RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Friday, April 13, 2012

बहुजन साहित्य ओ.बी.सी, दलित, आदिवासी और स्त्री-इन चारों का समुच्चय है



‘बहुजन साहित्य ओ.बी.सी, दलित, आदिवासी और स्त्री-इन चारों का समुच्चय है। जिस प्रकार भक्ति काव्य में संतकाव्य परंपरा,सूफी काव्य परंपरा, रामकाव्य परंपरा और कृष्ण काव्य परंपरा मिलकर उसका एक चरित्र गढ़ती है वही स्थिति बहुजन साहित्य के संदर्भ में उपरोक्त चार धाराओं के सम्मिश्रण से पैदा होती दिखलायी पड़ती है।’ उक्त बातें आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ सभागार में कही। उन्होंने ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा आयोजित ‘फूले का जश्न, रेणु की याद, क्या है बहुजन साहित्य’ गोष्ठी में यह बात कही।

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस चर्चा के बैकग्राउंड के रूप में इतिहास, भाषा और हिंदी शब्द कोश की एकांगी सोच से जुड़े सवालों को बड़े तार्किक ढंग से उठाया। कहा कि हिंदी साहित्य, भाषा और इसकी संस्कृति के जनतांत्रिकरण की जरूरत है। उन्होंने रामचंद्र वर्मा, मुकंुदीलाल श्रीवास्तव और हरदेव बाहरी जैसे शब्द कोश निर्माताओं का जिक्र किया और बतलाया कि ये सभी कोशकार काशी और इलाहाबाद के रहे हैं। इनकी अपनी स्पष्ट सीमाएं यह है कि इनमें आपको उनके इलाकों के शब्द भंडार तो बहुत मिलेंगे लेकिन भारत के अन्य हिस्सों की देश शब्द संपदा आप वहां नहीं पाएंगे। यह कोशों पर पूर्वी प्रांतों के वर्चस्व का नमूना है।

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि हिंदी कोशों पर 10 देवी देवताओं का कब्जा है। वहां 3411 शब्द शंकर के पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार विष्णु के लिए 1676, काली के लिए 900, कृष्ण के लिए 451 पर्यायवाची हैं। देवताओं के लिए कोशकारों ने इतने शब्द पर्यायवाची के इजाद कर लिए लेकिन उंट जो किसी स्थान विशेष के लिए इतनी उपयोगी है उसके लिए आपको कोशों में क्यों नहीं पर्यायवाची शब्द मिलते? इसी प्रकार आप देखें किसान-मजदूर, मीडिया और इंटरनेट से जुड़े शब्द की स्थिति वहां आप नहीं पाएंगे। इसी प्रकार पिछडी़ और दलित कम्यूनिटी से जुड़े शब्द यहां कम आपको दिखेंगे। इसके पीछे ब्राह्मणवाद काम करता रहा है। हमारे यहां के कोशकारों का इस संबंध में यह तर्क था कि इन पिछड़ों का शब्द हम लेंगे तो हमारी भाषा खराब हो जाएगी। उन्होंने कहा कि हमारा हिंदी व्याकरण ही कुछ इस तरह से निर्मित हुआ कि वहां समतामूलक समाज न बने इसके लिए पहले से ही कई तरह की विभेदक रेखाएं खींच दी गई। एक की वाक्य को उंच-नीच, बराबरी-गैरबराबरी के लिए कई तरह से व्यहृत किया गया। यह हिंदी में स्त्रीलिंग पुल्लिंग विन्यास का खेल देखिये। जितनी मुलायम, कमजोर एवं नाजुक चीजें हैं कोशकारों ने उसे पुल्लिंग बना दिया। और जितनी ताकतवर हैं उसे स्त्रीलिंग। भला आप ही बतायें सरकार को स्त्रीलिंग बतलाने का क्या औचित्य क्या वह कमजोर होती है। सरकार का मतलब ही ताकत होता है। ये हास्यापद चीजें हैं जिस पर विचार होना चाहिए। राजंेद्र प्रसाद ने माना कि हिंदी कोशों की तरह ही हिंदी आलोचना में प्रांतवाद का बोलबाला रहा। रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने यूपी का पक्ष लिया। हिंदी में छायावाद से लेकर नयी कहानी आंदोलन तक में एक ब्राह्मणवाद सिस्टम की तर्ज पर ‘त्रयी’ खड़ी की गई जिसमें दो ब्राह्मण के साथ एक अवर्ण को जोड़ दिया गया। क्या यह ब्राह्मणवादी सिस्टम को स्थापित नहीं करता? यह त्रयी किसका औजार है?

