रायपुर: डॉ. अरूण सेन स्मृति संगीत उत्सव के दूसरे दिन 14 दिसंबर को मुंबई के आंगिका समूह के कलाकारो ने राजधानी के अरूण मंच में स्वरूप संपत्त निर्मित और भावेश मांडले दिग्दर्शित नाटक किशन कन्हैया की सशक्त प्रस्तुति के जरिए नाटय प्रेमियों को कर्मकांड और अंधविश्वास के नाम पर छली जा रही जनता और उससे उत्पन्न स्थिति का नाटकीय चित्रण कर यह संदेश देने का प्रयास किया कि किसी को गुरू या भगवान बनाने से पहले उसे ठीक तरह से परखा जाए। भगवान या ईश्वर को किसी मंदिर या मस्जिद में ढूंढने से पहले मन में ढूंढ़ो। कही.कहाई बात या लकीर का फकीर बनने से अपना ही नुकसान है।
परेश रावल अभिनीत इस नाटक में कर्मकांड और अंधविश्वास पर करारा कटाक्ष भी किया गया। किशनलाल के बहाने उस पूरी सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्था पर सवाल उठाये गए जिसमें तथाकथित धमाचार्यए तांत्रिक बाबाओं का पाखंडए धर्मस्थलों में जनता को लूटने के प्रायोजित षडयंत्र को नाटक के प्रमुख पात्र किशनलाल के अपने तर्क से निरूतर करते हुए सत्य की नए सिरे से व्याख्या की। ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देते किशनलाल उर्फ परेश रावल की खूबी ये रहती है कि वह ग्राहकों को तरह.तरह के लुभावनी बातों से प्रभावित कर औने.पौने दाम में एंटिक सामान बेचने में माहिर रहता है। कब किस को टोपी पहना दे कहा नहीं जा सकता। दिलचस्प बात ये है कि चाहे तो वो किशन भगवान की मूर्ति को द्वारिका से निकली दुर्लभ मूर्ति बता दे या फिर उसी तरह की कोई दूसरी पीतल की मूर्ति को मथुरा से प्राप्त मूर्ति बताते हुए बेच दे। नास्तिक किशनलाल का ये मानता है कि भगवान या ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है। जबकि उसकी पत्नी सुशीला धार्मिक आस्था वाली महिला रहती है जो कि पूजापाठ से लेकर व्रत रखने में विश्वास रखती है। घटनाक्रम में एक बार भूकंप आने से किशनलाल की दुकान और उसमें रखे बहुमूल्य सामान नष्ट हो जाते हैं। सुशीला इसे भगवान के निरादर करने पर मिले श्राप के रूप में मानती है। और इसके के प्रायश्चित के लिए पूजा पाठ करने की सलाह पति को देती है। पर किशनलाल ये बात नहीं मानता । उल्टे इस बात से खुश होता है कि नुकसान से हुई भरपाई वो बीमा कंपनी से वसूल लेंगे। इंश्यारेंस कंपनी से 35 लाख की दुकान का 50 लाख का बीमा जब देने की बात आती है तो इंश्योरेंस कंपनी का मैनेजर दिनेश सोनी इस अपने आप को फ्रेश गरीब कहलाने वाले किशनलाल के मंसूबो पर पानी फेरते हुए ये कहता है कि आग या चोरी या दुर्घटना में यदि दुकान व समान की क्षति होती कंपनी क्षतिपूर्ति का भुगतान जरूर करती। पर प्राकृतिक आपदा जिसे एक्ट ऑफ गॉड कहकर बीमा कंपनी इसे भुगतान से परे बताती है। किशनलाल भड़क उठता है और कहता है कि उसने प्रीमियम जब पूरे जमा कर दिए हैं तो भुगतान क्यों नहीं करोगेघ् बात बढ़ने पर यह दलील दी जाती है कि प्राकृतिक प्रकोप पर किसी का बस नहीं चलता इसके लिए ईश्वर ही सब कुछ है। किशनलाल ईश्वर के अस्तित्व को चुनौती देता है और यहीं से उसकी लड़ाई मठाधीशों व कर्मकांडियों से शुरू होती है।
विचारोत्तेजक नाटक में कई दृश्य ऐसे हैं जो दर्शकों की मनोस्थिति को झकझोरने का काम करते हैं। सिद्धेश्वर बाबाए धर्माचार्य से लेकर वकील से किशनलाल की बहस काफी हद तक कड़वे सच को उजाकर करती है। कहीं धर्म की रक्षा के नाम पर तो कहीं मंदिरों में चढावे के रूप में अंध श्रद्धा पर नाटककार ने जबदस्त कटाक्ष किया है। नयी पीढ़ी को सोचने के लिए विवश करते इस नाटक का मध्यांतर कृष्ण वासुदेव यादव के किरदार के प्रवेश होती है। धरती पर भगवान के आने और उसके बदले स्वरूप को नाटकीय रूप में दिखाया गया है। कहीं.कहीं नाटक के संवाद सुन दर्शकों को कोफ्त होती है तो कहीं किशनलाल का लॉजिक ठहाके लगाने के मौके देता है। कृष्ण का यह कहना कि चमत्कार कर सकता हूं इसलिए कृष्ण नहीं हूं। मन में बसा लो हर जीव में भगवान के रूप में विद्यामान हूं । कहानी का यही सार है। इस पर किशनलाल का तर्क रहता है कि भगवान हैं तो सामने क्यों नहीं आते। नाटक के आखिर में यह संदेश कि फूलए प्रसाद से नहीं आस्था से भगवान प्रसन्न होते हैं। जो इसे ढूंढता है वो इसे पा लेता है। पर दिक्कत ये है कि लोग सत्य नहीं सात्वंना ढूंढते हैं।
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