतों की प्रस्तुति दी। साथ ही अपने 25 दिन के रचनात्मक कार्यों, डायरी और शहर की समस्याओं पर रिपोर्टिंग पर आधारित 24 प्रष्ठीय अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ प्रकाशित किया। इससे पहले उद्घाटन अवसर पर भी बच्चों ने नाटक ‘‘आदमखोर’’ का मंचन किया। कार्यशाला में व्यायाम, संगीत, क्राफ्ट, पत्रकारिता, नृत्य, रंगमंच, चित्रकला की सैद्धांतिक और प्रायोगिक जानकारी विषय विशेषज्ञों ने दी। यह जानकारियां उन बच्चों को दी गई हैं, जो आने वाले समय के कला जगत को अपने अपने ढंग से आलोकित करेंगे। बीज रूप में दिए गए कला-विचारों के वृक्ष कैसे होंगे, इसका अनुमान प्रस्तुतियों से लगाया जा सकता है।
उद्घाटन के अवसर पर श्री विजयदान देथा की कहानी ‘‘आदमखोर’’ के श्री रोहित झा द्वारा किए गए नाट्य रूपांतरण को युवा रंगकर्मी सत्यभामा ने मंच पर उतारा। खुद सत्यभामा के अलावा अविनाश तिवारी, विनय खान, ऋषभ श्रीवास्तव, सारांश पुरी और कबीर राजोरिया ने मंच पर अभिनय किया। इस पहली प्रस्तुति के साथ ही यह तय हो गया था कि नाट्य शिविर अपनी पिछली परंपराओं से अलग साबित होगा। यह पहली बार था जब अशोकनगर इप्टा की ईकाई ने शिविर के उद्घाटन पर नाटक की प्रस्तुति की। खासबात यह रही कि मंचन की पूरी जिम्मेदारी पिछले शिविर में शरीक रहे बच्चों ने ही निभाई। संगीत की जिम्मेदारी सिद्धार्थ शर्मा ने निभाई और नेपथ्य के अन्य कार्य शिविरार्थी निवेदिता और संघमित्रा ने किए। प्रकाश संयोजन का कार्य इप्टा के वरिष्ठ सदस्य रतनलाल पटेल और श्याम वशिष्ठ ने किया। दूसरे दिन बच्चों को व्यायाम, संगीत और नाटक के बारे में शुरुआती जानकारी दी गई। तीसरे दिन बच्चों ने पार्टीशन कहानी का पाठ किया, जिसके बारे में तय किया गया कि इसका मंचन किया जाएगा। नाट्य रूपांतरण की जिम्मेदारी प्रगतिशील लेखक संघ की गुना ईकाई के वरिष्ठ साथी सत्येंद्र रघुवंशी को दी गई। सात मई को महाकवि रबीन्द्रनाथ टैगोर के जन्मदिवस पर शिविर संयोजक रतनलाल पटेल ने उनकी रचनाओं का पाठ किया और बच्चों से श्री टैगोर के साहित्यिक योगदान की चर्चा की। दस मई को जबलपुर से लोकनृत्य विशेषज्ञ इंद्र पांडे का शिविर में आगमन हुआ। उन्होंने बच्चों को लोकनृत्य राई, दादारिया, पंथी और कालबेलिया के बारे में जानकारी थी। आगामी दिनों में बच्चों को उन्होंने इन चार नृत्यों का प्रशिक्षण दिया और समापन के अवसर पर दादरिया और राई का प्रदर्शन किया गया। 16 मई को उज्जैन से आए ख्यातिलब्ध चित्रकार मुकेश बिजौले ने बच्चों को चित्रकला की जानकारी दी। उन्होंने बच्चों को आधुनिक चित्रकला की सैद्धांतिक और प्रायोगिक जानकारी दी। बाद के दिनों में बच्चों ने खुद चित्र बनाए, जिनमें से चुनिंदा चित्रों को बाल रंग संवाद के अंक में प्रकाशित किया गया। 17 मई को मेरठ से आए युवा पत्रकार सचिन श्रीवास्तव ने बच्चों को पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अशोकनगर ईकाई ने 2010 के शिविर में पहली बार 8 पन्ने का अखबार ‘‘बाल रंग संवाद’’ प्रकाशित किया था। 2011 में यह 20 पन्ने में प्रकाशित हुआ और इस बार 24 पन्ने का अखबार प्रकाशित किया गया। बीते दो अंकों के बजाय इस बार बच्चों ने शहर की समस्याओं पर रिपोर्टिंग की। इस बीच बच्चें प्रतिदिन डायरी भी लिख रहे थे, जिसे ‘‘बाल रंग संवाद’’ में शामिल किया गया। 20 मई को बीना से आए गजलकार श्री महेश कटारे ने बच्चों के बीच अपनी बुंदेली गजलों का पाठ किया। जिसके बारे में बच्चों ने अपनी डायरी में प्रतिक्रिया दी। 25 मई को हुए समापन समारोह की शुरुआत गजलकार श्री महेश कटारे, प्रलेस गुना के वरिष्ठ साथी श्री रामलखन भट्ट, वरिष्ठ पत्रकार श्री मनोज जैन और इप्टा के प्रदेश महासचिव श्री हरिओम राजोरिया के सानिध्य में ‘‘बाल रंग संवाद’’ के लोकार्पण से हुई। इसके बाद शिविर संयोजक रतनलाल पटेल और रामदुलारी शर्मा के मार्गदर्शन में तैयार जनगीतों की प्रस्तुति हुई। इसके बाद ईवा भार्गव, अणिमा जैन, रक्षिता जैन, मानसी जैन, सुरभि जैन, चारू जैन, स्नेहा गुप्ता और साक्षी पांडे ने ‘‘दादरिया’’ लोकनृत्य की प्रस्तुति दी। इंद्र पांडे, रतन लाल पटेल और सिद्धार्थ शर्मा ने थाप दी। इसके बाद अशोकनगर इप्टा की वरिष्ठ साथी और वर्तमान शिविर की संयोजक सीमा राजोरिया के निर्देशन में स्वयं प्रकाश की कहानी ‘‘पार्टीशन’’ के सत्येंद्र रघुवंशी द्वारा तैयार नाट्य आलेख का मंचन किया गया। नाटक की कहानी एक प्रगतिशील मुसलिम व्यापारी कुरबान अली के इर्द-गिर्द घूमती है, जो एक झगड़े में जलील होने के बाद इंसान से मुसलमान ठहरा दिया जाता है। कुरबाल अली के रूप में सत्यभामा ने अपने भावुक अभिनय से दर्शकों को बांधे रखा, तो लतीफ मियां के किरदार में कबीर राजोरिया ने अपनी संवाद अदायगी के बूते अलग छाप छोड़ी। ईमान अली के किरदार