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि वर्ग संघर्ष से अलग जाति संघर्ष के आयने में बहुजन साहित्य अपनी दिशा तय करेगा। उन्होंने कहा कि फ्रायड ने यौन कुंठा की बात कही थी उससे काम नहीं चलेगा यहां तो लोगांे में जातीय कुंठा है इससे लोग बुरी तरह आक्रांत हैं।

फारवर्ड प्रेस के अंग्रेजी संपादक आयवन कोस्का ने लेखक और आंदोलनकारी-दोनों रूपों में महात्मा ज्योतिबा फूले की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि फूले ने ‘गुलामगिरी’ के माध्यम से भारत में नवजागरण का शंखनाद किया। वे जितने बड़े समाज सुधारक थे उतने ही बड़े दार्शनिक और चिंतक भी। उन्होंने कहा कि इस दंपति ने स्त्री शिक्षा के लिए जो काम किया वह मील का पत्थर कही जा सकती है। उन्होंने कहा कि फूले साहब की पत्नी सावित्रीबाई फूले भारत के आधुनिक कवियों में थीं। उन्होंने उनकी कविता ‘अंग्रेजी मां’ का एक टुकड़ा पेश कियाः ‘‘हमारी रगांे में सच्चा भारतीय खून है/उंचे स्वर में चिल्लाओ! और चीखो!/ अंग्रेजी मां आ गई है।’’ कोस्का साहब ने अंग्रेजी में ही अपना वक्तव्य रखा। कहा कि मैं मुम्बई का हूं। साठ वर्ष का हूं। 30 साल कनाडा का नागरिक रहा। लेकिन मेरी आत्मा भारत में निवास करती है।

कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु 20 वीं शताब्दी के कुछ महान कथाकारों में एक हैं लेकिन उनके जीवन और लेखन में बड़ा गैप्प है। वे ब्राह्मण विरोधी थे ही नहीं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने प्रशांत के रूप में खुद को बतलाया है। दिवाकर ने कहा कि यह देश मूर्तिपूजक है। यहां कुछ भी कहना खुद को संकट में डालना है बावजूद इसके मैेंने अपने घर में एक मात्र मूर्ति रेणु का ही टांगा है। दिवाकर ने कहा कि वे ज्योतिबा फूले को इस देश में परिवर्तन लाना वाला बहुत बड़ा आडियोलाग मानते हैं। उन्होनंे ब्राह्मणवाद पर अपनी कृति ‘गुलामगिरी’ में जर्बदस्त ढंग से प्रहार किया है। दिवाकर ने दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की चर्चा की और बतलाया कि उसमें फूले के बारे में कोई चर्चा तक का नहीं होना बतलाता है कि दिनकर भी कहीं-न-कहीं चूक रहे थे। दिवाकर ने माना कि भारतीय साहित्य पर फूले के विचारों का गहरा असर पड़ा है उन्होंने इस संबंध में मलखान सिंह की एक कविता पढ़ी और बतलाया कि क्या फूले के बगैर ऐसी कविताएं लिखी जा सकती थीं?

राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक प्रो. रामबुझावन सिंह ने रेणु से जुड़े कुछ अनुभव साझा किये और कहा कि रेणु के मूल्यांकन के लिए पैरलल नजर चाहिये क्योंकि हिंदी रचनात्मकता में वे एक पर्वत के समान हैं। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि आज तक रेणु को ठीक से समझा नहीं गया। कवि आलोकधन्वा ने कहा कि रेणु से उनका संबंध कुछ इस किस्म का था कि उसमें बहस के लिए कोई गुंजायश न थी। उन्होेंने कभी मुझको ‘तुम’ नहीं कहा हमेषा ‘आप’ कहकर ही पुकारा। रेणु के लेखन की चर्चा करते हुए आलोक ने कहा कि समन्वय उनके लेखन का सबसे ताकतवर पक्ष है। इस संदर्भ में उनके कंटेंट की स्थानीयता की चर्चा करते हुए उन्होंने रूसी लेखक शोलाखोव की ‘धीरे वहो दोन रे’ की भी चर्चा की। आलोक ने कहा कि आज एक कम्यूनल, जातिवादी और एक क्रूर हिंसक समाज सामने आया है आपसे आग्रह है कृप्या आप इससे बचिये। द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 करोड़ लोग मारे गए। आलोक ने तरह-तरह के विमर्शों में एकता ढूंढने की बात की और जातिवाद से उपर उठने पर बल दिया। आलोक ने कहा कि अगर हम मार्गेन, आइंस्टाइन, डार्बिन और लिंकन को नहीं जानते तो एक सच्चे मनुष्य होने का दावा भला कैसे कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि फूले से लेकर लोहिया तक ने जाति तोड़ने पर बल दिया। जाति की क्रूर नृशंसता पर लोहिया ने जर्बदस्त तरीके से चोट किया।

