- राजेश चन्द्र -
सतीश आनंद आधुनिक हिंदी रंगमंच की उस साठोत्तरी पीढ़ी के सशक्त प्रतिनिधि हैं जिसका मुख्य सरोकार रंगमंच में भारतीयता की या अपनी अस्मिता की तलाश रहा है और वह नाटक और प्रदर्शन दोनों में एक ऐसे रूप, भाषा और मुहावरे की तलाश में तल्लीन रही है, जो हमारे आज के जीवन की जटिलताओं, संघर्षों, यातनाओं और उसके सारे अंतर्विरोधों को सभी स्तरों पर अभिव्यक्त करे और वह रुचिकर भी हो। साहित्य कला परिषद और दिल्ली सरकार के संस्कृति विभाग द्वारा विगत 28 नवंबर से 8 दिसंबर के बीच श्रीराम सेंटर में आयोजित भारतेन्दु नाट्योत्सव के अंतर्गत 7 दिसंबर को अभिनव भारती द्वारा मंचित नाटक ‘एक इंस्पेक्टर से मुलाकात’ में भी निर्देशक सतीश आनंद इसी दोहरे उद्देश्य को हासिल करने की एक छटपछाहट के साथ सामने आते हैं।
एक गंभीर संस्कृतिकर्मी के तौर पर सतीश आनंद ने एक बार फिर यह अहसास कराया है कि वे किसी भी शर्त पर लोकप्रियता या जनस्वीकृति हासिल करने में विश्वास नहीं करते, बल्कि रचना में जीवन की जटिलता, बहुस्तरीयता और द्वंद्वात्मकता की अंतर्दृष्टिपूर्ण और कल्पनाशील अभिव्यक्ति के प्रति संवेदनशीलता और ग्रहणशीलता जगाने को अपनी जिम्मेदारी समझते हैं। वे रूप और कथ्य की एक ऐसी संगति तैयार करते हैं जिसे अनुकरणात्मक नहीं, मौलिक रूप से भारतीय कहा जा सकता है। शिल्पगत तिकड़मों और तरकीबों पर भरोसा न करते हुए नाटककार, निर्देशक और अभिनेता की सृजनात्मकता के समुचित समन्वय पर बल देने वाले सतीश आनंद का योगदान अलग से रेखांकित किए जाने की पात्रता रखता है। वे अभिनेता के काम के द्वारा ही अपनी पूरी अभिव्यक्ति और कलात्मक प्रासंगिकता हासिल करते हैं। विवेच्य नाटक इसका एक सशक्त उदाहरण है।
‘एक इंस्पेक्टर से मुलाकात’ मूलत: 1912 में प्रख्यात नाटककार जे.बी. प्रिसले द्वारा रचित नाटक ‘एन इंस्पेक्टर कॉल्स’ का भारतीय रूपांतरण है, जिसे 20वीं शताब्दी के अंग्रेजी साहित्य में एक कालजयी कृति का दर्जा हासिल है। मूल नाटक की अंतर्वस्तु के केंद्र में इंग्लैंड के तत्कालीन सामाजिक जीवन की वह विषमता और अन्यायपूर्ण वर्गीय संरचना है जिसमें प्रभुत्वशाली वर्ग द्वारा विशाल आबादी की संभावनाओं और श्रम का निर्बाध और अमानवीय शोषण किया जाता है।
खास बात यह है कि बगैर किसी समाजवादी नारे का डंका पीटे और पूंजीवादी संस्कृति के गलित मूल्यों की कटु आलोचना के, प्रिसले ने कुलीनता और आभिजात्यता के पाखंड को अपने इस नाटक में उजागर किया है। उन्होंने यह सिद्ध करके दिखाया है कि किस प्रकार धनिक वर्ग सामाजिक व्यवस्था में खुद को श्रेष्ठतर समझता है और गरीब आदमी की जिंदगी उसके लिए कोई मायने नहीं रखती। प्रिसले जनसाधारण की भावनाओं के प्रवक्ता थे और समाज की वर्गीय विषमता उन्हें व्यथित करती थी। उन्होंने यह पाया था कि लोग समाज में अपनी वर्गीय अवस्थिति के बारे में जानने को उत्सुक रहते हैं और वर्गीय संरचना के अंतर्गत यदि निम्न वर्ग का कोई व्यक्ति अपनी वर्गीय नियति से मुक्ति पाने की कोशिश करता है तो यह कोशिश प्रभुत्वशाली लोगों को नागवार गुजरती है।
