भारतीय थिएटर में माया कृष्ण राव एक अलग ही शैली की कलाकार हैं। वे अकेली मंच पर होती हैं अपनी बहुत-सी तत्पर भंगिमाओं और मुद्राओं के साथ उनके संवाद ध्वनियों की शक्ल में होते हैं। कई बार फुसफुसाते हुए से। करीब एक दशक पहले जब उनकी पहली प्रस्तुति देखी थी, तो यह एक किंचित रूखा संयोजन था। लेकिन तब से अब तक उन्होंने अपनी शैली में क्रमशः काफी सुधार किए हैं
मंगलवार को भारत रंग महोत्सव में हुई प्रस्तुति ‘रावन्ना’ में उनका अभिव्यक्तिवाद ज्यादा व्यवस्थित दिखाई देता है। मंच पर प्रस्तोता के रूप में उनका आत्मविश्वास देखते ही बनता है। उनकी देहभाषा मे एक आक्रामक लय है। लेहकिन उसमें वे खालिस देहभाषा के भरोसे नहीं हैं, उन्होंने मंच पर ‘दृश्य’ के कुछ प्रावधान भी किए हैं। दाहिने छोर पर एक आलमारी जैसी चीज में कुछ छोटे-छोटे कपड़े लटके हैं। बीच-बीच में वे इन कपड़ों को अपने पहलने हुए कपड़ों में इस तरह खोंस लेती हैं। कि उसका अलंग रंग दृश्य के पूरे फ्रेम में एक छोटा सा प्रभाव लिए शामिल हो जाता है। एक दृश्य में वे अपने स्वेटर को ऊपर सिर तक ले जाती है। स्वेटर में से निकले सफेद बाल एक रहस्य की तरह दिखते हैं। पीछे की ओर एक दरवाजा है। प्रस्तुति के दौरान दो और दरवाजे लाकर खड़े कर दिए जाते हैं। बीच के दरवाजे से वे प्रस्तुति में दाखिल होती हैं, मंच की गहराई का शायद यह अंतिम छोर है। एक बार वहां से धुआं निकलता दिखाई देता है।
दृश्यों के इस संयोजन के अलावा स्वरों और ध्वनियों की भी एक अहम भूमिका है। वे स्वरों के अनुरूप ‘मूव’ लेती हैं। उनकी देहभाषा में कथकली की मौखिक-आंगिक व्यंजना से लकर पाश्चात्य ढंग से थिरकने का कौशल है। यह एक सटीक अभिव्यक्तिवाद है। इसमें रोशनियों के बहुतेरे प्रभाव हैं। माया अपने धवल केशों का दृश्यों में कई बार कंट्रास्ट के तौर पर अच्छा इस्तेमाल करती हैं। उनकी देहभाषा का आत्मविश्वास मानो सारे असमंजसों को धूल चटा चुका है। उसमें एक गहरी संलग्नता है। यह आत्मविश्वास किरदार में बहुत गहरी पैठ से बना मालूम देता है। माया की मुखमुद्राओं में दर्शकों के होने का कोई असर नहीं है। दर्शक ऊबें या सुखी हों-- यह कोई मसला नहीं है। वे बुदबुदाते हुए मंच के एक छोर की ओर जा रही हैं। यह बुदबुदाना रावण के किरदार की कभी-कभीसुनाई देने वाली कमेंट्री का एक हिस्सा है। सुनाई दे तो ठीक, न सुनाई दे तो भी क्या फर्क। यह सैकड़ों रामकथाओं में से किसी एक का प्रसंग है। सीता का रावण की मृत्यु का कारण बनना नियत है। क्योंकि रावण कुछ ऐसा भूल गया है, जिससे उसकी नियति जुड़ी है। माया पूछती है-- क्या यह स्मृतिविहीनता की कथा है। क्या रावण जैसे विद्वान और कलाप्रेमी की स्मृतिविहीनता एक रूपक है।
माया कृष्ण राव की रंग-शैली को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वाले दर्शक भी हैं। लेकिन माया इससे निस्संग रहते हुए निरंतर इसके भीतर कई प्रयोग करती रही हैं। मसलन, एक जगह कोई कपड़ा खोंसते हुए वे कुछ बोल रही हैं, और काफी तल्लीनता से अपना काम भी कर रही हैं। मानो यह काफी उपयोगी कोई काम हो। माया कृष्ण राव का अभिव्यक्ति के अपने तरीकों पर हमेशा भरोसा रहा है। इस प्रस्तुति में उनके इस भरोसे को दर्शकों का भी पूरा अनुमोदर हासिल हुआ।
- संगम पांडेय
जनसत्ता, 19 जनवरी, 2012
Saturday, January 28, 2012
सटीक अभिव्यक्तिवाद का रंग
Posted by Rangvarta Team
on 12:52 AM
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