आलोकधन्वा ने अपने आरंभिक वक्तव्य में जाति से संदर्भित एक घटना की चर्चा की तो गोष्ठी में आये श्रीकांत व्यास और हरेंद्र विद्यार्थी उन पर आक्रोशित हो उठे। देर तक गोष्ठी में अफरा-तफरी मची रही। मामला समझ में नहीं आया कि अचानक हो क्या गया। विरोध करने वाले का कहना था कि आलोक पटना के एक वरिष्ठ कवि की बेटी के भागने का संदर्भ इससे पहले भी तीन-चार सार्वजनिक मंचों पर कह चुके हैं उन्हेें ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए। आलोकधन्वा ने इस संबंध में बड़ी शालीनता बरती लेकिन उनके कुछ बिरादर अनुयायिओं ने कई तरह से अपना गुस्सा प्रकट किया। उसमें डेमोक्रेसी की न्यूनतम विनम्रता भी न थी और आलोक के प्रति गिरोहबंदी का चरम दिख रहा था।

धन्यवाद ज्ञापन अस्पायर प्रकाशन की चेअर डा. सिल्विया फर्नाडीस ने किया। उन्होंने अपने वक्तव्य अंग्रेजी में ही दिए। समारोह के आरंभ में वरिष्ठ कथाकार मधुकर सिंह को आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन ने संयुक्त रूप से शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया।

- पटना से अरुण नारायण की रपट

Saturday, April 7, 2012

थिएटर मन से होता है...


प्रोबिर गुहा देश के जानेमाने रंगकर्मी हैं. मेहनती हैं. ईमानदार हैं. अपने काम में माहिर हैं. जमीन से जुड़े हुए हैं. जिन्दादिल इनसान हैं. पश्चिम बंगाल से संबंध रखने वाले प्रोबिर गुहा द्वारा निर्देशित एक प्ले “बिशादकाल” देखकर अभी-अभी लौटा हूं. रात के बारह बज रहे हैं. शाम पांच बजे निकल गया था. क्योंकि मंचन का समय शाम सात बजे का था. लेकिन नाटक शुरू हुआ नौ बजे. बिशादकाल नाटक गुरु रविन्द्र नाथ टैगोर की कहानी “बिसर्जन” पे आधारित है. नाटक एक घंटे पैंतालिस मिनट का था. लेकिन देरी की वजह से इसे कांट-छांट के मात्र पैंतालिस मिनट का बना दिया गया. प्रोबिर दा ने और उनके कलाकारों ने मेरे सामने हीं. मंचन स्थल के बाहर. खड़े-खड़े. बीड़ी और सिगरेट पीते-पीते, एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से एक घंटा निकाल दिया. मैं वहीं खड़ा था. लेकिन कुछ समझ नहीं पा रहा था कि हो क्या रहा है? क्योंकि रंगकर्मी आपस में बंग्ला में बतिया रहे थे. थोड़ी देर बाद प्रोबिर दा ने बताया कि नाटक को काट के छोटा कर दिया है. मैंने पुछा, कब दादा?(क्यों काटा?-असल सवाल तो यह होना चाहिए था लेकिन मुझे पता था कि समय की कमी हो रही है. आपको भी ऊपर ही बता दिया गया है.) प्रोबिर दादा ने जवाब में कहा, “अभी–अभी तो. यहीं, तुम्हारे सामने. तुम बंग्ला बिल्कुल नहीं समझते क्या?” मैंने “ना” में मुंडी हिला दी.

एक घंटे पैंतालिस मिनट के नाटक में से बचे हुए पैंतालिस मिनट के नाटक का मंचन शुरु हुआ. जिन कलाकारों को बाहर एक लाईन हिन्दी बोलने में भी दिक्कत हो रही थी वो मंच पे हिंदी के डॉयलॉग बहुत आसानी से बोल रहे थे. पूरे भावभंगिमा के साथ बोल रहे थे. उनका अभिनय, दर्शक को अभिनय नहीं लग रहा था. दर्शकदिर्धा में मानों सांप सुंघ गया था. कोई चूं-चां तक की आवाज नहीं आ रही थी.

