RANGVARTA qrtly theatre & art magazine

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Saturday, June 30, 2012

पेइचिंग ओपेरा के विकास की विरासत व सृजन

पेइचिंग ओपेरा का 200 साल पुराना इतिहास है। उसे पूर्व का ओपेरा नाम से भी जाना जाता है। उसका उद्गम शायद कुछ प्राचीन स्थानीय ओपेरा से हुआ है। वर्ष 1790 में हुए पान नाम का एक स्थानीय ओपेरा पेइचिंग में प्रचलित होने लगा, क्योंकि पेइचिंग में विभिन्न प्रकार के स्थानीय ओपेरा काफी लोकप्रिय थे, जिस से इसे तीव्र प्रगति करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। 2 सौ साल से पेइचिंग ओपेरा का तेज विकास हो रहा है। पिछली शताब्दी इस के विकास का सबसे अच्छा दौर रहा है, और यह चीन की सार कला बन गया है। आजकल तेज विकास के दौर में अन्य परंपरागत कलाओं की तरह पेइचिंग ओपेरा के विकास के सामने चुनौतियां मौजूद हैं। इसलिए इस कला के विकास में और ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है । हाल ही में आयोजित हुए वर्ष 2011 चीनी नाटक कला की विरासत व विकास के मंच पर चीनी जन राजनीतिक सलाहकार सम्मेलन...

Tuesday, June 12, 2012

हर शनिवार, 19 साल से चल रहा है नाटक

शहर गोरखपुर के रेलवे स्टेशन से बमुश्किल डेढ़ किमी दूर, गर्मियों की सुबह में किशोरवय के कुछ शौकिया रंगकर्मी बरगद के दो विशाल वृक्षों को जोड़कर बनाए गए मिट्टी के अस्थायी मंच पर झाड़ू लगा रहे हैं. पेड़ों के तनों से बांधकर परदा लगाया जा रहा है और मंच से नीचे खिचड़ी दाढ़ी और बालों वाला एक शख्स छोटी-सी मेज पर एक महिला की तस्वीर सजाते हुए अचानक अपनी नम आंखें साफ करने लगता है. पीछे से कोई लड़का पूछता है, ''दादा! ये तो रिकॉर्ड होगा. इतना लंबा टाइम तक कोई और नाटक थोड़े किया होगा?'' दादा घूमकर उसे देखते हैं, ''डायलॉग याद करो. ऐ चक्कर में मत पड़ो कि रिकॉर्ड बना है.'' दादा यानी 55 बरस के के.सी. सेन के लिए यह रिकॉर्ड भले ही रोमांच भर देने वाली बात न हो, लेकिन जरा सोचिए कि अगर कुछ रंगकर्मी पिछले 19 सालों से हर शनिवार सुबह बिना क्रमभंग के नाटक कर रहे...

Sunday, June 3, 2012

नन्हें हाथों में दुनिया थमाने से पहले

अशोकनगर में इप्टा का आठवां बाल एवं किशोर रंग शिविर अशोकनगर: पिछले कुछ दिनों में देश भर में भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) की विभिन्न इकाइयों ने 25 से अधिक बाल रंग शिविर का आयोजन किया। 20 दिन से लेकर एक महीने तक के इन शिविरों में ऐसा बहुत कुछ है कि इन्हें अपने आप में अनूठा, प्रयोगधर्मी, जरूरी और कला भविष्य के प्रति आश्वस्ति के रूप में देखा जा सकता है। कला और खासकर बच्चों के कलाकर्म को देखने का इधर जो नजरिया विकसित हुआ है, उसमें कुछ रियायतें और भावुकता भी शामिल होती है। इसलिए वे सच्चाइयां सामने नहीं आ पातीं, जो रंगशिविरों की अच्छाइयों और बुराइयों को नुमायां कर सकें। ज्यादातर मौकों पर बच्चों के थियेटर को आलोचना के बजाय आशीर्वाद की दृष्टि से देखा जा सकता है, क्या यह आने वाले दिनों के लिए खतरनाक हो सकता है? बहरहाल, अशोकनगर (मध्यप्रदेश) के आठवें...

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