‘बहुजन साहित्य ओ.बी.सी, दलित, आदिवासी और स्त्री-इन चारों का समुच्चय है। जिस प्रकार भक्ति काव्य में संतकाव्य परंपरा,सूफी काव्य परंपरा, रामकाव्य परंपरा और कृष्ण काव्य परंपरा मिलकर उसका एक चरित्र गढ़ती है वही स्थिति बहुजन साहित्य के संदर्भ में उपरोक्त चार धाराओं के सम्मिश्रण से पैदा होती दिखलायी पड़ती है।’ उक्त बातें आलोचक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने पटना के माध्यमिक शिक्षक संघ सभागार में कही। उन्होंने ‘फारवर्ड प्रेस’ द्वारा आयोजित ‘फूले का जश्न, रेणु की याद, क्या है बहुजन साहित्य’ गोष्ठी में यह बात कही।
राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस चर्चा के बैकग्राउंड के रूप में इतिहास, भाषा और हिंदी शब्द कोश की एकांगी सोच से जुड़े सवालों को बड़े तार्किक ढंग से उठाया। कहा कि हिंदी साहित्य, भाषा और इसकी संस्कृति के जनतांत्रिकरण की जरूरत है। उन्होंने रामचंद्र वर्मा, मुकंुदीलाल श्रीवास्तव और हरदेव बाहरी जैसे शब्द कोश निर्माताओं का जिक्र किया और बतलाया कि ये सभी कोशकार काशी और इलाहाबाद के रहे हैं। इनकी अपनी स्पष्ट सीमाएं यह है कि इनमें आपको उनके इलाकों के शब्द भंडार तो बहुत मिलेंगे लेकिन भारत के अन्य हिस्सों की देश शब्द संपदा आप वहां नहीं पाएंगे। यह कोशों पर पूर्वी प्रांतों के वर्चस्व का नमूना है।
राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि हिंदी कोशों पर 10 देवी देवताओं का कब्जा है। वहां 3411 शब्द शंकर के पर्यायवाची हैं। इसी प्रकार विष्णु के लिए 1676, काली के लिए 900, कृष्ण के लिए 451 पर्यायवाची हैं। देवताओं के लिए कोशकारों ने इतने शब्द पर्यायवाची के इजाद कर लिए लेकिन उंट जो किसी स्थान विशेष के लिए इतनी उपयोगी है उसके लिए आपको कोशों में क्यों नहीं पर्यायवाची शब्द मिलते? इसी प्रकार आप देखें किसान-मजदूर, मीडिया और इंटरनेट से जुड़े शब्द की स्थिति वहां आप नहीं पाएंगे। इसी प्रकार पिछडी़ और दलित कम्यूनिटी से जुड़े शब्द यहां कम आपको दिखेंगे। इसके पीछे ब्राह्मणवाद काम करता रहा है। हमारे यहां के कोशकारों का इस संबंध में यह तर्क था कि इन पिछड़ों का शब्द हम लेंगे तो हमारी भाषा खराब हो जाएगी। उन्होंने कहा कि हमारा हिंदी व्याकरण ही कुछ इस तरह से निर्मित हुआ कि वहां समतामूलक समाज न बने इसके लिए पहले से ही कई तरह की विभेदक रेखाएं खींच दी गई। एक की वाक्य को उंच-नीच, बराबरी-गैरबराबरी के लिए कई तरह से व्यहृत किया गया। यह हिंदी में स्त्रीलिंग पुल्लिंग विन्यास का खेल देखिये। जितनी मुलायम, कमजोर एवं नाजुक चीजें हैं कोशकारों ने उसे पुल्लिंग बना दिया। और जितनी ताकतवर हैं उसे स्त्रीलिंग। भला आप ही बतायें सरकार को स्त्रीलिंग बतलाने का क्या औचित्य क्या वह कमजोर होती है। सरकार का मतलब ही ताकत होता है। ये हास्यापद चीजें हैं जिस पर विचार होना चाहिए। राजंेद्र प्रसाद ने माना कि हिंदी कोशों की तरह ही हिंदी आलोचना में प्रांतवाद का बोलबाला रहा। रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी और रामस्वरूप चतुर्वेदी ने यूपी का पक्ष लिया। हिंदी में छायावाद से लेकर नयी कहानी आंदोलन तक में एक ब्राह्मणवाद सिस्टम की तर्ज पर ‘त्रयी’ खड़ी की गई जिसमें दो ब्राह्मण के साथ एक अवर्ण को जोड़ दिया गया। क्या यह ब्राह्मणवादी सिस्टम को स्थापित नहीं करता? यह त्रयी किसका औजार है?