नाटक में एक जगह , काली पूजा के दौरान जानवर की बलि देने का सीन है- मंच पे हल्की नीली रौशनी है. नगाड़े की आवाज गुंज रही है. पृष्ठभूमि से जय मां काली, जय मां काली, जय-जय मां काली, जय-जय मां काली की आवाज बुलंद हैं. मंच पे आगे की तरफ , तीन लड़कियां अपने-अपने केश खोले हुए, जमीन पर बैठीं हैं. गर्दन को गोल-गोल घुमा रही हैं. ठीक वैसे हीं जैसे बिहार में भुतखेली के समय कुछ महिलाएं अपनी गर्दन को घुमाती हैं.
नगाड़ा बज रहा है…बजता जा रहा है. जय-जय मां…की आवाज बुलंद हो रही है. लड़कियां लगातार गर्दन को घुमाए जा रही हैं. उनके लंबे –लबें काले केश भी उलझते-सुलझते गोल-गोल घुम रहे हैं. इसके बीच जानवर की बलि पड़ती है. मंच पे खुन आ जाता है. प्ले के हिंसाब से लाईट भी नहीं है. फ्लैट लाईट है. एक ही जैसा. फिर भी इस द्र्श्य को देखने के बाद मेरे रोएं सिहर गए. मेरे बगल में खड़े एक सीनियर फोटोग्राफर कृष्णमुरारी किशन बोल पड़े-गजब . (कृष्णमुरारी का जिक्र इसलिए कि मैंने आज तक. एक साल में उन्हें किसी प्रोग्राम के बारे में कुछ कहते नहीं सुना. वो आते हैं फोटो करते हैं और निकल जाते हैं.)
जानवर–बलि जैसे और भी बहुत से सीन थे उस नाटक में जिसे मंच पे उतारते समय कलाकार जी रहे थे. और जिसे देखते हुए दर्शक चुप्पी मारे बैठे थे.



प्ले खत्म हुआ. मैं बाहर निकलते समय यही सोंच रहा था कि पटना के रंगकर्मियों को. नाटक के निर्देशकों को और थिएटर कलाकारों को इस प्ले को देखना चाहिए था. लेकिन मेरा विश्वास है कि पटना के रंगकर्म से जुड़ा एक भी आदमी इसमे नहीं रहा होगा. अगर कोई रहा होगा तो उसे रातभर नींद नहीं आएगी. उसे पता चल जाएगा कि थिएटर मन से होता है. दिमाग से नहीं.

यह भी समझ आ जाएगा कि दमदार अभिनय, धाकर लेकिन आसानी से समझ आने लायक डॉयलॉग और सुलझे हुए निर्देशन से ही एक सुन्दर मंचन होता है.

- विकास कुमार (बतकही ब्लॉग से साभार)

रंगमंच के जरिये दर्शकों को देती हूं सीख: इरम खान


कभी तेज तर्रार बहू तो कभी उमराव जान के किरदार की तैयारी. बचपन से ही कलाकार बनने का सपना देखा करती थी.
नवाबी शहर लखनऊ के एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी इरम खान समाज को नई दिशा देने का बीड़ा उठाते हुए रंगमंच के माध्यम से एक्टिंग के क्षेत्र में उतरी. इरम बताती हैं कि मुझे बचपन से ही एक्टिंग का बहुत शौक था. जब मैं 5वीं क्लास में थी तभी मैंने स्कूल से ही नाटकों में भाग लेना शुरु कर दिया. तभी मैने अपने अन्दर के कलाकार को पहचाना और दिल में रंगमंच पर उतरने की मन में ठान ली.


2010 में आकांक्षा थियेटर संस्था से जुड़ी रंगमंची इरम खान ने एक मुलाकात में बताया कि मेरा पहला नाटक 'पंच परमेश्वर' हुआ. इस नाटक का उद्देश्य दर्शकों को बताना था कि मित्रता से बढ़कर न्याय है. इस नाटक में मैंने समझू साहू की पत्नी सह आईना का किरदार निभाया. जो कि अवधी भाषा में दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया.

अपना कौन सा नाटक दोहराना चाहती है.

वैसे तो मेरे सारे ही नाटक बहुत अच्छे है. पर मै ”बेटों वाली विधवा“ दोहराना चाहूँगी.

क्या कोई हास्य नाटक किया है.

हां मेरा हास्य नाटक बल्लभपुर की रूपकथा बाल्मीकि रंगशाला उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी परिसर, गोमती नगर लखनऊ में हुआ था. इसमें एक भुतहा हवेली की कहानी थी जो एक छंदा साबुन की फैक्ट्री के मालिक खरीदना चाहते थे. उसमें मैने साबुन फैक्ट्री के मालिक की बेटी वृंदा का किरदार निभाया था.

