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Tuesday, April 3, 2012

राजकीय हिंसा से जवाब मांगता ‘ब्लैक आर्किड’


रांची में हुए दलित-आदिवासी नाट्य समारोह के दूसरे दिन 27 मार्च को सबसे पहला नाटक मणिपुर का खेला गया. बुद्ध चिगताम की कहानी पर तोइजाम शिला देवी द्वारा निर्देशित नाटक ‘ब्लैक आर्किड’. शिला रानावि की स्नातक हैं और उनके रंगकर्म पर रानावि की शैली का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ा. लेकिन पूरी समग्रता में उनका यह नाटक रानावि की यांत्रिक शैली को नकारते हुए एक मौलिक देशज रंगभाषा गढ़ने की कोशिश करता है. जिस रंगभाषा में पूर्वोत्तर की आदिवासी संस्कृति और परिवेश आधुनिक जीवनदृष्टि के साथ संवाद, मुठभेड़ और साझेदारी करती रहती है. संगीत, प्रकाश, वेशभूषा और अन्य मंचीय उपकरणों के सहारे शिला अपने इस रंगमंचीय प्रस्तुति में राजकीय हिंसा से जूझते मणिपुर ही नहीं वरन् भारत के समस्त आदिवासी समुदायों की पीड़ा को मार्मिक दृश्यों के साथ सजीव बनाती हैं. भारत के दलित-आदिवासी व अन्य उत्पीड़ित समुदायों के राजकीय शोषण पर लिखे और मंचित किये गए अनेक रंगप्रस्तुतियों में शोषितों का प्रतिकार बहुधा आरोपित ढंग से और एक स्थूल विचार के रूप में सामने आता है. परंतु ‘ब्लैक आर्किड’ आदिवासियों के गुस्से और प्रतिकार को उसी सहजता के साथ प्रस्तुत करता है जैसा कि आदिवासी समाज की मूल प्रवृत्ति रही है. वह ‘नागर’ समाज की तरह प्रतिहिंसा में विश्वास नहीं करता और न ही बहुत ‘लाउड’ तरीके से ‘रिएक्ट’ करता है. ‘ब्लैक आर्किड’ तथाकथित मुख्यधारा के रंगंमंचीय प्रतीकों और बुनावट को अपने आदिवासीपन के साथ विनम्रतापूर्वक अस्वीकार करता है और अपनी स्वतंत्र जातीय चेतना के अनुरूप एक नई रंगभाषा की सृष्टि करता है.

तोइजाम शीला देवी
रानावि की स्नातक और प्राचीन भारतीय इतिहास में एम.ए. करने वाली तोइजाम शीला देवी मणिपुर की रहनेवाली हैं। उनका सपना एक एथलीट बनने का था। लेकिन विश्वविद्यालय के नाटक ‘मां’ में अभिनय करने के बाद वे पूर्णतः रंगमंच के लिए समर्पित हो र्गइं। 1997 में उन्होंने मणिपुर में ‘द प्रोस्पेक्टिव रेपर्टरी’ की स्थापना की और अब तक कई नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन-निर्देशन कर चुकी हैं। उनके नाटकों में डेविड सेलबर्न का ‘एसिन मेरिस फगन’, धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’, श्रीरंग गोड़बोले का ‘पर हमें खेलना है’, स्वयं का ‘गुरिल्ला’ और बुद्धा चिगतम का ‘ब्लैक ऑर्किड’ प्रमुख हैं।

अपने पहले नाटक के अनुभव के बारे में वे कहती हैं, ‘नाटक ‘मां’ में मैं उस घटना को फिर से पुनर्सृजित कर रही थी, जो एक निर्मम रात को मेरे घर के सामने से गुजरने वाले मणिपुर-मिजोरम राजमार्ग पर हुआ था। उस क्षण को तो मैं कदापि नहीं भूल सकती, जब मां गोलियों से छलनी अपने बेटे की लाश देख कर विलाप करती है। नाटक इसी विलाप के साथ खत्म होता है और उसके बाद जो चुप्पी रह जाती है, वह आपको बहुत कुछ सोचने के लिए मजबूर करती है। सचमुच थिएटर में बहुत ताकत है।’

शीला को अपनी आदिवासी पहचान पर बहुत गर्व है और उसे लेकर वह संवेदनशील भी हैं। वह विनम्र अंदाज में प्रासंगिक सवाल करती हैं, ‘इतिहास में मणिपुर कहां है? समूचा भारतीय इतिहास ढूंढ मारा, पर मुझे अपने प्रदेश का जिक्र कहीं नहीं मिला। इसीलिए इसके जवाब में अब मैंने ‘प्राचीन भारत में मणिपुर’ को मुख्य मुद्दा बना लिया है और इसी एक बिंदु पर मेरा पूरा जोर रहता है।’

मणिपुर के रंगमंच पर निर्देशन के क्षेत्र में फिलहाल शीला और उनकी सीनियर सनाबम थनिनलेइमा (रानावि स्नातक) के अलावा दो और नई स्त्री प्रतिभाएं रांधोनी व सबिता ही सक्रिय हैं। अपने थिएटर के बारे में शीला कहती हैं, ‘यह सवाल आपके सामने हमेशा मौजूद रहता है कि आप रंगमंच पर ऐसा क्या प्रस्तुत करने जा रहे हैं जो आपके पास नहीं है।’

- अश्विनी कुमार पंकज

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