को बाल कलाकार अमित गुप्ता ने बिल्कुल पड़ोस का बना दिया और अमन खान ने प्रोफेसर के पात्र को जीवंत बनाया। रऊफ के रूप में ऋषभ श्रीवास्तव, शायर-कवि शिवानी शर्मा, भाई जी और दरोगा अनुपम तिवारी, गोटू का पात्र अखिल जैन ने बेहतरीन ढंग से निभाया। अन्य कलाकारों ने भी अपने छोटे-छोटे किरदार को खूबसूरती से अदा किया। खासबात यह रही कि नाटक में कोई भी पात्र हावी नहीं रहा। नाटक अपनी पूरी जटिलताओं के साथ जरूरी संदेश देने में कामयाब रहा। तालियां कम बजीं, लेकिन जहां बजनी चाहिए थीं, वहीं बजीं। यह निर्देशक की भी कामयाबी थी, और कलाकारों की भी। खासकर कुरबान अली के एक लंबे डाॅयलाॅग में, जब वह अपने इंसान होने और मुसलमान होने के बीच की टकराहट को सामने रखता है, दर्शकों में लंबा सन्नाटा था। नाटक में हास्य का पुट नहीं था, और बच्चों के साथ पूरी गंभीरता दिखाते हुए दर्शकों ने कहानी को आत्मसात किया। करीब सवा घंटे के इस नाटक में 12 दृश्य थे, और हरएक में प्रापर्टी को बदलना था, जिसे बच्चों ने खूबसूरती से अंजाम दिया। मुकेश बिजौले, आकांक्षा, अर्चना प्रसाद और संजय माथुर के मेकअप ने नाटक की खूबसूरती को तो बढ़ाया ही, भाव और किरदार दर्शाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्रकाश संयोजन रतनलाल और श्याम वशिष्ठ का था।
दूसरा नाटक व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कहानी ‘‘इंस्पेक्टर मातादीन चांद पर’’ के तपन बनर्जी द्वारा किए गए नाट्य रूपांतरण पर आधारित था। इसका निर्देशन विनोद शर्मा ने किया, निर्देशन में सहयोग किया रामबाबू कुशवाह ने। नुक्कड़ शैली के इस नाटक में मातादीन की प्रमुख भूमिका के साथ आर्यन अरोरा ने ईमानदार व्यवहार किया और उनका साथ दिया, विनय खान, प्रियांशु शेखर, दर्श दुबे, अनिकेत, आशीष, सौरभ और कबीर खान ने। अभिनय के लिहाज से आर्यन और प्रियांशु ने दर्शकों की वाहवाही बटोरी। प्रापर्टी की कमी के बावजूद कलाकारों ने चांद के दृश्य और पुलिस की कार्यप्रणाली को खूबसूरती से बेपर्दा किया। संवादों में तीक्ष्णता अपने पूरे वेग से हाॅल में पहुंच रही थी, जिसका सबूत बीच-बीच में उठा रहे ठहाके थे। दोनों नाटकों के बीच के अंतराल में दीक्षा जैन, श्वास्ती, संघमित्रा, प्रज्ञा, पारूल, कविता, प्रियंका, सौम्या, आशी और आस्था ने बुंदेलखंड के लोकनृत्य ‘‘राई’’ की प्रस्तुति दी। ‘‘राई’’ के गंभीर दर्शकों ने भी इसकी सराहना की और एक दर्शक की यह टिप्पणी नृत्य की तारीफ के लिए काफी है कि, ‘‘हम चाहते थे कि यह नृत्य पूरी रात चलता रहे।’’ वैसे भी ‘‘राई’’ नृत्य अपने पारंपरिक रूप में पूरी रात चलता है, यह बच्चे की पैदाइश और विवाह के अवसर पर होता है, जिसे मिथक में लव-कुश की पैदाइश से जोड़कर देखा जाता है। समापन समारोह के अंत में पीडब्ल्यूडी के एसडीओ श्री ज्ञानवर्धन मिश्रा, वरिष्ठ कवि निरंजन श्रोत्रिय, वरिष्ठ पत्रकार अतुल लुंबा और गजलकार महेश कटारे ने बच्चों को सुनहरे भविष्य की उम्मीदों के साथ प्रमाण-पत्र वितरित किए गए। इस लंबे किंतु बेहद सधे हुए कार्यक्रम का संचालन ख्यातिलब्ध चित्रकार और अशोकनगर इप्टा के वरिष्ठ साथी पंकज दीक्षित ने किया। शिविर के सफल संचालन में संयोजक और इप्टा अशोकनगर की अध्यक्ष सीमा राजोरिया, सचिव राकेश विश्वकर्मा के अलावा वरिष्ठ साथी विनोद शर्मा और रतनलाल पटेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इस रंग शिविर से कला कर्म के भविष्य की जो तस्वीर सामने आती है, वह किसी नाट्य क्रांति को रेखांकित नहीं करती, लेकिन कला के सामाजिक दायरे को बढ़ाती है। अच्छे और बुरे के फर्क की तमीज पैदा करने वाले शिविरों में इप्टा के इस शिविर को अलग से रेखांकित भले न किया जाए, लेकिन इसे खारिज नहीं किया जा सकता। यह तब है जब अशोकनगर जैसे शहर बनते कस्बे में इसी दरम्यान क्रिकेट से लेकर आधुनिक नृत्य तक की कार्यशालाएं समानांतर रूप से चल रही थीं। ऐसे में 60 से अधिक बच्चे हर साल तपती धूप में नाट्य कर्म और कुछ अन्य जरूरी कलाओं का प्रशिक्षण ले रहे हैं, तो आश्वस्त हुआ जा सकता है कि कस्बों में थियेटर बचाने के लिए किसी सरकारी पहल की जरूरत नहीं है। इस कार्यशाला के उद्घाटन अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार श्री अतुल लुंबा ने कहा था कि ‘‘अशोकनगर में बच्चों के थियेटर पर जो काम हो रहा है, उसकी पहचान प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर हो रही है।’’ दिलचस्प है कि राष्ट्रीय सवाल भी कस्बों तक पहुंच रहे हैं, इसलिए यह जरूरी भी है कि कस्बे राष्ट्रीय फलक पर जवाबदेही निभाएं। इस लिहाज से अशोकनगर का कला जगत अपनी जिम्मेदारी निभा रहा है, ठीक वैसे ही जैसे भिलाई से लेकर डोंगरगढ़ तक के अन्य समूह अपने-अपने ढंग से हस्तक्षेप कर रहे हैं। - सचिन श्रीवास्तव

