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Monday, April 2, 2012

विचारों की रंगमंचीय पेंटिंग है अंबेडकर और गांधी


राजेश कुमार के नाटक मोर्चा लगाते रहे हैं तो अरविंद गौड़ की रंगप्रस्तुतियां इस मोर्चे पर साहस के साथ डटी रहती हैं. ये दोनों ही हमारे समय के राजनीतिक रंगशख्सियत हैं जो बेबाकी के साथ अवाम की छटपटाहट और उसके संघर्ष को रंगमंच पर पुरजोर तरीके से रचते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि राजेश कुमार के नाट्यालेख स्थितियों को रखते हुए सिर्फ सवाल नहीं उठाते बल्कि संवाद और विमर्श के लिए दर्शकों को आमंत्रित भी करते हैं. उनका नाटक ‘अंबेडकर और गांधी’ भारत के एक ऐसे ऐतिहासिक सवाल पर संवाद के लिए हमें उकसाता है, जिसे सत्ता खुद को बचाए रखने के लिए हमेशा टालती आयी है. दलितों के संदर्भ में बीसवीं सदी के दो बड़े भारतीय नायकों की सामाजिक-राजनीतिक सोच और दृष्टि क्या थी और दोनों अपने-अपने तरीके से कैसे इससे जूझते हैं, यह नाटक बखूबी इसकी पड़ताल करता है. साथ ही यह भी बताता है कि दोनों के दृष्टिभेद को ‘विरोध’ के रूप में चित्रित करते हुए किस तरह इसे संवादहीनता में बदल दिया गया. अंबेडकर और गांधी के बीच असहमतियां थीं. विरोध भी थे. बावजूद इसके वे दोनों संवाद कर रहे थे. क्योंकि वे तानाशाह नहीं थे. आज के राजनीतिक समय में जबकि संवाद को राजनीतिक कार्रवाई नहीं माना जा रहा है और सत्ता व संघर्षशील ताकतें दोनों ही ‘युद्ध’ को प्राथमिकता दे रही हैं, अंबेडकर और गांधी जैसा नाटक लिखकर नाटककार राजेश कुमार संवाद जारी रखने का आग्रह तो कर ही रहे हैं संवादहीनता के फासीवादी चरित्र पर जबरदस्त प्रहार भी कर रहे हैं.

अस्मिता थिएटर समूह और अरविंद गौड़ की रंगकार्रवाइयां हमेशा राजनीतिक संवाद की अभिव्यक्ति बन कर दर्शकों के समक्ष आती रही हैं. अपनी रंगमंचीय प्रस्तुतियों से चाहे वे नुक्कड़ पर हो या प्रेक्षागृह में, अपने दर्शकों को वे लगातार राजनीतिक रूप से उत्तेजित करते रहे हैं. व्यवस्था के बीमार व्यवहार का वैचारिक रूप से उपचार करने के लिए. एक नागरिक के रूप में अपनी भूमिका पर विचार करने के लिए. अरविंद गौड़ द्वारा निर्देशित ‘अंबेडकर और गांधी’ उनकी इसी सचेतन रंगकार्रवाई की प्रभावी प्रस्तुति है जिसे 27 मार्च को रांची में आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन देखने का मौका मिला.

विचारों की सबसे कलात्मक प्रस्तुति हम पेंटिंग और कविता में देखते हैं. विचार एक गतिशील प्रक्रिया है जो पहली नजर में सहज-सी नहीं दिखती. सरलता से समझ में नहीं आती. विचार में कहानी भी नहीं होता. ऐसे में ‘अंबेडकर और गांधी’ जिसमें कि कोई कथा-सूत्र नहीं है, चिर-परिचित कथा संरचना नहीं है - महज विचार और द्वंद्व है, दो व्यक्तित्वों की मनोजटिलताएं हैं, मष्तिष्क में लगातार बनती-बिगड़ती हुई अदृश्य आकृतियां हैं - को रंगमंचीय सौंदर्य और अर्थ के साथ रचना निःसंदेह एक बड़ी कलात्मक चुनौती थी जिसे अरविंद गौड़ पूरी कला-कुशलता के साथ स्वीकार करते हैं. यह नाटक ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के संवाद का है, एक प्रकार से ऐतिहासिक है लेकिन इसमें प्रयुक्त जनसंघर्षों के गीत और कविताएं बार-बार इसे वर्तमान में ले आती हैं. निर्देशकीय खूबी यह है कि जाति, संप्रदाय, धर्म व लिंग का सवाल ऐतिहासिक होते हुए भी सिर्फ इतिहास का नहीं रह जाता. और तब यह अंबेडकर और गांधी के बीच का बहस या संवाद नहीं रह जाता बल्कि भारतीय अवाम और सत्ता के बीच का संवाद और संघर्ष बन कर उभरता है. किसी विचार को पेंटिंग या कविता की तरह रंगमंच पर कैसे अलंकृत किया जा सकता है अरविंद गौड़ की यह प्रस्तुति हमें इसी रंगप्रयास से परिचित कराती है.

- अश्विनी कुमार पंकज

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