नाटक की कथा एक अभिजातवर्गीय परिवार के इर्द-गिर्द बुनी गई है जिसकी शुरुआत शीला (ज्योति पंत) और रमेश कपूर (राकेश यादव) की सगाई के समारोह में आयोजित एक रात्रिभोज के साथ होती है। गृहस्वामी और शीला के पिता मिस्टर खन्ना (दीपक कुमार) एक हृदयहीन उद्योगपति हैं जैसे कि आम तौर पर पूंजीवादी व्यवसायी होते हैं और हर कीमत पर मुनाफा कमाना उनका सबसे बड़ा मूल्य है। उन्हें अपने रसूख का अहंकार है जिसे बात-बात में जाहिर करना वे अपना अधिकार समझते हैं। इंस्पेक्टर कौशल (स्पर्श शर्मा) के आगमन और उत्सव में व्यवधान उत्पन्न होने से मिस्टर खन्ना के लिए एक असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। घटनाक्रम के विकास के साथ अंतत: उनका अहंकार टूटता अवश्य है, जिसके कारण वे परेशानी महसूस करते हैं पर इस स्थिति में भी वे अपने अंत:करण को प्रभावित होने से बचा ले जाते हैं। इंस्पेक्टर एक स्थानीय स्त्री के मामले की छानबीन करता है, जिसने जहर खाकर आत्महत्या कर ली है। पहले तो पूरा परिवार उस स्त्री के प्रति अनभिज्ञता प्रदर्शित करता है पर जैसे-जैसे इंस्पेक्टर की जिरह आगे बढ़ती है, यह साफ होने लगता है कि इस परिवार के मुखिया से लेकर पत्नी (नीलम शर्मा), बेटे, बेटी और उसके मंगेतर तक सबने उस स्त्री के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डाला है और ऐसी स्थितियां निर्मित की हैं, जिसमें उसके सम्मानपूर्ण जीवन की कोई संभावना शेष नहीं रह गई थी।
अशोक (कनिष्क ज्ञान) अपने माता-पिता को संवेदनाशून्य और निकृष्टतम मनुष्य मानता है और इसलिए उनके प्रति असीम घृणा प्रदर्शित करने का कोई अवसर नहीं गंवाता। इसके उलट शीला संयत और समझदार है। नाटक में दो अलग-अलग तरह के विवेक का प्रतिनिधित्व करते इन दोनों चरित्रों में शीला अपनी कथनी और करनी में अधिक उर्वर है। वह अपने मंगेतर में तब तक आसक्ति रखती है और इस मिथ्याचार का अंग बनी रहती है जब तक इंस्पेक्टर नहीं आता, पर सत्य से साक्षात्कार होते ही वह इस पाखंड को अस्वीकार कर देती है। नाटक के अंत में वह यह देख कर स्तब्ध रह जाती है कि उसके माता-पिता का बर्ताव नहीं बदलता। वे अपने ही द्वारा उद्घाटित सत्य को अस्वीकार करने में जुट जाते हैं और धीरे-धीरे पुराने ढर्रे पर लौट आते हैं। इस तरह नाटक आभिजात्यता और सामाजिक प्रभुत्व के पाखंड को उजागर करते हुए आज की व्यवस्थागत विसंगतियों और आम आदमी की दयनीय स्थिति को प्रभावशाली तरीके से सामने लाता है।
(दैनिक भास्कर से साभार)
राजेश चन्द्र
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