Sunday, May 27, 2012

'बकासुर' के साथ आठवें बलराज साहनी स्‍मृति राष्‍ट्रीय नाट्य समारोह का समापन


रायगढ़ इप्टा का नाटक ‘बकासुर’ समारोह की अंतिम प्रस्तुति थी। प्रकाश व्यवस्था को दुरूस्त करने में कुछ समय लग रहा था। इससे पहले कि नाटक प्रारंभ होता तेज बारिश की आशंका के साथ बूंदा-बांदी शुरू हो गयी, लेकिन नाटक देखने की ललक में लोग कुर्सियों पर जमे रहे। हिंदी पट्टी में जहाँ नाटकों के दर्शकों की कमी का रोना रोया जाता हो वहाँ भीषण गर्मियों में पंखों के बगैर पूरे तीन दिनों तक सभागार का खचाखच भरा रहना यह संकेत देता है कि नाटक मंडली केवल कलाकर्म के प्रति नहीं बल्कि सरोकारों के लिये भी प्रतिबद्ध हो तो उसके समक्ष  खाली कुर्सियों का वह संकट उत्पन्न नहीं हो सकता जो शहरी थियेटर में आम प्रवृत्ति है। समारोह की सफलता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘‘ऑल्टरनेटिव लिविंग थियेटर’’, कोलकाता द्वारा नाटक ‘‘घर वापसी का गीत’’ के मंचन के बाद सुविख्यात निर्देशक व रंगकर्मी प्रोबीर गुहा ने दर्शकों को संबोधित करते हुए कहा कि ‘‘ आप लोग धन्य हैं जो देर रात तक इतनी शांति से बैठकर इतना गंभीर नाटक देख रहे हैं।’’ नाट्य संस्था ‘इप्टा’ व ‘सामाजिक संस्था ‘विकल्प’ द्वारा आयोजित बलराज साहनी स्मृति 8 वें राष्ट्रीय नाट्य समारोह का समापन रायगढ़ ‘इप्टा’ के नाटक ‘बकासुर’ के मंचन के साथ हुआ। लोक व आधुनिक शैली के मिश्रण के साथ तकनीक के विवेकपूर्ण इस्तेमाल ने इस उद्देश्यपूर्ण नाटक को अत्यंत रोचक भी बना दिया। मूलतः मराठी में यह नाटक ‘निर्भय बनो आंदोलन’ के लिये रत्नाकर मटकरी द्वारा लिखा गया था। महाभारत की एक कथा भीम-बकासुर युद्ध के एक प्रसंग को लेकर इसे वर्तमान परिस्थितियों में देखने की कोशिश की गयी व इसमें पंडवानी का प्रयोग करते हुए लोक शैली के तत्वों का रोचक इस्तेमाल किया गया। नाटक का छत्तीसगढ़ी में अनुवाद उषा आठले ने किया है तथा निर्देशन व प्रकाश अजय आठले का था। इससे पूर्व भिलाई इप्टा द्वारा स्वर्गीय शरीफ अहमद के नाटक ‘‘मंथन’’ का मंचन किया, जिसमें केवल दो ही पात्र थे जो पाप व पुण्य को अपने-अपने ढंग से परिभाषित करते हैं। अस्तित्ववाद से लेकर सदियों से समाज में उपस्थित जटिल समस्याओं व विसंगतियों पर ये पात्र आपसी संवाद के जरिये गहन ‘मंथन’ करते हैं और दर्शक के जेहन में कुछ गंभीर सवाल छोड़ जाते हैं। ‘मंथन’ साथी शरीफ अहमद की रंगयात्रा का भी मंथन है। शरीफ ने नाटक लेखन की शुरूआत ‘परिंदे’ नाटक से की और यह यात्रा आगे चलकर ‘समर’, ‘परत दर परत‘ व ‘पंचलैट’ से होती हुई और ‘मंथन’ पर आकर असमय थम गयी। शरीफ भाई अपने इस नाटक में संवादों की सरलता के साथ पूरे दृश्य की जीवंत उपस्थिति दर्ज कराते हैं। पात्रों के आपसी संवाद के बीच सदियों से समाज में उपस्थित जटिल समस्याओं को रेखांकित करते हुए दर्शकों के मानस पटल पर अंकित करते हैं..क्या? क्यों? और कब तक? दो पात्रों के इस नाटक में केवट के रूप में संजीव मुखर्जी व पंडित की भूमिका में राजेश श्रीवास्तव ने बेहतरीन अदाकारी की। निर्देशन त्रिलोक तिवारी का था व सह-निर्देशक थे अशफाक खान व  रणदीप अधिकारी। ‘‘मुझे लगता है कि भाग्य और भगवान किसी बहुत ही चालाक व्यक्ति के मन की उपज है। उसने दुनिया को अपने ढंग से चलाने के लिये ही इन शब्दों को जन्म दिया है। लेकिन तभी मन के किसी कोने से आवाज आती है कि कोई तो है जो सबको देख रहा है, सबके कर्मो का हिसाब -किताब कर रहा है। उससे कुछ भी छिपा नहीं है।’’ समारोह के दूसरे दिन हरिशंकर परसाई की रचनाओं पर आधारित अरूण पाण्डेय के कोलाज ‘निठल्ले की डायरी’ को दर्शकों ने बेहद पसंद किया। नाटक देखते हुए परसाई जी का रचना संसार ‘फ्लैशबैक’ की तरह परत दर परत खुलता चला जाता है और लगता है कि नाटक के केंद्रीय पात्र अपने ही मोहल्ले के ‘कक्काजी’ हैं जो हर जरूरी-गैर जरूरी बात पर अपनी राय देना आवश्यक समझते हैं। नाटक की प्रस्तुति बेहद चुस्त व कसी हुई थी तथा यह समारोह के सबसे उम्दा नाटकों में से एक था। नाटक की परिकल्पना व निर्देशन अरूण पाण्डेय का है। इस नाटक के पश्चात मेजबान इकाई ‘इप्टा’ डोंगरगढ़ ने भारतेंदु के कालजयी नाटक ‘‘अंधेर नगरी, चौपट राजा’’ पर आधारित एक प्रस्तुति छत्तीसगढ़ी में दी। संगीतप्रधान नाटक होने के कारण यह प्रस्तुति वैसे ही काफी सरस थी और छतीसगढ़ी बोली में देशज तत्वों के सम्मिलन के साथ इसका आनंद दूना हो गया, पर कलाकारों की देहभाषा आयोजन की व्यस्तता व थकान की चुगली कर रही थी। नाटक का निर्देशन किया था राधेश्याम तराने ने व संगीत निर्देशन मनोज गुप्ता का था। समारोह के प्रथम दिन दो नाटकों का मंचन किया गया। भिलाई इप्टा का नाटक फांसी के बाद जहां हास्य व व्यंग्य के बेजोड़ शिल्प में एक कारखाने के बेकार हो गये कामगार की दस्तान बयान करता है। नाटक सिर्फ एक घटना को लेकर आगे बढता है। ईश्वर प्रसाद ने अपनी बीबी का खून किया है। अदालत उसे दोषी मानती है, लेकिन नाटककार और निर्देशक उसे खूनी नहीं मानते और यह सवाल अंततः दर्शक के पाले में डाल दिया जाता है, जिसकी पूरी सहानुभूति हालात के मद्देनजर ईश्वर प्रसाद के साथ होती है। नाटक हँसते-हँसाते हुए भी कुछ बेहद गंभीर सवाल छोड़ जाता है। निर्देशन पंकज सुधीर मिश्र का था और संगीत दिया था भारत भूषण परगनिहा व सुनील मिश्रा ने। भूमिकायें मणिमय मुखर्जी , राजेश  श्रीवास्तव, अशफाक खान , रणदीप अधिकारी संदीप कृष्ण गोखले,  मनोज जोशी, अत्ताउर रहमान, श्याम  वानखेड़े, जगनाथ साहू व शेलेश  कोडापे की थीं। नाटक ‘‘घर वापसी का गीत’’ गांवों के उन असंख्य लोगों की कहानी है जो आजादी के इतने सालों बाद भी विस्थापन के लिये व शहरों की ओर पलायन के लिये अभिशप्त हैं। नाट्य परिकल्पना व निर्देशन प्रोबीर गुहा का था।सहायक निर्देशक  तपन दास का था। संगीत व प्रकाश था शुभादीप गुहा का व भूमिकायें थीं तपन, पन्ना, अफ्तर, अवि, शिल्पी, प्रतीक, तनिमा, मोहन, अरूण, साग्निक, अरूप व अन्य की। "दो देशों के विभाजन के साथ केवल स्वतंत्रता नहीं आती है,बल्कि वह हाशिये पर पड़े करोड़ों लोगों के लिये बेघर हो जाने का पैगाम भी लेकर आती है। इसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं - सांप्रदायिक दंगे, भय, असुरक्षित भविष्य, बेरोजगारी व अंततः भूमंडलीकरण के साथ औद्योगीकरण। बेशुमार लोग शहरों की ओर भागने लगते हैं। वे मनुष्यों की तरह दिखते तो हैं पर कभी भी सामान्य मनुष्य की तरह जी नहीं पाते।  अपनी जड़ों से उखड़े व बिखरे इन लोगों का भटकाव कभी खत्म नहीं होता। वे एक नये पते के लिये, एक नयी नियति के लिये आजादी के 63 साल बाद भी भटकने के लिये अभिशप्त हैं।" इससे पूर्व नाट्य समारोह का उद्घाटन करते हुए इंदिरा कला व संगीत विश्वविद्याल की कुलपति प्रोफेसर डॉक्टर माण्डवी सिह ने कहा कि यह हर्ष व गौरव की बात है कि डोंगरगढ़ इप्टा इतने कम संसाधनों के साथ लगातार इतने अच्छे कार्यक्रमों का आयोजन कर रही है। उन्होंने आश्वस्त किया कि वे भविष्य में भी डोंगरगढ़ इप्टा के आयोजनों में शामिल होंगी। निर्देशन के लिये राष्ट्रपति द्वारा संगीत नाटक अकादमी सम्मान से विभूषित अंतरराष्ट्रीय ख्याति के निर्देशक श्री प्रोबीर गुहा ने कहा कि ‘विकल्प’ व ‘इप्टा’ का बेहतीन आयोजन कलाकारों व आयोजकों की प्रतिब़द्वता का परिणाम है। नाटकों का उद्देश्य केवल दर्शकों का मनोरंजन करना नहीं है बल्कि सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिये एक औजार की तरह काम करता है। उन्होंने कहा कि नाटकों के इस सामाजिक पहलू को ध्यान में रखते हुए इस आंदोलन को और भी ज्यादा विकेंद्रित करते हुए गांव-गांव तक फैलाया जाना चाहिये। कहीं ऐसा न हो कि यह आंदोलन केवल शहरी क्षेत्रों में सिमट कर रह जाये। अतिथिद्वय ने छत्तीसगढ के मशहूर नाटककार प्रेम साइमन के लोकप्रिय नाटकों की एक किताब का विमोचन भी किया। किताब का संपादन दिनेश चौधरी ने किया है। इस अवसर पर  शालेय छात्रों के लिये एक चित्रकला स्पर्धा भी आयोजित की गयी थी व छात्रों द्वारा बनायी गयी कृतियों को समारोह-स्थल पर प्रदर्शित किया गया है। (इप्टानामा से साभार)