मंत्र नाटक में क्या किरदार निभाया था.

मंत्र में मैने डाक्टर चढढा के बेटे कैलाश की होने वाली पत्नी मृणालिनी की भूमिका निभाई है. मुंशी प्रेमचन्द्र ने उच्च वर्गीय समाज के डाक्टरों के लिए कटाक्ष किया है. उन्होंने दर्शाया है कि भगवान का न्याय सबके लिए समान है. इंसान को कभी इंसानियत से नहीं हटना चाहिए. मंत्र नाटक ने समाज को एक अच्छा संदेश दिया है.

”बेटो वाली विधवा“ में दर्शकों को क्या सीख मिली.

दर्शको को इस नाटक से बेहतर संदेश मिला है कि एक मां-बाप अपने चार-चार बेटों को पालते है. वहीं बेटे बड़े होकर अपनी विधवा मां को बोझ समझने लगते है. इस नाटक में मैने एक तेज-तर्रार बड़ी बहू का किरदार निभाया था जो अपनी सास को बहुत तंग करती है.

अगर रंगमंच कलाकार न होती तो क्या बनना चाहती.

अगर मैं रंगमंच कलाकार न होती तो मै पुलिस इंस्पेक्टर जरूर होती. और समाज कीर सेवा करती और महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को जड़ से खत्म करने की कोशिश करती.

समाज के लिए क्या करना चाहेंगी.

मैं एक बालिका कालेज खोलना चाहूंगी जिससे गरीब बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा, हास्टल सुविधा और जितनी सुख सुविधाएं है उन्हे मिल सके ऐसा जरूर चाहूंगी.

न्यू जेनरेशन के लिये

हमेशा अपनी सोच पाजिटिव रखनी चाहिए. जिन्दगी बहुत खूबसूरत है बस उसके लिए खूबसूरत नजरिए की जरूरत होती है. यह आज की जेनरेशन के दिमाग में डालने की जरूरत है. काम बहुत है... अवसर बहुत है. बस जरूरत है सही रास्ते को चुनकर आगे बढ़ने की. और न्यू जेनरेशन से यही कहना चाहूंगी जो किसी शायर ने कहा है.

परों को खोल जमाना उड़ान देखता है.
जमीं पर बैठकर क्या आसमान देखता है.

सभी अभिभावकों को क्या संदेश देना चाहते है.

मैं अभिभावकों से बस यही कहूंगी कि वो ये देखे कि बच्चे को किस चीज में रूचि है. वो क्या करना चाहता है. उसे वही करने दे, जबरदस्ती वो काम करने को न कहे जो वो न करना चाहते हो. मेरी मां ने भी मेरी एक्टिंग में रूचि देखकर मुझे कभी नहीं रोका. वह हमेशा आगे बढ़ने के लिए हमारी प्रेरणा स्रोत रही.

पढ़ने वाले बच्चों के लिए मनोरंजन के साधन को कैसा मानेंगी? सही या गलत.

मैं मनोरंजन को गलत नहीं बल्कि सही मानूंगी क्योंकि बच्चों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ मनोरंजन और खेलकूद बहुत जरूरी है. टेलीविजन तो बहुत अच्छा साधन है मनोरंजन का.

पसंदीदा टीवी सीरियल कौन सा है.

वैसे तो सारे ही सीरियल्स बहुत ही अच्छे है पर मेरा पसंदीदा सीरियल सहारा वन का "सितारों का आंगन होगा". जोकि मै रोज देखती हूं. इसके अलावा ”प्रतिज्ञा“ है. इससे न्यू जेनरेशन की सोच बदली है और हर लड़की किसी से पीछे नहीं रहना चाहती बल्कि हर परिस्थिति का सामना करना सीख रही है.

आने वाले नाटक के बारे में कुछ कहना चाहेंगी.

अभी मैं फिलहाल अपने आने वाले नाटक ”उमराव जान अदा“ की रिहर्सल कर रही हूं जिसमें मैने ”उमराव जान“ का किरदार निभा रही हूं. जो कि अप्रैल में लखनऊ के राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह में होगा.

