
प्रकृति और इंसान का संघर्ष उतना ही पुराना है जितना कि इंसान. विकास की समूची इंसानी यात्रा प्रकृति से भिड़ते हुए, उससे सामंजस्य बिठाते और इससे भी आगे बढ़कर उसका दोहन करने का रहा है. चांद और मंगल तक पहुंचने के बाद अक्सर इंसान को लगता रहा है कि उसने प्रकृति को पछाड़ दिया है और वह प्रकृति एवं पर्यावरण के साथ जैसा चाहे सलूक कर सकता है. पूंजीवादी विकास के मॉडल ने इंसानी समाज को लगभग मोहांध बना दिया है और हम प्रकृति के प्रतिकार को समझ नहीं पा रहे हैं. आदिवासी समाज ने इस प्रतिकार को संभवतः मोहनजोदाड़ो या सिंधु नदी घाटी सभ्यता के समय ही अनुभव कर लिया था जब प्रकृति के अत्याधिक दोहन के फलस्वरूप भयानक प्राकृतिक आपदा आई थी और पूरी सभ्यता नष्ट हो गई थी. बावजूद इसके आदिवासियों के बाद विकसित हुआ नागर समाज इस सच को समझने के लिए तैयार नहीं है और भौतिक जीवन की अतिरिक्त विलासिता भरी जिंदगी के लिए लगातार प्रकृति, पर्यावरण और जीवन के खात्मे के लिए प्रयासरत है. स्पेस थिएटर, गोवा की संवादरहित सांगीतिक रंगप्रस्तुति ‘क्रियेचर्स ऑफ द अर्थः द लिजेंड ऑफ पैकाची जोर’ एक आदिवासी मिथक के सहारे आज की इसी पूंजीवादी दोहन और लूट पर चोट करता है. 
गोवा के सुप्रसिद्ध रंगकर्मी और सोशल एक्टिविस्ट हर्ट्मैन डिसूजा द्वारा कोरियोग्राफ्ड और निर्देशित किया गया यह डांसड्रामा बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन हमारी इस दुनिया को किस तरह से अकाल मौत की ओर ले जा रहा है. स्टीव सिक्वेरा द्वारा रचे गए संगीत पर एंड्रे परेरा, स्टीफी मदुरेल और टेरेंस जॉर्ज की देहगतियां व मुद्राएं प्रकृति और पर्यावरण के, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों के, जंगल और पहाड़ के, झरनों ओर नदियों के लयात्मक नैसर्गिक जीवन को दृश्य-दर-दृश्य खूबसूरती से मंच पर उपस्थित करते हुए दर्शकों को अचंभित करते हैं. आनंदित करते हैं. फिर सुनाई पड़ती है आनंद में खलल डालती ध्वनियां. प्रकृति, पर्यावरण और आज के जीवन को ध्वस्त करता हुआ बड़े-बड़े डम्परों और खनन मशीनों का भयावह शोर. मंच पर दिखता है बदलती हुई देहभाषा. प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करते हुए लोलुप चेहरे. लूट और लालच की जानवर जैसी भंगिमाएं. फिर धीरे-धीरे सबकुछ नष्ट होता चला जाता है. 
रांची में 26 से 28 मार्च 2012 तक आयोजित दलित-आदिवासी नाट्य समारोह की यह अंतिम प्रस्तुति थी. 37 मिनट की यह संवादरहित सांगीतिक प्रस्तुति रांची के दर्शकों के लिए उनका अपना अनुभव था. यही वजह है कि कई बार संगीत और दृश्यों की एकरसता के बावजूद न तो वे ऊब रहे थे और न ही आश्चर्य से उनकी आंखें फटी जा रही थीं. अमूर्त प्रस्तुति के बावजूद इसके बिंब और दृश्यों से वे भलीभांति परिचित थे. जल, जंगल और जमीन के लूट और दोहन की यह प्रस्तुति उनकी अपनी ही कलात्मक अभिव्यक्ति थी जिसे मंच पर गोवा के कलाकार उकेर रहे थे जबकि वास्तविक जीवन में इसे भोग रहे हैं. 
- अश्विनी कुमार पंकज
Tuesday, April 3, 2012
जीवन के नैसर्गिक संगीत पर हावी होता मशीनी शोर
Posted by Rangvarta Team
on 2:20 AM
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