अक्सर हिंदी नाटकों में धन की कमी और रंगकर्मियों की आजीविका के स्थायी बंदोबस्त को लेकर सवाल किए जाते हैं। इस प्रश्न पर जहां तक मेरी राय का सवाल है तो मैं तो साफ तौर पर यही कहूंगा कि हिंदी नाटक को समाज का सहयोग नहीं मिल रहा है। आज भी वह राज्याश्रय में ही पल रहा है। जब तक हिंदी नाटक सरकारी हाथों से मुक्त नहीं होगा। तब तक वह अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता और न ही उसका कोई भला होने वाला है। मराठी, कन्नड़, मलयालम में नाटकों को जनता का सहयोग मिलता है। मैंने जितने भी उपन्यास, नाटक या कहानियां लिखी हैं उनमें दूसरी बातों के अलावा सामाजिक तथ्य जरूर मिलेंगे। यह बात दीगर है कि समय और जरूरत के मुताबिक हमारी भाषा में बदलाव आता रहता है। अच्छा निर्देशक ही अच्छे नाटक के साथ न्याय कर सकता है। क्योंकि वह जानता है कि कौनसे शब्द में नाटक की आत्मा बसी है। बस! उसका काम उसे दर्शकों तक संप्रेषित करना होता है। इसके अलावा कलाकार की अच्छी एक्टिंग का भी सहयोग होता है। फिल्म निर्माता- निर्देशक मणि कौल ने मुझे फिल्म माटी के मानस में एक भूमिका ऑफर की थी। पर व्यस्तताओं की वजह से अभिनय नहीं कर सका।
हिंदी भाषा की स्थिति दयनीय
बांग्ला, कन्नड़ और मलयालम आदि भाषाएं भाषायी दृष्टि से सुदृढ़ है, वहीं हिंदी भाषा के मौजूदा हालात दयनीय हैं। दरअसल हिंदी समाज हिंदी लेखकों के पक्ष में नहीं है, जबकि हिंदुस्तान में अंग्रेजी तर्ज के लेखकों को सिर्फ अखबार ही नहीं प्रचार के दूसरे संसाधन भी तवज्जो देते हैं। जिस तरह यूपी, बिहार में हिंदी के स्कूल खत्म हो रहे हैं। उनकी जगह अंग्रेजी भाषा के निजी स्कूलों की तादाद बढ़ रही है। वह हिंदी के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है। करीब तीन साल पहले जब मैं शायर फैज अहमद फैज की जन्म शताब्दी में हुए जलसे में शिरकत करने पाकिस्तान गया तो देखा कि वहां सब कुछ है पर, फकत धर्म ही नहीं है। पाकिस्तान में घरों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर इस्लाम संबंधी स्लोगन जरूर देखने को मिलते हैं। सत्ता के लिए धर्म का इस्तेमाल किसी भी मायने में मुनासिब नहीं है।
गांधीजी की सोच का ताना-बाना
इन दिनों मेरे लिखे नाटक गोडसे एट गांधी डॉट कॉम के विभिन्न शोज हो रहे हैं। फिल्म अभिनेता टॉम आल्टर इसे मंचित कर रहे हैं। इसमें गांधीजी की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक समेत विकास और प्रशासन की स्थिति को मौजूदा दौर में पिरोया गया है। तमाम कथानक का ताना-बाना गांधीजी को गोली लगने और उनके जीवित रहने के बाद बुना गया है। पूरा नाटक फिक्शन पर आधारित है। इसमें एक तरह की डिबेट का चित्रांकन किया गया है, क्योंकि गांधीजी और गोडसे दोनों की आदर्श ग्रंथ गीता की पुस्तक ही थी। इस नाटक में हिंदुस्तान में मौजूद कट्टरपंथी और उदार पंथी विचारधाराओं को गूंथा गया है। इसमें दर्शकों को गांधीजी के क्रिटिक ((कमजोर)) और आदर्श रूप को भी दर्शाया गया है। गांधीजी के आजादी के बाद कांग्रेस को डिजॉल्व करने की पैरवी को भी तार्किक ढंग से दर्शाया गया है।
(जैसा उन्होंने सर्वेश भट्ट को बताया)
दैनिक भास्कर से साभार