(समयलाइव से साभार)

Tuesday, April 3, 2012

जीवन के नैसर्गिक संगीत पर हावी होता मशीनी शोर


प्रकृति और इंसान का संघर्ष उतना ही पुराना है जितना कि इंसान. विकास की समूची इंसानी यात्रा प्रकृति से भिड़ते हुए, उससे सामंजस्य बिठाते और इससे भी आगे बढ़कर उसका दोहन करने का रहा है. चांद और मंगल तक पहुंचने के बाद अक्सर इंसान को लगता रहा है कि उसने प्रकृति को पछाड़ दिया है और वह प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ जैसा चाहे सलूक कर सकता है. पूंजीवादी विकास के मॉडल ने इंसानी समाज को लगभग मोहांध बना दिया है और हम प्रकृति के प्रतिकार को समझ नहीं पा रहे हैं. आदिवासी समाज ने इस प्रतिकार को संभवतः मोहनजोदाड़ो या सिंधु नदी घाटी सभ्यता के समय ही अनुभव कर लिया था जब प्रकृति के अत्याधिक दोहन के फलस्वरूप भयानक प्राकृतिक आपदा आई थी और पूरी सभ्यता नष्ट हो गई थी. बावजूद इसके आदिवासियों के बाद विकसित हुआ नागर समाज इस सच को समझने के लिए तैयार नहीं है और भौतिक जीवन की अतिरिक्त विलासिता भरी जिंदगी के लिए लगातार प्रकृति, पर्यावरण और जीवन के खात्मे के लिए प्रयासरत है. स्पेस थिएटर, गोवा की संवादरहित सांगीतिक रंगप्रस्तुति ‘क्रियेचर्स ऑफ द अर्थः द लिजेंड ऑफ पैकाची जोर’ एक आदिवासी मिथक के सहारे आज की इसी पूंजीवादी दोहन और लूट पर चोट करता है.

गोवा के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट हर्ट्मैन डिसूजा द्वारा कोरियोग्राफ्ड और निर्देशित किया गया यह डांसड्रामा बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हमारी इस दुनिया को किस तरह से अकाल मौत की ओर ले जा रहा है. स्टीव सिक्वेरा द्वारा रचे गए संगीत पर एंड्रे परेरा, स्टीफी मदुरेल और टेरेंस जॉर्ज की देहगतियां व मुद्राएं प्रकृति और पर्यावरण के, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के, जंगल और पहाड़ के, झरनों ओर नदियों के लयात्मक नैसर्गिक जीवन को दृश्य-दर-दृश्य खूबसूरती से मंच पर उपस्थित करते हुए दर्शकों को अचंभित करते हैं. आनंदित करते हैं. फिर सुनाई पड़ती है आनंद में खलल डालती ध्वनियां. प्रकृति, पर्यावरण और आज के जीवन को ध्वस्त करता हुआ बड़े-बड़े डम्परों और खनन मशीनों का भयावह शोर. मंच पर दिखता है बदलती हुई देहभाषा. प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करते हुए लोलुप चेहरे. लूट और लालच की जानवर जैसी भंगिमाएं. फिर धीरे-धीरे सबकुछ नष्ट होता चला जाता है.

रांची में 26 से 28 मार्च 2012 तक आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह की यह अंतिम प्रस्तुति थी. 37 मिनट की यह संवादरहित सांगीतिक प्रस्तुति रांची के दर्शकों के लिए उनका अपना अनुभव था. यही वजह है कि कई बार संगीत और दृश्यों की एकरसता के बावजूद न तो वे ऊब रहे थे और न ही आश्चर्य से उनकी आंखें फटी जा रही थीं. अमूर्त प्रस्तुति के बावजूद इसके बिंब और दृश्यों से वे भलीभांति परिचित थे. जल, जंगल और जमीन के लूट और दोहन की यह प्रस्तुति उनकी अपनी ही कलात्मक अभिव्यक्ति थी जिसे मंच पर गोवा के कलाकार उकेर रहे थे जबकि वास्तविक जीवन में इसे भोग रहे हैं.

- अश्विनी कुमार पंकज

राजकीय हिंसा से जवाब मांगता ‘ब्लैक आर्किड’