Friday, April 13, 2012

बहुजन साहित्य ओ.बी.सी, दलित, आदिवासी और स्त्री-इन चारों का समुच्चय है



‘बहुजन साहित्य ओ.बी.सी, दलित, आदिवासी और स्त्री-इन चारों का समुच्चय है। जिस प्रकार भक्ति काव्य में संतकाव्य परंपरा,सूफी काव्य परंपरा, रामकाव्य परंपरा और कृष्ण काव्य परंपरा मिलकर उसका एक चरित्र गढ़ती है वही स्थिति बहुजन साहित्य के संदर्भ में उपरोक्त चार धाराओं के सम्मिश्रण से पैदा होती दिखलायी पड़ती है।’ उक्त बातें आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ सभागार में कही। उन्होंने ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा आयोजित ‘फूले का जश्न, रेणु की याद, क्या है बहुजन साहित्य’ गोष्ठी में यह बात कही।

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस चर्चा के बैकग्राउंड के रूप में इतिहास, भाषा और हिंदी शब्द कोश की एकांगी सोच से जुड़े सवालों को बड़े तार्किक ढंग से उठाया। कहा कि हिंदी साहित्य, भाषा और इसकी संस्कृति के जनतांत्रिकरण की जरूरत है। उन्होंने रामचंद्र वर्मा, मुकंुदीलाल श्रीवास्तव और हरदेव बाहरी जैसे शब्द कोश निर्माताओं का जिक्र किया और बतलाया कि ये सभी कोशकार काशी और इलाहाबाद के रहे हैं। इनकी अपनी स्पष्ट सीमाएं यह है कि इनमें आपको उनके इलाकों के शब्द भंडार तो बहुत मिलेंगे लेकिन भारत के अन्य हिस्सों की देश शब्द संपदा आप वहां नहीं पाएंगे। यह कोशों पर पूर्वी प्रांतों के वर्चस्व का नमूना है।

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि हिंदी कोशों पर 10 देवी देवताओं का कब्जा है। वहां 3411 शब्द शंकर के पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार विष्णु के लिए 1676, काली के लिए 900, कृष्ण के लिए 451 पर्यायवाची हैं। देवताओं के लिए कोशकारों ने इतने शब्द पर्यायवाची के इजाद कर लिए लेकिन उंट जो किसी स्थान विशेष के लिए इतनी उपयोगी है उसके लिए आपको कोशों में क्यों नहीं पर्यायवाची शब्द मिलते? इसी प्रकार आप देखें किसान-मजदूर, मीडिया और इंटरनेट से जुड़े शब्द की स्थिति वहां आप नहीं पाएंगे। इसी प्रकार पिछडी़ और दलित कम्यूनिटी से जुड़े शब्द यहां कम आपको दिखेंगे। इसके पीछे ब्राह्मणवाद काम करता रहा है। हमारे यहां के कोशकारों का इस संबंध में यह तर्क था कि इन पिछड़ों का शब्द हम लेंगे तो हमारी भाषा खराब हो जाएगी। उन्होंने कहा कि हमारा हिंदी व्याकरण ही कुछ इस तरह से निर्मित हुआ कि वहां समतामूलक समाज न बने इसके लिए पहले से ही कई तरह की विभेदक रेखाएं खींच दी गई। एक की वाक्य को उंच-नीच, बराबरी-गैरबराबरी के लिए कई तरह से व्यहृत किया गया। यह हिंदी में स्त्रीलिंग पुल्लिंग विन्यास का खेल देखिये। जितनी मुलायम, कमजोर एवं नाजुक चीजें हैं कोशकारों ने उसे पुल्लिंग बना दिया। और जितनी ताकतवर हैं उसे स्त्रीलिंग। भला आप ही बतायें सरकार को स्त्रीलिंग बतलाने का क्या औचित्य क्या वह कमजोर होती है। सरकार का मतलब ही ताकत होता है। ये हास्यापद चीजें हैं जिस पर विचार होना चाहिए। राजंेद्र प्रसाद ने माना कि हिंदी कोशों की तरह ही हिंदी आलोचना में प्रांतवाद का बोलबाला रहा। रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने यूपी का पक्ष लिया। हिंदी में छायावाद से लेकर नयी कहानी आंदोलन तक में एक ब्राह्मणवाद सिस्टम की तर्ज पर ‘त्रयी’ खड़ी की गई जिसमें दो ब्राह्मण के साथ एक अवर्ण को जोड़ दिया गया। क्या यह ब्राह्मणवादी सिस्टम को स्थापित नहीं करता? यह त्रयी किसका औजार है?

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि वर्ग संघर्ष से अलग जाति संघर्ष के आयने में बहुजन साहित्य अपनी दिशा तय करेगा। उन्होंने कहा कि फ्रायड ने यौन कुंठा की बात कही थी उससे काम नहीं चलेगा यहां तो लोगांे में जातीय कुंठा है इससे लोग बुरी तरह आक्रांत हैं।

फारवर्ड प्रेस के अंग्रेजी संपादक आयवन कोस्का ने लेखक और आंदोलनकारी-दोनों रूपों में महात्मा ज्योतिबा फूले की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि फूले ने ‘गुलामगिरी’ के माध्यम से भारत में नवजागरण का शंखनाद किया। वे जितने बड़े समाज सुधारक थे उतने ही बड़े दार्शनिक और चिंतक भी। उन्होंने कहा कि इस दंपति ने स्त्री शिक्षा के लिए जो काम किया वह मील का पत्थर कही जा सकती है। उन्होंने कहा कि फूले साहब की पत्नी सावित्रीबाई फूले भारत के आधुनिक कवियों में थीं। उन्होंने उनकी कविता ‘अंग्रेजी मां’ का एक टुकड़ा पेश कियाः ‘‘हमारी रगांे में सच्चा भारतीय खून है/उंचे स्वर में चिल्लाओ! और चीखो!/ अंग्रेजी मां आ गई है।’’ कोस्का साहब ने अंग्रेजी में ही अपना वक्तव्य रखा। कहा कि मैं मुम्बई का हूं। साठ वर्ष का हूं। 30 साल कनाडा का नागरिक रहा। लेकिन मेरी आत्मा भारत में निवास करती है।

कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु 20 वीं शताब्दी के कुछ महान कथाकारों में एक हैं लेकिन उनके जीवन और लेखन में बड़ा गैप्प है। वे ब्राह्मण विरोधी थे ही नहीं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने प्रशांत के रूप में खुद को बतलाया है। दिवाकर ने कहा कि यह देश मूर्तिपूजक है। यहां कुछ भी कहना खुद को संकट में डालना है बावजूद इसके मैेंने अपने घर में एक मात्र मूर्ति रेणु का ही टांगा है। दिवाकर ने कहा कि वे ज्योतिबा फूले को इस देश में परिवर्तन लाना वाला बहुत बड़ा आडियोलाग मानते हैं। उन्होनंे ब्राह्मणवाद पर अपनी कृति ‘गुलामगिरी’ में जर्बदस्त ढंग से प्रहार किया है। दिवाकर ने दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की चर्चा की और बतलाया कि उसमें फूले के बारे में कोई चर्चा तक का नहीं होना बतलाता है कि दिनकर भी कहीं-न-कहीं चूक रहे थे। दिवाकर ने माना कि भारतीय साहित्य पर फूले के विचारों का गहरा असर पड़ा है उन्होंने इस संबंध में मलखान सिंह की एक कविता पढ़ी और बतलाया कि क्या फूले के बगैर ऐसी कविताएं लिखी जा सकती थीं?

राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक प्रो. रामबुझावन सिंह ने रेणु से जुड़े कुछ अनुभव साझा किये और कहा कि रेणु के मूल्यांकन के लिए पैरलल नजर चाहिये क्योंकि हिंदी रचनात्मकता में वे एक पर्वत के समान हैं। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि आज तक रेणु को ठीक से समझा नहीं गया। कवि आलोकधन्वा ने कहा कि रेणु से उनका संबंध कुछ इस किस्म का था कि उसमें बहस के लिए कोई गुंजायश न थी। उन्होेंने कभी मुझको ‘तुम’ नहीं कहा हमेषा ‘आप’ कहकर ही पुकारा। रेणु के लेखन की चर्चा करते हुए आलोक ने कहा कि समन्वय उनके लेखन का सबसे ताकतवर पक्ष है। इस संदर्भ में उनके कंटेंट की स्थानीयता की चर्चा करते हुए उन्होंने रूसी लेखक शोलाखोव की ‘धीरे वहो दोन रे’ की भी चर्चा की। आलोक ने कहा कि आज एक कम्यूनल, जातिवादी और एक क्रूर हिंसक समाज सामने आया है आपसे आग्रह है कृप्या आप इससे बचिये। द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 करोड़ लोग मारे गए। आलोक ने तरह-तरह के विमर्शों में एकता ढूंढने की बात की और जातिवाद से उपर उठने पर बल दिया। आलोक ने कहा कि अगर हम मार्गेन, आइंस्टाइन, डार्बिन और लिंकन को नहीं जानते तो एक सच्चे मनुष्य होने का दावा भला कैसे कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि फूले से लेकर लोहिया तक ने जाति तोड़ने पर बल दिया। जाति की क्रूर नृशंसता पर लोहिया ने जर्बदस्त तरीके से चोट किया।

आलोकधन्वा ने अपने आरंभिक वक्तव्य में जाति से संदर्भित एक घटना की चर्चा की तो गोष्ठी में आये श्रीकांत व्यास और हरेंद्र विद्यार्थी उन पर आक्रोशित हो उठे। देर तक गोष्ठी में अफरा-तफरी मची रही। मामला समझ में नहीं आया कि अचानक हो क्या गया। विरोध करने वाले का कहना था कि आलोक पटना के एक वरिष्ठ कवि की बेटी के भागने का संदर्भ इससे पहले भी तीन-चार सार्वजनिक मंचों पर कह चुके हैं उन्हेें ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए। आलोकधन्वा ने इस संबंध में बड़ी शालीनता बरती लेकिन उनके कुछ बिरादर अनुयायिओं ने कई तरह से अपना गुस्सा प्रकट किया। उसमें डेमोक्रेसी की न्यूनतम विनम्रता भी न थी और आलोक के प्रति गिरोहबंदी का चरम दिख रहा था।

धन्यवाद ज्ञापन अस्पायर प्रकाशन की चेअर डा. सिल्विया फर्नाडीस ने किया। उन्होंने अपने वक्तव्य अंग्रेजी में ही दिए। समारोह के आरंभ में वरिष्ठ कथाकार मधुकर सिंह को आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन ने संयुक्त रूप से शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया।

- पटना से अरुण नारायण की रपट

Saturday, April 7, 2012

थिएटर मन से होता है...


प्रोबिर गुहा देश के जानेमाने रंगकर्मी हैं. मेहनती हैं. ईमानदार हैं. अपने काम में माहिर हैं. जमीन से जुड़े हुए हैं. जिन्दादिल इनसान हैं. पश्चिम बंगाल से संबंध रखने वाले प्रोबिर गुहा द्वारा निर्देशित एक प्ले “बिशादकाल” देखकर अभी-अभी लौटा हूं. रात के बारह बज रहे हैं. शाम पांच बजे निकल गया था. क्योंकि मंचन का समय शाम सात बजे का था. लेकिन नाटक शुरू हुआ नौ बजे. बिशादकाल नाटक गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी “बिसर्जन” पे आधारित है. नाटक एक घंटे पैंतालिस मिनट का था. लेकिन देरी की वजह से इसे कांट-छांट के मात्र पैंतालिस मिनट का बना दिया गया. प्रोबिर दा ने और उनके कलाकारों ने मेरे सामने हीं. मंचन स्थल के बाहर. खड़े-खड़े. बीड़ी और सिगरेट पीते-पीते, एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से एक घंटा निकाल दिया. मैं वहीं खड़ा था. लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है? क्योंकि रंगकर्मी आपस में बंग्ला में बतिया रहे थे. थोड़ी देर बाद प्रोबिर दा ने बताया कि नाटक को काट के छोटा कर दिया है. मैंने पुछा, कब दादा?(क्यों काटा?-असल सवाल तो यह होना चाहिए था लेकिन मुझे पता था कि समय की कमी हो रही है. आपको भी ऊपर ही बता दिया गया है.) प्रोबिर दादा ने जवाब में कहा, “अभी–अभी तो. यहीं, तुम्हारे सामने. तुम बंग्ला बिल्कुल नहीं समझते क्या?” मैंने “ना” में मुंडी हिला दी.

एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से बचे हुए पैंतालिस मिनट के नाटक का मंचन शुरु हुआ. जिन कलाकारों को बाहर एक लाईन हिन्दी बोलने में भी दिक्कत हो रही थी वो मंच पे हिंदी के डॉयलॉग बहुत आसानी से बोल रहे थे. पूरे भावभंगिमा के साथ बोल रहे थे. उनका अभिनय, दर्शक को अभिनय नहीं लग रहा था. दर्शकदिर्धा में मानों सांप सुंघ गया था. कोई चूं-चां तक की आवाज नहीं आ रही थी.

नाटक में एक जगह , काली पूजा के दौरान जानवर की बलि देने का सीन है- मंच पे हल्की नीली रौशनी है. नगाड़े की आवाज गुंज रही है. पृष्ठभूमि से जय मां काली, जय मां काली, जय-जय मां काली, जय-जय मां काली की आवाज बुलंद हैं. मंच पे आगे की तरफ , तीन लड़कियां अपने-अपने केश खोले हुए, जमीन पर बैठीं हैं. गर्दन को गोल-गोल घुमा रही हैं. ठीक वैसे हीं जैसे बिहार में भुतखेली के समय कुछ महिलाएं अपनी गर्दन को घुमाती हैं.
नगाड़ा बज रहा है…बजता जा रहा है. जय-जय मां…की आवाज बुलंद हो रही है. लड़कियां लगातार गर्दन को घुमाए जा रही हैं. उनके लंबे –लबें काले केश भी उलझते-सुलझते गोल-गोल घुम रहे हैं. इसके बीच जानवर की बलि पड़ती है. मंच पे खुन आ जाता है. प्ले के हिंसाब से लाईट भी नहीं है. फ्लैट लाईट है. एक ही जैसा. फिर भी इस द्र्श्य को देखने के बाद मेरे रोएं सिहर गए. मेरे बगल में खड़े एक सीनियर फोटोग्राफर कृष्णमुरारी किशन बोल पड़े-गजब . (कृष्णमुरारी का जिक्र इसलिए कि मैंने आज तक. एक साल में उन्हें किसी प्रोग्राम के बारे में कुछ कहते नहीं सुना. वो आते हैं फोटो करते हैं और निकल जाते हैं.)
जानवर–बलि जैसे और भी बहुत से सीन थे उस नाटक में जिसे मंच पे उतारते समय कलाकार जी रहे थे. और जिसे देखते हुए दर्शक चुप्पी मारे बैठे थे.