राजेंद्र प्रसाद सिंह ने माना कि वर्ग संघर्ष से अलग जाति संघर्ष के आयने में बहुजन साहित्य अपनी दिशा तय करेगा। उन्होंने कहा कि फ्रायड ने यौन कुंठा की बात कही थी उससे काम नहीं चलेगा यहां तो लोगांे में जातीय कुंठा है इससे लोग बुरी तरह आक्रांत हैं।
फारवर्ड प्रेस के अंग्रेजी संपादक आयवन कोस्का ने लेखक और आंदोलनकारी-दोनों रूपों में महात्मा ज्योतिबा फूले की भूमिका को रेखांकित किया। उन्होंने कहा कि फूले ने ‘गुलामगिरी’ के माध्यम से भारत में नवजागरण का शंखनाद किया। वे जितने बड़े समाज सुधारक थे उतने ही बड़े दार्शनिक और चिंतक भी। उन्होंने कहा कि इस दंपति ने स्त्री शिक्षा के लिए जो काम किया वह मील का पत्थर कही जा सकती है। उन्होंने कहा कि फूले साहब की पत्नी सावित्रीबाई फूले भारत के आधुनिक कवियों में थीं। उन्होंने उनकी कविता ‘अंग्रेजी मां’ का एक टुकड़ा पेश कियाः ‘‘हमारी रगांे में सच्चा भारतीय खून है/उंचे स्वर में चिल्लाओ! और चीखो!/ अंग्रेजी मां आ गई है।’’ कोस्का साहब ने अंग्रेजी में ही अपना वक्तव्य रखा। कहा कि मैं मुम्बई का हूं। साठ वर्ष का हूं। 30 साल कनाडा का नागरिक रहा। लेकिन मेरी आत्मा भारत में निवास करती है।
कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने कहा कि फणीश्वरनाथ रेणु 20 वीं शताब्दी के कुछ महान कथाकारों में एक हैं लेकिन उनके जीवन और लेखन में बड़ा गैप्प है। वे ब्राह्मण विरोधी थे ही नहीं। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने प्रशांत के रूप में खुद को बतलाया है। दिवाकर ने कहा कि यह देश मूर्तिपूजक है। यहां कुछ भी कहना खुद को संकट में डालना है बावजूद इसके मैेंने अपने घर में एक मात्र मूर्ति रेणु का ही टांगा है। दिवाकर ने कहा कि वे ज्योतिबा फूले को इस देश में परिवर्तन लाना वाला बहुत बड़ा आडियोलाग मानते हैं। उन्होनंे ब्राह्मणवाद पर अपनी कृति ‘गुलामगिरी’ में जर्बदस्त ढंग से प्रहार किया है। दिवाकर ने दिनकर की पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ की चर्चा की और बतलाया कि उसमें फूले के बारे में कोई चर्चा तक का नहीं होना बतलाता है कि दिनकर भी कहीं-न-कहीं चूक रहे थे। दिवाकर ने माना कि भारतीय साहित्य पर फूले के विचारों का गहरा असर पड़ा है उन्होंने इस संबंध में मलखान सिंह की एक कविता पढ़ी और बतलाया कि क्या फूले के बगैर ऐसी कविताएं लिखी जा सकती थीं?
राष्ट्रभाषा परिषद के निदेशक प्रो. रामबुझावन सिंह ने रेणु से जुड़े कुछ अनुभव साझा किये और कहा कि रेणु के मूल्यांकन के लिए पैरलल नजर चाहिये क्योंकि हिंदी रचनात्मकता में वे एक पर्वत के समान हैं। उन्होंने कहा कि यह दुखद है कि आज तक रेणु को ठीक से समझा नहीं गया। कवि आलोकधन्वा ने कहा कि रेणु से उनका संबंध कुछ इस किस्म का था कि उसमें बहस के लिए कोई गुंजायश न थी। उन्होेंने कभी मुझको ‘तुम’ नहीं कहा हमेषा ‘आप’ कहकर ही पुकारा। रेणु के लेखन की चर्चा करते हुए आलोक ने कहा कि समन्वय उनके लेखन का सबसे ताकतवर पक्ष है। इस संदर्भ में उनके कंटेंट की स्थानीयता की चर्चा करते हुए उन्होंने रूसी लेखक शोलाखोव की ‘धीरे वहो दोन रे’ की भी चर्चा की। आलोक ने कहा कि आज एक कम्यूनल, जातिवादी और एक क्रूर हिंसक समाज सामने आया है आपसे आग्रह है कृप्या आप इससे बचिये। द्वितीय विश्वयुद्ध में 6 करोड़ लोग मारे गए। आलोक ने तरह-तरह के विमर्शों में एकता ढूंढने की बात की और जातिवाद से उपर उठने पर बल दिया। आलोक ने कहा कि अगर हम मार्गेन, आइंस्टाइन, डार्बिन और लिंकन को नहीं जानते तो एक सच्चे मनुष्य होने का दावा भला कैसे कर सकते हैं? उन्होंने कहा कि फूले से लेकर लोहिया तक ने जाति तोड़ने पर बल दिया। जाति की क्रूर नृशंसता पर लोहिया ने जर्बदस्त तरीके से चोट किया।
आलोकधन्वा ने अपने आरंभिक वक्तव्य में जाति से संदर्भित एक घटना की चर्चा की तो गोष्ठी में आये श्रीकांत व्यास और हरेंद्र विद्यार्थी उन पर आक्रोशित हो उठे। देर तक गोष्ठी में अफरा-तफरी मची रही। मामला समझ में नहीं आया कि अचानक हो क्या गया। विरोध करने वाले का कहना था कि आलोक पटना के एक वरिष्ठ कवि की बेटी के भागने का संदर्भ इससे पहले भी तीन-चार सार्वजनिक मंचों पर कह चुके हैं उन्हेें ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए। आलोकधन्वा ने इस संबंध में बड़ी शालीनता बरती लेकिन उनके कुछ बिरादर अनुयायिओं ने कई तरह से अपना गुस्सा प्रकट किया। उसमें डेमोक्रेसी की न्यूनतम विनम्रता भी न थी और आलोक के प्रति गिरोहबंदी का चरम दिख रहा था।
धन्यवाद ज्ञापन अस्पायर प्रकाशन की चेअर डा. सिल्विया फर्नाडीस ने किया। उन्होंने अपने वक्तव्य अंग्रेजी में ही दिए। समारोह के आरंभ में वरिष्ठ कथाकार मधुकर सिंह को आयवन कोस्का और प्रमोद रंजन ने संयुक्त रूप से शॉल ओढ़ाकर सम्मानित किया।
- पटना से अरुण नारायण की रपट