रांची में हुए दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन 27 मार्च को सबसे पहला नाटक मणिपुर का खेला गया. बुद्ध चिगताम की कहानी पर तोइजाम शिला देवी द्वारा निर्देशित नाटक ‘ब्लैक आर्किड’. शिला रानावि की स्नातक हैं और उनके रंगकर्म पर रानावि की शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा. लेकिन पूरी समग्रता में उनका यह नाटक रानावि की यांत्रिक शैली को नकारते हुए एक मौलिक देशज रंगभाषा गढ़ने की कोशिश करता है. जिस रंगभाषा में पूर्वोत्तर की आदिवासी संस्कृति और परिवेश आधुनिक जीवनदृष्टि के साथ संवाद, मुठभेड़ और साझेदारी करती रहती है. संगीत, प्रकाश, वेशभूषा और अन्य मंचीय उपकरणों के सहारे शिला अपने इस रंगमंचीय प्रस्तुति में राजकीय हिंसा से जूझते मणिपुर ही नहीं वरन् भारत के समस्त आदिवासी समुदायों की पीड़ा को मार्मिक दृश्यों के साथ सजीव बनाती हैं. भारत के दलित-आदिवासी व अन्य उत्पीड़ित समुदायों के राजकीय शोषण पर लिखे और मंचित किये गए अनेक रंगप्रस्तुतियों में शोषितों का प्रतिकार बहुधा आरोपित ढंग से और एक स्थूल विचार के रूप में सामने आता है. परंतु ‘ब्लैक आर्किड’ आदिवासियों के गुस्से और प्रतिकार को उसी सहजता के साथ प्रस्तुत करता है जैसा कि आदिवासी समाज की मूल प्रवृत्ति रही है. वह ‘नागर’ समाज की तरह प्रतिहिंसा में विश्वास नहीं करता और न ही बहुत ‘लाउड’ तरीके से ‘रिएक्ट’ करता है. ‘ब्लैक आर्किड’ तथाकथित मुख्यधारा के रंगंमंचीय प्रतीकों और बुनावट को अपने आदिवासीपन के साथ विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करता है और अपनी स्वतंत्र जातीय चेतना के अनुरूप एक नई रंगभाषा की सृष्टि करता है.

तोइजाम शीला देवी
रानावि की स्नातक और प्राचीन भारतीय इतिहास में एम.ए. करने वाली तोइजाम शीला देवी मणिपुर की रहनेवाली हैं। उनका सपना एक एथलीट बनने का था। लेकिन विश्वविद्यालय के नाटक ‘मां’ में अभिनय करने के बाद वे पूर्णतः रंगमंच के लिए समर्पित हो र्गइं। 1997 में उन्होंने मणिपुर में ‘द प्रोस्पेक्टिव रेपर्टरी’ की स्थापना की और अब तक कई नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन-निर्देशन कर चुकी हैं। उनके नाटकों में डेविड सेलबर्न का ‘एसिन मेरिस फगन’, धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’, श्रीरंग गोड़बोले का ‘पर हमें खेलना है’, स्वयं का ‘गुरिल्ला’ और बुद्धा चिगतम का ‘ब्लैक ऑर्किड’ प्रमुख हैं।

अपने पहले नाटक के अनुभव के बारे में वे कहती हैं, ‘नाटक ‘मां’ में मैं उस घटना को फिर से पुनर्सृजित कर रही थी, जो एक निर्मम रात को मेरे घर के सामने से गुजरने वाले मणिपुर-मिजोरम राजमार्ग पर हुआ था। उस क्षण को तो मैं कदापि नहीं भूल सकती, जब मां गोलियों से छलनी अपने बेटे की लाश देख कर विलाप करती है। नाटक इसी विलाप के साथ खत्म होता है और उसके बाद जो चुप्पी रह जाती है, वह आपको बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है। सचमुच थिएटर में बहुत ताकत है।’

शीला को अपनी आदिवासी पहचान पर बहुत गर्व है और उसे लेकर वह संवेदनशील भी हैं। वह विनम्र अंदाज में प्रासंगिक सवाल करती हैं, ‘इतिहास में मणिपुर कहां है? समूचा भारतीय इतिहास ढूंढ मारा, पर मुझे अपने प्रदेश का जिक्र कहीं नहीं मिला। इसीलिए इसके जवाब में अब मैंने ‘प्राचीन भारत में मणिपुर’ को मुख्य मुद्दा बना लिया है और इसी एक बिंदु पर मेरा पूरा जोर रहता है।’

मणिपुर के रंगमंच पर निर्देशन के क्षेत्र में फिलहाल शीला और उनकी सीनियर सनाबम थनिनलेइमा (रानावि स्नातक) के अलावा दो और नई स्त्री प्रतिभाएं रांधोनी व सबिता ही सक्रिय हैं। अपने थिएटर के बारे में शीला कहती हैं, ‘यह सवाल आपके सामने हमेशा मौजूद रहता है कि आप रंगमंच पर ऐसा क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं जो आपके पास नहीं है।’