प्ले खत्म हुआ. मैं बाहर निकलते समय यही सोंच रहा था कि पटना के रंगकर्मियों को. नाटक के निर्देशकों को और थिएटर कलाकारों को इस प्ले को देखना चाहिए था. लेकिन मेरा विश्वास है कि पटना के रंगकर्म से जुड़ा एक भी आदमी इसमे नहीं रहा होगा. अगर कोई रहा होगा तो उसे रातभर नींद नहीं आएगी. उसे पता चल जाएगा कि थिएटर मन से होता है. दिमाग से नहीं.

यह भी समझ आ जाएगा कि दमदार अभिनय, धाकर लेकिन आसानी से समझ आने लायक डॉयलॉग और सुलझे हुए निर्देशन से ही एक सुन्दर मंचन होता है.

- विकास कुमार (बतकही ब्लॉग से साभार)

रंगमंच के जरिये दर्शकों को देती हूं सीख: इरम खान


कभी तेज तर्रार बहू तो कभी उमराव जान के किरदार की तैयारी. बचपन से ही कलाकार बनने का सपना देखा करती थी.
नवाबी शहर लखनऊ के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी इरम खान समाज को नई दिशा देने का बीड़ा उठाते हुए रंगमंच के माध्यम से एक्टिंग के क्षेत्र में उतरी. इरम बताती हैं कि मुझे बचपन से ही एक्टिंग का बहुत शौक था. जब मैं 5वीं क्लास में थी तभी मैंने स्कूल से ही नाटकों में भाग लेना शुरु कर दिया. तभी मैने अपने अन्दर के कलाकार को पहचाना और दिल में रंगमंच पर उतरने की मन में ठान ली.


2010 में आकांक्षा थियेटर संस्था से जुड़ी रंगमंची इरम खान ने एक मुलाकात में बताया कि मेरा पहला नाटक 'पंच परमेश्वर' हुआ. इस नाटक का उद्देश्य दर्शकों को बताना था कि मित्रता से बढ़कर न्याय है. इस नाटक में मैंने समझू साहू की पत्नी सह आईना का किरदार निभाया. जो कि अवधी भाषा में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया.

अपना कौन सा नाटक दोहराना चाहती है.

वैसे तो मेरे सारे ही नाटक बहुत अच्छे है. पर मै ”बेटों वाली विधवा“ दोहराना चाहूँगी.

क्या कोई हास्य नाटक किया है.

हां मेरा हास्य नाटक बल्लभपुर की रूपकथा बाल्मीकि रंगशाला उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी परिसर, गोमती नगर लखनऊ में हुआ था. इसमें एक भुतहा हवेली की कहानी थी जो एक छंदा साबुन की फैक्ट्री के मालिक खरीदना चाहते थे. उसमें मैने साबुन फैक्ट्री के मालिक की बेटी वृंदा का किरदार निभाया था.

मंत्र नाटक में क्या किरदार निभाया था.

मंत्र में मैने डाक्टर चढढा के बेटे कैलाश की होने वाली पत्नी मृणालिनी की भूमिका निभाई है. मुंशी प्रेमचन्द्र ने उच्च वर्गीय समाज के डाक्टरों के लिए कटाक्ष किया है. उन्होंने दर्शाया है कि भगवान का न्याय सबके लिए समान है. इंसान को कभी इंसानियत से नहीं हटना चाहिए. मंत्र नाटक ने समाज को एक अच्छा संदेश दिया है.

”बेटो वाली विधवा“ में दर्शकों को क्या सीख मिली.

दर्शको को इस नाटक से बेहतर संदेश मिला है कि एक मां-बाप अपने चार-चार बेटों को पालते है. वहीं बेटे बड़े होकर अपनी विधवा मां को बोझ समझने लगते है. इस नाटक में मैने एक तेज-तर्रार बड़ी बहू का किरदार निभाया था जो अपनी सास को बहुत तंग करती है.

अगर रंगमंच कलाकार न होती तो क्या बनना चाहती.

अगर मैं रंगमंच कलाकार न होती तो मै पुलिस इंस्पेक्टर जरूर होती. और समाज कीर सेवा करती और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को जड़ से खत्म करने की कोशिश करती.

समाज के लिए क्या करना चाहेंगी.

मैं एक बालिका कालेज खोलना चाहूंगी जिससे गरीब बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा, हास्टल सुविधा और जितनी सुख सुविधाएं है उन्हे मिल सके ऐसा जरूर चाहूंगी.

न्यू जेनरेशन के लिये

हमेशा अपनी सोच पाजिटिव रखनी चाहिए. जिन्दगी बहुत खूबसूरत है बस उसके लिए खूबसूरत नजरिए की जरूरत होती है. यह आज की जेनरेशन के दिमाग में डालने की जरूरत है. काम बहुत है... अवसर बहुत है. बस जरूरत है सही रास्ते को चुनकर आगे बढ़ने की. और न्यू जेनरेशन से यही कहना चाहूंगी जो किसी शायर ने कहा है.

परों को खोल जमाना उड़ान देखता है.
जमीं पर बैठकर क्या आसमान देखता है.

सभी अभिभावकों को क्या संदेश देना चाहते है.

मैं अभिभावकों से बस यही कहूंगी कि वो ये देखे कि बच्चे को किस चीज में रूचि है. वो क्या करना चाहता है. उसे वही करने दे, जबरदस्ती वो काम करने को न कहे जो वो न करना चाहते हो. मेरी मां ने भी मेरी एक्टिंग में रूचि देखकर मुझे कभी नहीं रोका. वह हमेशा आगे बढ़ने के लिए हमारी प्रेरणा स्रोत रही.

पढ़ने वाले बच्चों के लिए मनोरंजन के साधन को कैसा मानेंगी? सही या गलत.

मैं मनोरंजन को गलत नहीं बल्कि सही मानूंगी क्योंकि बच्चों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ मनोरंजन और खेलकूद बहुत जरूरी है. टेलीविजन तो बहुत अच्छा साधन है मनोरंजन का.

पसंदीदा टीवी सीरियल कौन सा है.

वैसे तो सारे ही सीरियल्स बहुत ही अच्छे है पर मेरा पसंदीदा सीरियल सहारा वन का "सितारों का आंगन होगा". जोकि मै रोज देखती हूं. इसके अलावा ”प्रतिज्ञा“ है. इससे न्यू जेनरेशन की सोच बदली है और हर लड़की किसी से पीछे नहीं रहना चाहती बल्कि हर परिस्थिति का सामना करना सीख रही है.

आने वाले नाटक के बारे में कुछ कहना चाहेंगी.

अभी मैं फिलहाल अपने आने वाले नाटक ”उमराव जान अदा“ की रिहर्सल कर रही हूं जिसमें मैने ”उमराव जान“ का किरदार निभा रही हूं. जो कि अप्रैल में लखनऊ के राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में होगा.

(समयलाइव से साभार)

Tuesday, April 3, 2012

जीवन के नैसर्गिक संगीत पर हावी होता मशीनी शोर


प्रकृति और इंसान का संघर्ष उतना ही पुराना है जितना कि इंसान. विकास की समूची इंसानी यात्रा प्रकृति से भिड़ते हुए, उससे सामंजस्य बिठाते और इससे भी आगे बढ़कर उसका दोहन करने का रहा है. चांद और मंगल तक पहुंचने के बाद अक्सर इंसान को लगता रहा है कि उसने प्रकृति को पछाड़ दिया है और वह प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ जैसा चाहे सलूक कर सकता है. पूंजीवादी विकास के मॉडल ने इंसानी समाज को लगभग मोहांध बना दिया है और हम प्रकृति के प्रतिकार को समझ नहीं पा रहे हैं. आदिवासी समाज ने इस प्रतिकार को संभवतः मोहनजोदाड़ो या सिंधु नदी घाटी सभ्यता के समय ही अनुभव कर लिया था जब प्रकृति के अत्याधिक दोहन के फलस्वरूप भयानक प्राकृतिक आपदा आई थी और पूरी सभ्यता नष्ट हो गई थी. बावजूद इसके आदिवासियों के बाद विकसित हुआ नागर समाज इस सच को समझने के लिए तैयार नहीं है और भौतिक जीवन की अतिरिक्त विलासिता भरी जिंदगी के लिए लगातार प्रकृति, पर्यावरण और जीवन के खात्मे के लिए प्रयासरत है. स्पेस थिएटर, गोवा की संवादरहित सांगीतिक रंगप्रस्तुति ‘क्रियेचर्स ऑफ द अर्थः द लिजेंड ऑफ पैकाची जोर’ एक आदिवासी मिथक के सहारे आज की इसी पूंजीवादी दोहन और लूट पर चोट करता है.

