थिएटर में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। जुले वर्न के 19वीं शताब्दी में लिखे गए फ्रांसीसी उपन्यास ‘ट्वेंटी थउसेंड लीग अंडर द सी’ की प्रस्तुति इसे साबित करती है। रविवार को कमानी में हुई इस प्रस्तुति के पात्रा समुद्र के अंदर एक पनडुब्बी में हे, जिसे एक ऐसे शख्स ने दुनिया से छुपाकर बनाया है जो तत्कालीन सभ्यता से क्षुब्ध है। पनडुब्बी को समुद्री दैत्य समझा जा रहा है। अमेरिका ने इस दैत्य को मार गिराने के लिए एक दल को भेजा है। लेकिन कहानी के नैरेटर प्रोफेसर पियरे सहित दल के तीन लोग पनडुब्बी बनाने वाले कैप्टन नेमो की गिरफ्त में आ गए हैं।
मंच पर परदे को पूरा खोला नहीं गया है। इस तरह बीच की खुली जगह एक फ्रेमकी तरह इस्तेमाल की जा रही है। इस खाली जगह पर एक रूीना परदा है जिस पर समुद्र के अंदर एनिमेटेड संसार उभर रहा है। तरह-तरह की मछलियां और जीव। इस दौरान परदे के पीछे भीतर की ओर मौजूद पात्रा भी दिखते रहते हैं। पात्रागण कभी इस झीने परदे के आगे कभी उसके पीछे हाते हैं-- इस तरह पनडुब्बी के भीतर या बाहर की स्थितियों को दर्शाया गया है।
कुल मिलाकर यह डिजिटल तरीकों से तैयार किया गया एक जटिल और कल्पनाशील संयोजन है जिसमें एनिमेशन और कैमरे से शूट किए गए वास्तविक सचल चित्रों- दोनों का इस्तेमाल किया गया है। ध्वनि प्रभावों के जरिए इसे पुरअसर बनाने की कोशिश की ई है। पानी के बुलबुले कई बार इतरे करीब से और इतने विस्तार में है कि एक एक घेरने वाली दृश्यात्मकता बन जाती है।
इटली के टिएट्रो पॉटलैक थिएटर की इस अंग्रेजी प्रस्तुति में प्रभावशाली डिजिटल संयोजन के अलावा चरित्रांकन कुछ मजाकिया तरह का है। इसके पात्रा कॉमिक्स किरदारों की तरह दिखाई देते हैं। समुद्र के भीतर यहा-वहां गुजरते हुए वे अटलांटिक और प्रशांत महासागरों में पानी के घनत्व के फर्क को लेकर चर्चा करते हैं। उनकी चाल-ढाल में भी यह चीज है। यह ढंग एनिमेशन में दर्शाए गए जीवों के नक्श आदि में भी है। प्रस्तुति के निर्देशिक पुनो दि बूडो ने एक मुश्किल ढांचे में एक तरह की शैली का कुशल निबाह किया है। जुले वर्न का यह उपन्यास तब लिखा गया था, जब इस किस्म की पनडुब्बी एक काल्पनिक चीज थी। प्रस्तुति के दृश्यों में पानी के जहाज की छवि का इस्तेमाल भी किया गया है। इस तरह जुले वर्न के 140 साल पुराने कल्पनालोक को बूडो मंच पर संभव बनाते हैं।
कमानी में सोमवार को सई परांजपे लिखित और निर्देशित मराठी प्रस्तुति ‘जसवंदी’ का मंचन किया गया। यह एक यथाथर्ववादी प्रस्तुति है, जिसकी केंद्रीय पात्रा धनाढ्य घर की एक स्त्राी है। पति के पास अपनी व्यावसायिक व्यस्तताओं में उसके लिए समय नहीं है। एकाकीपन से जूझती नायिका का खुद को आंटी कहने वाले एक नौजवान स संबंध जुड़ता जाता है। घर के काम करने वाली रंगाबाई और ड्राइवर दो अन्य पात्रा हैं। रंगाबाई की पैतृक जायदाद के लिए वे एक हत्या करने पर चर्चा कर रहे हैं। इनके अलावा प्रस्तुति में दो बिल्ले भी है, जिनकी आपसी बातचीत और हरकतें निरंतर एक रोचकता बनाए रखती हैं।
प्रस्तुति की विशेषता है कि यथार्थ के दुर्द्धर्ष पक्ष भी उसमें दिखाई देते रहते हैं। हालांकि बिलौटों की उछलकूद कुछ मौकों पर प्रसतुतिको अनावश्यक लंबा बनाती है। घर के भीतर के दृश्य का यह एक सुंदर सेट डिजाइन था जिसमें आंगर के पेड़-पौधों के अलावा दो दरवाजों के जरिए भीतर के कमरों को दर्शाया गया है। बिलौटों का अभिनय करनेवाले पात्रों का कोई मेकअप नहीं किया गया है, सिर्फ उनहें अपनी हरकतों से ही खुद को बिलौटा साबित करना है। प्रस्तुति की यह युक्ति काफल चर्चित रही है।
- संगम पांडेय
जनसत्ता, 18 जनवरी 2012
Saturday, January 28, 2012
जुले वर्न का कल्पनालोक
Posted by Rangvarta Team
on 12:41 AM
0 comments:
Post a Comment