- अश्विनी कुमार पंकज

Monday, April 2, 2012

विचारों की रंगमंचीय पेंटिंग है अंबेडकर और गांधी


राजेश कुमार के नाटक मोर्चा लगाते रहे हैं तो अरविंद गौड़ की रंगप्रस्तुतियां इस मोर्चे पर साहस के साथ डटी रहती हैं. ये दोनों ही हमारे समय के राजनीतिक रंगशख्सियत हैं जो बेबाकी के साथ अवाम की छटपटाहट और उसके संघर्ष को रंगमंच पर पुरजोर तरीके से रचते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजेश कुमार के नाट्यालेख स्थितियों को रखते हुए सिर्फ सवाल नहीं उठाते बल्कि संवाद और विमर्श के लिए दर्शकों को आमंत्रित भी करते हैं. उनका नाटक ‘अंबेडकर और गांधी’ भारत के एक ऐसे ऐतिहासिक सवाल पर संवाद के लिए हमें उकसाता है, जिसे सत्ता खुद को बचाए रखने के लिए हमेशा टालती आयी है. दलितों के संदर्भ में बीसवीं सदी के दो बड़े भारतीय नायकों की सामाजिक-राजनीतिक सोच और दृष्टि क्या थी और दोनों अपने-अपने तरीके से कैसे इससे जूझते हैं, यह नाटक बखूबी इसकी पड़ताल करता है. साथ ही यह भी बताता है कि दोनों के दृष्टिभेद को ‘विरोध’ के रूप में चित्रित करते हुए किस तरह इसे संवादहीनता में बदल दिया गया. अंबेडकर और गांधी के बीच असहमतियां थीं. विरोध भी थे. बावजूद इसके वे दोनों संवाद कर रहे थे. क्योंकि वे तानाशाह नहीं थे. आज के राजनीतिक समय में जबकि संवाद को राजनीतिक कार्रवाई नहीं माना जा रहा है और सत्ता व संघर्षशील ताकतें दोनों ही ‘युद्ध’ को प्राथमिकता दे रही हैं, अंबेडकर और गांधी जैसा नाटक लिखकर नाटककार राजेश कुमार संवाद जारी रखने का आग्रह तो कर ही रहे हैं संवादहीनता के फासीवादी चरित्र पर जबरदस्त प्रहार भी कर रहे हैं.

अस्मिता थिएटर समूह और अरविंद गौड़ की रंगकार्रवाइयां हमेशा राजनीतिक संवाद की अभिव्यक्ति बन कर दर्शकों के समक्ष आती रही हैं. अपनी रंगमंचीय प्रस्तुतियों से चाहे वे नुक्कड़ पर हो या प्रेक्षागृह में, अपने दर्शकों को वे लगातार राजनीतिक रूप से उत्तेजित करते रहे हैं. व्यवस्था के बीमार व्यवहार का वैचारिक रूप से उपचार करने के लिए. एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका पर विचार करने के लिए. अरविंद गौड़ द्वारा निर्देशित ‘अंबेडकर और गांधी’ उनकी इसी सचेतन रंगकार्रवाई की प्रभावी प्रस्तुति है जिसे 27 मार्च को रांची में आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन देखने का मौका मिला.

विचारों की सबसे कलात्मक प्रस्तुति हम पेंटिंग और कविता में देखते हैं. विचार एक गतिशील प्रक्रिया है जो पहली नजर में सहज-सी नहीं दिखती. सरलता से समझ में नहीं आती. विचार में कहानी भी नहीं होता. ऐसे में ‘अंबेडकर और गांधी’ जिसमें कि कोई कथा-सूत्र नहीं है, चिर-परिचित कथा संरचना नहीं है - महज विचार और द्वंद्व है, दो व्यक्तित्वों की मनोजटिलताएं हैं, मष्तिष्क में लगातार बनती-बिगड़ती हुई अदृश्य आकृतियां हैं - को रंगमंचीय सौंदर्य और अर्थ के साथ रचना निःसंदेह एक बड़ी कलात्मक चुनौती थी जिसे अरविंद गौड़ पूरी कला-कुशलता के साथ स्वीकार करते हैं. यह नाटक ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के संवाद का है, एक प्रकार से ऐतिहासिक है लेकिन इसमें प्रयुक्त जनसंघर्षों के गीत और कविताएं बार-बार इसे वर्तमान में ले आती हैं. निर्देशकीय खूबी यह है कि जाति, संप्रदाय, धर्म व लिंग का सवाल ऐतिहासिक होते हुए भी सिर्फ इतिहास का नहीं रह जाता. और तब यह अंबेडकर और गांधी के बीच का बहस या संवाद नहीं रह जाता बल्कि भारतीय अवाम और सत्ता के बीच का संवाद और संघर्ष बन कर उभरता है. किसी विचार को पेंटिंग या कविता की तरह रंगमंच पर कैसे अलंकृत किया जा सकता है अरविंद गौड़ की यह प्रस्तुति हमें इसी रंगप्रयास से परिचित कराती है.

- अश्विनी कुमार पंकज

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