गोवा के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट हर्ट्मैन डिसूजा द्वारा कोरियोग्राफ्ड और निर्देशित किया गया यह डांसड्रामा बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हमारी इस दुनिया को किस तरह से अकाल मौत की ओर ले जा रहा है. स्टीव सिक्वेरा द्वारा रचे गए संगीत पर एंड्रे परेरा, स्टीफी मदुरेल और टेरेंस जॉर्ज की देहगतियां व मुद्राएं प्रकृति और पर्यावरण के, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के, जंगल और पहाड़ के, झरनों ओर नदियों के लयात्मक नैसर्गिक जीवन को दृश्य-दर-दृश्य खूबसूरती से मंच पर उपस्थित करते हुए दर्शकों को अचंभित करते हैं. आनंदित करते हैं. फिर सुनाई पड़ती है आनंद में खलल डालती ध्वनियां. प्रकृति, पर्यावरण और आज के जीवन को ध्वस्त करता हुआ बड़े-बड़े डम्परों और खनन मशीनों का भयावह शोर. मंच पर दिखता है बदलती हुई देहभाषा. प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करते हुए लोलुप चेहरे. लूट और लालच की जानवर जैसी भंगिमाएं. फिर धीरे-धीरे सबकुछ नष्ट होता चला जाता है.

रांची में 26 से 28 मार्च 2012 तक आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह की यह अंतिम प्रस्तुति थी. 37 मिनट की यह संवादरहित सांगीतिक प्रस्तुति रांची के दर्शकों के लिए उनका अपना अनुभव था. यही वजह है कि कई बार संगीत और दृश्यों की एकरसता के बावजूद न तो वे ऊब रहे थे और न ही आश्चर्य से उनकी आंखें फटी जा रही थीं. अमूर्त प्रस्तुति के बावजूद इसके बिंब और दृश्यों से वे भलीभांति परिचित थे. जल, जंगल और जमीन के लूट और दोहन की यह प्रस्तुति उनकी अपनी ही कलात्मक अभिव्यक्ति थी जिसे मंच पर गोवा के कलाकार उकेर रहे थे जबकि वास्तविक जीवन में इसे भोग रहे हैं.

- अश्विनी कुमार पंकज

राजकीय हिंसा से जवाब मांगता ‘ब्लैक आर्किड’


रांची में हुए दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन 27 मार्च को सबसे पहला नाटक मणिपुर का खेला गया. बुद्ध चिगताम की कहानी पर तोइजाम शिला देवी द्वारा निर्देशित नाटक ‘ब्लैक आर्किड’. शिला रानावि की स्नातक हैं और उनके रंगकर्म पर रानावि की शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा. लेकिन पूरी समग्रता में उनका यह नाटक रानावि की यांत्रिक शैली को नकारते हुए एक मौलिक देशज रंगभाषा गढ़ने की कोशिश करता है. जिस रंगभाषा में पूर्वोत्तर की आदिवासी संस्कृति और परिवेश आधुनिक जीवनदृष्टि के साथ संवाद, मुठभेड़ और साझेदारी करती रहती है. संगीत, प्रकाश, वेशभूषा और अन्य मंचीय उपकरणों के सहारे शिला अपने इस रंगमंचीय प्रस्तुति में राजकीय हिंसा से जूझते मणिपुर ही नहीं वरन् भारत के समस्त आदिवासी समुदायों की पीड़ा को मार्मिक दृश्यों के साथ सजीव बनाती हैं. भारत के दलित-आदिवासी व अन्य उत्पीड़ित समुदायों के राजकीय शोषण पर लिखे और मंचित किये गए अनेक रंगप्रस्तुतियों में शोषितों का प्रतिकार बहुधा आरोपित ढंग से और एक स्थूल विचार के रूप में सामने आता है. परंतु ‘ब्लैक आर्किड’ आदिवासियों के गुस्से और प्रतिकार को उसी सहजता के साथ प्रस्तुत करता है जैसा कि आदिवासी समाज की मूल प्रवृत्ति रही है. वह ‘नागर’ समाज की तरह प्रतिहिंसा में विश्वास नहीं करता और न ही बहुत ‘लाउड’ तरीके से ‘रिएक्ट’ करता है. ‘ब्लैक आर्किड’ तथाकथित मुख्यधारा के रंगंमंचीय प्रतीकों और बुनावट को अपने आदिवासीपन के साथ विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करता है और अपनी स्वतंत्र जातीय चेतना के अनुरूप एक नई रंगभाषा की सृष्टि करता है.

तोइजाम शीला देवी
रानावि की स्नातक और प्राचीन भारतीय इतिहास में एम.ए. करने वाली तोइजाम शीला देवी मणिपुर की रहनेवाली हैं। उनका सपना एक एथलीट बनने का था। लेकिन विश्वविद्यालय के नाटक ‘मां’ में अभिनय करने के बाद वे पूर्णतः रंगमंच के लिए समर्पित हो र्गइं। 1997 में उन्होंने मणिपुर में ‘द प्रोस्पेक्टिव रेपर्टरी’ की स्थापना की और अब तक कई नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन-निर्देशन कर चुकी हैं। उनके नाटकों में डेविड सेलबर्न का ‘एसिन मेरिस फगन’, धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’, श्रीरंग गोड़बोले का ‘पर हमें खेलना है’, स्वयं का ‘गुरिल्ला’ और बुद्धा चिगतम का ‘ब्लैक ऑर्किड’ प्रमुख हैं।

अपने पहले नाटक के अनुभव के बारे में वे कहती हैं, ‘नाटक ‘मां’ में मैं उस घटना को फिर से पुनर्सृजित कर रही थी, जो एक निर्मम रात को मेरे घर के सामने से गुजरने वाले मणिपुर-मिजोरम राजमार्ग पर हुआ था। उस क्षण को तो मैं कदापि नहीं भूल सकती, जब मां गोलियों से छलनी अपने बेटे की लाश देख कर विलाप करती है। नाटक इसी विलाप के साथ खत्म होता है और उसके बाद जो चुप्पी रह जाती है, वह आपको बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है। सचमुच थिएटर में बहुत ताकत है।’

शीला को अपनी आदिवासी पहचान पर बहुत गर्व है और उसे लेकर वह संवेदनशील भी हैं। वह विनम्र अंदाज में प्रासंगिक सवाल करती हैं, ‘इतिहास में मणिपुर कहां है? समूचा भारतीय इतिहास ढूंढ मारा, पर मुझे अपने प्रदेश का जिक्र कहीं नहीं मिला। इसीलिए इसके जवाब में अब मैंने ‘प्राचीन भारत में मणिपुर’ को मुख्य मुद्दा बना लिया है और इसी एक बिंदु पर मेरा पूरा जोर रहता है।’

मणिपुर के रंगमंच पर निर्देशन के क्षेत्र में फिलहाल शीला और उनकी सीनियर सनाबम थनिनलेइमा (रानावि स्नातक) के अलावा दो और नई स्त्री प्रतिभाएं रांधोनी व सबिता ही सक्रिय हैं। अपने थिएटर के बारे में शीला कहती हैं, ‘यह सवाल आपके सामने हमेशा मौजूद रहता है कि आप रंगमंच पर ऐसा क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं जो आपके पास नहीं है।’

- अश्विनी कुमार पंकज

Monday, April 2, 2012

विचारों की रंगमंचीय पेंटिंग है अंबेडकर और गांधी


राजेश कुमार के नाटक मोर्चा लगाते रहे हैं तो अरविंद गौड़ की रंगप्रस्तुतियां इस मोर्चे पर साहस के साथ डटी रहती हैं. ये दोनों ही हमारे समय के राजनीतिक रंगशख्सियत हैं जो बेबाकी के साथ अवाम की छटपटाहट और उसके संघर्ष को रंगमंच पर पुरजोर तरीके से रचते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजेश कुमार के नाट्यालेख स्थितियों को रखते हुए सिर्फ सवाल नहीं उठाते बल्कि संवाद और विमर्श के लिए दर्शकों को आमंत्रित भी करते हैं. उनका नाटक ‘अंबेडकर और गांधी’ भारत के एक ऐसे ऐतिहासिक सवाल पर संवाद के लिए हमें उकसाता है, जिसे सत्ता खुद को बचाए रखने के लिए हमेशा टालती आयी है. दलितों के संदर्भ में बीसवीं सदी के दो बड़े भारतीय नायकों की सामाजिक-राजनीतिक सोच और दृष्टि क्या थी और दोनों अपने-अपने तरीके से कैसे इससे जूझते हैं, यह नाटक बखूबी इसकी पड़ताल करता है. साथ ही यह भी बताता है कि दोनों के दृष्टिभेद को ‘विरोध’ के रूप में चित्रित करते हुए किस तरह इसे संवादहीनता में बदल दिया गया. अंबेडकर और गांधी के बीच असहमतियां थीं. विरोध भी थे. बावजूद इसके वे दोनों संवाद कर रहे थे. क्योंकि वे तानाशाह नहीं थे. आज के राजनीतिक समय में जबकि संवाद को राजनीतिक कार्रवाई नहीं माना जा रहा है और सत्ता व संघर्षशील ताकतें दोनों ही ‘युद्ध’ को प्राथमिकता दे रही हैं, अंबेडकर और गांधी जैसा नाटक लिखकर नाटककार राजेश कुमार संवाद जारी रखने का आग्रह तो कर ही रहे हैं संवादहीनता के फासीवादी चरित्र पर जबरदस्त प्रहार भी कर रहे हैं.

अस्मिता थिएटर समूह और अरविंद गौड़ की रंगकार्रवाइयां हमेशा राजनीतिक संवाद की अभिव्यक्ति बन कर दर्शकों के समक्ष आती रही हैं. अपनी रंगमंचीय प्रस्तुतियों से चाहे वे नुक्कड़ पर हो या प्रेक्षागृह में, अपने दर्शकों को वे लगातार राजनीतिक रूप से उत्तेजित करते रहे हैं. व्यवस्था के बीमार व्यवहार का वैचारिक रूप से उपचार करने के लिए. एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका पर विचार करने के लिए. अरविंद गौड़ द्वारा निर्देशित ‘अंबेडकर और गांधी’ उनकी इसी सचेतन रंगकार्रवाई की प्रभावी प्रस्तुति है जिसे 27 मार्च को रांची में आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन देखने का मौका मिला.

विचारों की सबसे कलात्मक प्रस्तुति हम पेंटिंग और कविता में देखते हैं. विचार एक गतिशील प्रक्रिया है जो पहली नजर में सहज-सी नहीं दिखती. सरलता से समझ में नहीं आती. विचार में कहानी भी नहीं होता. ऐसे में ‘अंबेडकर और गांधी’ जिसमें कि कोई कथा-सूत्र नहीं है, चिर-परिचित कथा संरचना नहीं है - महज विचार और द्वंद्व है, दो व्यक्तित्वों की मनोजटिलताएं हैं, मष्तिष्क में लगातार बनती-बिगड़ती हुई अदृश्य आकृतियां हैं - को रंगमंचीय सौंदर्य और अर्थ के साथ रचना निःसंदेह एक बड़ी कलात्मक चुनौती थी जिसे अरविंद गौड़ पूरी कला-कुशलता के साथ स्वीकार करते हैं. यह नाटक ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के संवाद का है, एक प्रकार से ऐतिहासिक है लेकिन इसमें प्रयुक्त जनसंघर्षों के गीत और कविताएं बार-बार इसे वर्तमान में ले आती हैं. निर्देशकीय खूबी यह है कि जाति, संप्रदाय, धर्म व लिंग का सवाल ऐतिहासिक होते हुए भी सिर्फ इतिहास का नहीं रह जाता. और तब यह अंबेडकर और गांधी के बीच का बहस या संवाद नहीं रह जाता बल्कि भारतीय अवाम और सत्ता के बीच का संवाद और संघर्ष बन कर उभरता है. किसी विचार को पेंटिंग या कविता की तरह रंगमंच पर कैसे अलंकृत किया जा सकता है अरविंद गौड़ की यह प्रस्तुति हमें इसी रंगप्रयास से परिचित कराती है.

- अश्विनी कुमार पंकज

Friday, March 2, 2012

महिलाओं की ताकत की परिचायक 'बहलोल' परम्परा


भूख और बदहाली के कारण महाराष्ट्र के विदर्भ जैसी पहचान बना चुके बुंदेलखण्ड में लोक कला और सदियों पुरानी परम्पराएं अब भी जीवित हैं.

इन्हीं में से एक है 'बहलोल' परम्परा, जो शादी-ब्याह के मौके पर वर पक्ष की महिलाओं से सम्बंधित है. इस परम्परा के जरिए महिलाएं अपनी ताकत का एहसास कराती हैं.

वर पक्ष के लोग जब दुल्हन के यहां बारात लेकर जाते हैं, उस समय यह परम्पर खास तौर पर निभाई जाती है. अधिकतर पुरुषों के बारात में चले जाने की वजह से केवल महिलाएं ही घरों में रह जाती हैं. ऐसे में घर की सुरक्षा से लेकर अपनी सुरक्षा तक का दारोमदार खुद उनके कंधों पर होता है. इस परम्परा के तहत महिलाएं रातभर जागकर घरों की व अपनी हिफाजत करती हैं और नाटकों के जरिए अपनी ताकत का एहसास भी कराती हैं.

कुछ दशकों पहले तक ज्यादातर बारात दुल्हन के यहां तीन दिनों तक ठहरती थी जिसे देखते हुए वर पक्ष के यहां इस परम्परा की शुरुआत हुई. अब हालांकि बारात इतने दिनों तक नहीं रुकती, लेकिन परम्परा अब भी कायम है. बांदा जनपद के नादनमऊ गांव की बुजुर्ग महिला सुखरनिया के मुताबिक, "बहलोल में महिलाओं द्वारा रतजगा कर ढोलक, झांझ व मजीरे की धुन पर बुंदेली लोक-संगीत के साथ नाटक भी किया जाता है. दो गुटों में बंटी महिलाओं का एक गुट मर्दाना वेशभूषा धारण करता है. चोर-सिपाही के नाटक में महिलाएं अपनी ताकत का एहसास भी कराती हैं."

उन्होंने बताया, "बहलोल का प्रहसन पुरुष वर्ग के लिए प्रतिबंधित है. यदि कोई पुरुष चोरी-छिपे भी देखते या सुनते पकड़ा जाता है तो उसे कोड़ों और लाठियों की मार से बेदम करने की सजा भी महिलाएं ही देती हैं." इसी गांव की फूलकुमारी ने बताया कि लाठी-डंडों के साथ महिलाएं मुहल्लों में गश्त भी करती हैं.

कांग्रेस की टिकट पर मऊ-मानिकपुर सीट से चुनाव लड़ रहीं गुलाबी गैंग की कमांडर सम्पत पाल ने भी इस बारे में अपने अनुभव बांटे. उन्होंने कहा, "बचपन में मां के साथ बहलोल देखती रही. वहीं से मुझे अंधेरी रात में निभाई जाने वाली इस परम्परा को असल जिंदगी में उतारने की प्रेरणा मिली. इसके बाद ही मैंने गुलाबी गैंग का गठन किया और महिलाओं की सुरक्षा के लिए सड़कों पर संघर्ष शुरू कर दिया."

(समयलाइव से साभार)

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